30.12.2015
बेतरतीब
6
जेयनयू
के संस्मरण
खंड 1
1976-80
भाग 1
2 हफ्ते पहले शुरू किए एक लेख लिखने की
सोच कर उठा 4 बजे सरसरी निगाह डालने के लिए फेसबुक खोला तो सीपीयम के प्लेनम में
मुद्दों के संदर्भ जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद पर अरुण माहेश्वरी का
कम्युनिस्ट पार्टियों की कार्यशैली पर सवाल समालोचनात्मक लेख दिख गया. यसयफआई के
दिनों की याद आ गयी. कई मित्रों की नाराजगी का खतरा मोल लेकर अनुभव-जन्य टिप्पणी
का मन हुआ. बहुत सी यादें हैं. किश्त में लिखता रहूंगा.
जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद पर विमर्श के
लिए यही सवाल पॉलिटिक्स फ्रॉम एबव के विरुद्ध हम कुछ लोगों ने 1980 में जेयनयू यसयफ आई की मीटिंग में उठाया था. इस
पर मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य में
स्वस्थ बहस की बजाय पार्टी विरोधी माना गया तथा जिन्हें कुछ दिनों तक कर्मठ कार्यकर्ता
कहा जाता था कानाफूसी से उनका चरित्रहनन शुरू किया गया. सवालियों को भय से खामोश करने के लिए उनमें सबसे
मुखर सवालिये दिलीप उपाध्याय (दिवंगत) को निशाने पर लिया गया. विचारों की असहमति
की असहिष्णुता पर दक्षिणपंथियों का ही एकाधिकार नहीं है, कम्युनिस्ट पार्टियां भी
पीछे नहीं हैं. अंतःपार्टी जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद,शासक वर्गों की पार्टियों की हाईकमान
का कम्युनिस्ट पर्याय बन चुका है. शासक पार्टियों की ही तरह कम्यनिस्ट पार्टियों
तथा उनके जनसंगठनों में भी संगटन साधन की बजाय साध्य बन गया है और संख्याबल जनबल का
पर्याय क्योंकि सबने मार्क्सवाद पढ़ना बंद कर दिया है. 70-80 के दशक की घंटों
दिमाग खंगालने वाली स्टडी सर्कल्स की परंपरा पुरातन हो खारिज कर दी गयी है.
निर्वात नहीं रहता, राजनैतिक प्रशिक्षण की जगह राजनैतिक जोड़-तोड़ ने ले ली.
आत्मालोचना की मार्क्सवादी अवधारणा बुकसेल्फ में धूल चाटने को अभिशप्त बन गयी है.
अद्भुत मेधा तथा हास्यभाव से ओतप्रोत, कैंपस में अतिलोकप्रिय, दिलीप असंभव किस्म का प्राणी था. आजकल लगता है
अतीतजीवी हो गया हूं या शायद (पता नहीं) परिघटना को समझने की
ऐतिहासिक विधि का असर है. जब भी अतीत से निकलने की कोशिस करता हूं वापसी का कोई
समुचित बहाना मिल जाता है. सरसरी निगाह डालने के लिए फेसबुक खोला तो आपका यह लेख
दिख गया. टिप्पणी से मन नहीं रोक पाया. दिलीप ने 1975 में जेयनयू में यमए में
प्रवेश लिया. मैं डीआईआर से छूटने के बाद मीसा में वारेंटेड, 1976 में भूमिगत
अस्तित्व की संभावनाओं की तलाश में इलाहाबाद से दिल्ली आ गया. किन परिस्थितियों
में तथा कारणों से एकाएक इलाहाबाद छोड़ने का फैसला लिया और तूफान मेल की वाया
भोगांव की जर्नीब्रेक यात्रा का अनुभव भी रोचक है, लेकिन फिर कभी. वियोगीजी (डीपी
त्रिपाठी) को खोजते जेयनयू पहुंचा तो दिलीप की हाजिरजवाबी, विट तथा हास्यबोध से
बहुत प्रभावित हुआ. वियोगी जी तो उस समय जेल में थे लेकिन उनके मित्र घनश्याम मिश्र
(दिवंगत) ने इलाहाबाद के मेरे एक सीनियर, रमाशंकर सिंह से मिलवाया जिन्होंने
जिन्होंने मुझे अपने कमरे में स्थाई अतिथि के रूप में शरण देकर आवास की समस्या का
बिना संघर्ष निदान कर दिया. गंगा हॉस्टल में उनका कमरा(323) सीता(सीताराम येचूरी)
के कमरे (325) के बगल में था जहां आपात काल के बाद चुनावी रणनीतियों की मीटिंग
वहीं होती थी. अतब तक मैं इन लोगों के साथ काम तो करता था लेकिन आधिकारिक रूप से
सफाया लाइन से अलग नहीं हुआ था. आपातकाल के बाद की अन् 1977 से कई साल तक दिलीप मजाक में खुद को यसय़फआई का नियमित
नेक्स्ट प्रेसीडेंसियल कैंडीडेट कहता था. अगला नेक्स्ट होने के पहले यक्स हो गया. त्रिपाठीजी
(डीपीटी) तो इलाबाद में भी बहुत सीनियर थे और जेयनयू में तो हिंदी अंग्रेजी के
धाराप्रवाह स्टार स्पीकर, छात्रसंघ के आपातकाल आपातकालीन अध्यक्ष, यसयफआई के
गॉडफादर तथा मेरे छात्र होने की संभावना भी 3-4 महीने दूर थी. डीपीटी ने दिलीप पर
सीता को तरजीह देने के जो कारण बताये थे, हास्यास्पद थे. इस पर फिर कभी. वैसे ही
फुटनोटिंग से काफी विषयांतर कर चुका हूं. यसयफआई की औपचारिक सदस्यता के पहले ही
कॉम. सुनीत चोपड़ा के नेतृत्व में बंसीलाल के विरुद्ध प्रचार की भिवानी ट्रिप का
बहुत यादगार अनुभव है, उस पर पूरी किश्त लिखूंगा कभी.
18 साल
की उम्र में मार्क्सवाद के प्रभाव में आने से एक साल पहले मैंने इलाहाबाद विवि की
छात्र राजनीति में विद्यार्थी परिषद के प्रकाशनमंत्री के
रूप में प्रवेश किया था. ब्लेसिंग इन डिस्गाइज. आपातकाल में सफाया लाइन से मोहभंग
के बाद लगा कि सीपीयम ही गोल्डेनमीन या बुद्ध का मध्य मार्ग है. तब तक पाश नहीं
पढ़ा था कि बीच का रास्ता नहीं होता. विद्यार्थी परिषद तथा यसयफआई की सांघनिक संरचना
तथा कार्यपद्धति में अद्भुत समानता देख दंग रह गया. इस पर फिर किसी और किश्त में.
विद्यार्थी परिषद का अनुभव सीखप्रद होने के साथ मेरे अंधराष्ट्रवाद से मार्क्सवाद
से मार्क्सवाद के संक्रमणकाल के कम कर दिया. इस पर भी फिर कभी. अभी जनतांत्रिक
केंद्रीयतावाद की बात करते हैं. उस बार की स्कूल तथा ह़ॉस्टल दोनों ही मीडिंगों
में मैंने लाइन पर कुछ सवाल उठाया. संख्याबल सदा नेतृत्व के साथ. पता चला कि गंगा
हॉसटल के तत्कालीन संयोजक पी सांईनाथ(मित्र तथा बड़े पत्रकार) ने सेंट्रल कमेटी
में हर बात पर सवाल करने की मेरी शिकायत की थी, जबकि
मार्क्सवाद हर बात को सवाल-दर-सवाल के घेरों में लेने की हिदायत देता है. दिलीप,
सारी आवारागर्दी-अड्डेबाजी के बावजूद, काफी
पढ़ता था. देवीप्रसाद त्रिपाठी (तब जेयनयू यसयफआई के गॉड फादर अब यनसीपी के सांसद)
सी वाक्पटुता के अभाव के बावजूद अपने हास्यभाव तथा व्यंग्यबोध के चलते बहुत
प्रभावशाली और लोकप्रिय वक्ता था. वह अतिसक्रिय जेयनयू डिस्कसन फोरम का संयोजक था.
पोस्टर-पैंफलेच लिखना, साइक्लास्टाइल करवाना, सभी हॉस्टलों के मेस में रखकर 6 बजे की चाय के बाद सोने जाना. वह डेस्कॉलर था इस
लिये सभी हॉस्टलों के कई-कई कमरे उसके अपने थे जिसमें गंगा ह़ॉस्टल का 119 न. का मेरा कमरा भी था. एक रात हम लोग काशीराम के
ढाबे पर 12 बजे तक कमरे पर आये. सुबह नाशते से
पहले सब मेस में लीफ्लेट पहुंचना था. दिलीप ने 3 बजे
लिखना पूरा किया. हम दोनों मुनिरका साइक्लोस्टाइल कराने गये. वापस छहों हॉस्टल में
पर्चे रखकर 6 बजे की चाय के लिए काशीराम के ढाबे
पहुंचे. दिलीप 3-4 घंटे के लिए सोगया, मेरा 9 बजे
क्लास थी, नहीं सोया. दिन भर नींद नहीं आई. काम
की सार्थकता का एहसास थकने नहीं देता. विस्तार से इसलिय़े बता रहा हूं कि
प्रतिभाशाली तथा प्रतिबद्ध सदस्यों के प्रति इन संगठनों के नेतृत्व के बर्ताव की
यह मिशाल है. दिलीप के निलंबन के बाद
तत्कालीन यूनिट सचिव अनिल चौधरी (पीस के निदेशक) ने कहा था, यह संगठन के लिए इतना
हाड़तोड़ मेहनत करता था तो मुखालफत में कितना नुकसान करेगा, लेकिन ऐसे लोग रचनाशीलता
के उत्सर्जन की बाधाओं से कुंठित हो अपना नुक्सान तो कर सकते हैं, किसी और का नहीं.
कानाफूसी प्रचार का
सार यह था कि दिलीप अराजक है तथा शराब के नशे में अशिष्टता करता है, कभी पता नहीं
चला कि किसके साथ उसने अशिष्टता की हैं. खैर कारण बताओ नोटिस, जवाब, निलंबन,
गुटबाजी की औपचारिकताओं के बाद निलंबन की पुष्टि के लिए डाउन कैंपस, यस-2 में यसयफआई
की जीबीयम का विश्वसनीय अनुभव अविस्मरणीय है. दिलीप के निलंबन ने लंबे समय के
असंतोष को फूटने का मौका दिया. अंदर की गुटबाजी की गोपनीयता टूट गयी. यसयफआई की
आंतरिक विरोधाभास को हमलोग 680 तथा 511 का टकराव कहते थे. 680 केंद्रीय सचिवालय से
मदनगीर जाती थी तथा 511 ग्रीन पार्क से चाणक्यपुरी. इन नंबरो की व्याख्या, समीक्षा
फिर कभी. जीबीयम में पक्ष विपक्ष स्पष्ट था. आरोप पढ़े गये तथा संगठनविरोधी
गतिविधियों के लिए निष्कासन आदेश पढ़ दिया गया. हमारी मांग कि आरोपी को सफाई का
मौका दिया जाना चाहिये यह कहकर खारिज कर दी गयी कि प्रस्ताव पर मतदान के बाद मौका
दिया जायेगा. हम संख्याबल में बहुत कम थे. हममें से तो कइयों को बाहुबल से चुप
कराया गया. बहुमत से प्रस्ताव पारित होने के बाद यह कह कर नहीं बोलने दिया गया कि
अब तो वह सदस्य ही नहीं था इसलिए संगठन के फोरम से नहीं बोल सकता. विचारों से
सिर्फ कट्टरपंथी नहीं डरते पार्टी लाइन के भक्तिभाव वाले वामपंथी भी. उसे बोलने का
मौका दे देते तो कौन आफत आ जाती? खैर संगठन अनौपचारिक रूप से दो-फाड़ हो चुका था. कई लोग जो हमसे
सैद्धांतिक रूप से सहमत थे किंतु खुलकर
सामने नहीं आना चाहते थे.
वार्षिक सम्मेलन में
आर-पार की लडाई की तैयारी शुरू हो गयी. राजनैतिक नैतिकता को ताक पर रखकर दोनों ही
पक्ष समयसीमा से बाद में बैक डेट में सदस्यता अभियान जारी रखा. अपने पक्ष में मेरा
विरोध दर्ज कर लिया गया. मैं अक्सर ही अल्पमत में रहा हूं.
एक शाम वेंकट रमन
भास्कर (पूर्व प्रोफेसर दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स, फिलहाल शायद लंदन स्कूल ऑफ
इकॉनामिक्स में प्रोफेसर) से झेलम लांस में एक चिक चिक स्मरणीय है. मैंने कहा कि
जैसे सरकार आंदोलनकारियों पर सरकार की खास नीति के प्रतिरोध का राजनैतिक आरोप न
लगाकर तोड़फोड़ जैसे आपराधिक आरोप लगाती है, (आपातकाल में हाथ-पैर से अपंग, हिंदी
के जाने माने लेखक, इलाबाद विवि के प्रो. रघुवंश पर बिजली का तार काटकर शहर की
बिजली सप्लाई बाधित करने का आरोप लगा था) वैसे सीपीयम में भी राजनैतिक के बजाय
चारित्रिक आरोप लगाये जाते हैं तथा ताली ब्रिगेड आंख बंद कर हाथ उठा देता है.
मैंने प्रवीर पुरकायस्थ का उदाहरण दिया. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के वक्त प्रवीर
पुरकायस्थ को इलाहाबाद में पार्टी ऑफिस से साइकिल चुराने के आरोप में निकाल दिया
गया था. असली मुद्दा पार्टी के किसी बड़े नेता से मुखर मतभेद का था. भास्कर मेरे
ऊपर चिल्लाने लगा. प्रवीर पार्टी के यसय़फआई में अघोषित हाई कमान थे. उस वक्त
भास्कर जो मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज मे पढ़ते हुए तमिलनाडु में आपातकाल के विरुद्ध
जुझारू संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे जहां डीयमके की करुणानिधि सरकार भी आपात काल
की विरोधी थी जिसे आपातकाल खत्म होने के थोड़ा ही पहले कुख्यात आर्टिकल 356 के तहत
बर्खास्त कर दिया गया. गौर तलब है कि यह सब भास्कर को अगला अध्यक्षीय उमीद घोषित
करने के लिए किया जा रहा था. तभी संयोग से प्रवीर पुरकायस्थ वहां पहुंच गये.
भास्कर ने तुरंत पूछा, “Com Purkayasth, he
s saying that you were expelled on the
charge of stealing a cycle from party office?” प्रवीर भास्कर का जवाब देने की बजाय मेरी तरफ बढ़े, “It was between me and the party, its over, how it
concerns you? If I beat up my wife in my
house, how it concerns you? (यह मेरे तथा
पार्टी के बीच का मामला था. खत्म हो गया. तुम्हे इससे क्या मतलब?)”. प्रवीर यह कहकर फंस गये. मैंने कहा, “dare bat up your wife and see what shall I do? प्रवीर रक्षात्मक
मोड में आ गये. मेरा यह नहीं वह मतलब था. मैं भी जानता था कि प्रवीर के मुंह से
ऐसे ही निकल गया होगा. उनकी पत्नी कॉ. अशोकलता जैन (दिवंगत) बहुत बहादुर थीं, उन
पर आंख उठाने की किसी की जुर्रत नहीं थी. मेरे मन में उनके प्रति अत्यंत सम्मान
था. प्रवीर का भी बहुत सम्मान करता था. लेकिन जंग और प्यार में सब जायज़ वाली
बेहूदी कहावत के प्रभाव में इस तकनीकी बिंदु का पूरा इस्तेमाल किया. जिसका अफ़शोस
बहुत दिन बाद हुआ तथा अव्यक्त रह गया.
खैर. नेतृत्व तथा
विद्रोही गुट एक दूसरे को नीचा दिखाने की गुप्त रणनीतियां बनने लगीं. पूंजीवाद की
बजाय लगता था हमीं एक-दूसरे वर्ग शत्रु बन गये थे. बाद में पता चला कि कइयों के
विद्रोह निजी कारणों से थे, कई निजी कारणों से विद्रोह से अलग रहे तथा कुछ विभीषण
थे. दोनों ही पक्षों में बहुमत मार्क्स के लेखन से अपरिचित मार्क्सवादियों का था.
संख्याबल जनबल का पर्याय बन गया था. नेतृत्व पक्ष के मित्रों से निजी मित्रता
मतभेदों पर बहस के साथ बनी रही. कुछ विद्रोहियों (निजी कारणों वाले) ने विद्रोह की
मेरी प्रतिबद्धता पर परोक्ष कटाक्ष किया.
मैंने कहा, हमारा कोई खेत-मेड़ की लड़ाई तो है नहीं, न ही कोई अंतिम सत्य
होता है जिसका मैं वाहक हूं. वैसे खेत मेड़ की लड़ाई भी दुश्मनी पालने की बजाय
सुलह से निपटा लेनी चाहिये. राजनैतिक विरोधियों के प्रति मेरा आज भी यही दृष्टिकोण
है. सम्मेलन के 2 दिन पहले मेरे कमरे में आधी रात को रणनीति को अंतिम रूप देने तथा
‘फ्लोटिंग ‘ सदस्यों को रिझाने
की योजना को अंतिम रूप देने के लिए विद्रोह के शीर्ष नेतृत्व – दिलीप उपाध्याय,
संजीव चोपड़ा (वरिष्ठ आईएयस), उदय सिन्हा (वरिष्ठ पत्रकार), सीताराम सिंह (रूसी
सांस्कृतिक केंद्र से सेवा निवृत्त), शाहिद परवेज(निदेशक, उर्दू ओपेन यूनिवर्सिटी,
दिल्ली केद्र) श्यामबाबू मिश्र (उ.प्र. सरकार में राजपत्रित अधिकारी) तथा मैं – की
बहुत लंबी बैठक के बाद हम जोरआज़माइस में 19 न पड़ने के प्रति आश्वस्त थे. पिछले
सम्मेलन में हम लोग आधिकारिक प्रस्ताव के समानांतर प्रस्ताव पारित करा सके थे. तब
और बात थी. हम और वे का विभाजन भूमिगत था. वैसे भी हमें प्रकरण के नायक के बिना ही
मोर्चा संभालना था. मार्क्स, एंजेल्स, लेनिन, माओ, ग्राम्सी, पुलांजाज, सात्र,
राहुल सांकृत्यायन, चे, क्रिस्टोफर कॉडवेल के उद्धरणों को अस्त्र–शस्त्र के रूप
में इकट्ठा किया गया. इसमें मुख्य यागदान दिलीप का था संजीव तथा मैं सहायक की
भूमिका में थे.
अगला दिन विद्रोह के
अवसाद का दिन साबित हुआ. तुलना समुचित नहीं थी लेकिन 1925 के कम्युनिस्ट पार्टी के
सम्मेलन से मिनट्स के दस्तावेजों के साथ सत्यभक्त के गायब होने की कहानी याद आ गय़ी
थी. कॉ. उदय सिन्हा ने ऐन मौके पर विद्रोह के सारे दस्तावेजों के साथ पक्ष बदल
लिया. कुछ लोगों ने उदय को कॉ. जी. सिन्हा कहना शुरू किया. मेरा विरोध बेअसर रहा. विद्रोह, विद्रोह के पहले ही बेनकाब हो गया.
नेतृत्व के पास मुखबिर की जानकारी हमारे विरुद्ध संगठन विरोधी गतिविधियों के
पुख्ता सबूत थे. मेड़ पर बैठे लोग (जानबूझ कर फेंससिटर्स का शाब्दिक अनुवाद कर रहा
हूं) उतरकर खेत के बीच में चले गये. कम्युनिस्ट पार्टियों तथा उनके संबद्ध
जनसंगठनों में इस्तीफा मंजूर करने का रिवाज़ नहीं है. नामंजूर कर निष्कासन का
रिवाज़ है. जिस सिद्दत से कुछ दिन पहले तक सदस्यता अभियान चलाया जा रहा था उससे
अधिक सिद्दत से हमने इस्तीफा अभियान शुरू किया. 45 लोगों ने सामूहिक त्यागपत्र पर
दस्तखत किया. जिसमें से 10-15 फ़र्जी थे जिन्हें बैकडेट में शक्ति प्रदर्शन के लिए
सदस्य बनाया गया था. अपेक्षित रूप से त्यापत्र नामंजूर कर सबको संगठन विरोधी
गतिविधियों के लिए निकाल दिया गया.
अगले दिन हमने
आरयसयफआई (रिबेल यसयफआई) का संस्थापना दिवस मनाया, जिसमें सामूहिक नेतृत्व का
हिमायती संविधान पारित किया गया. यसय़फआई के लोग हमें रम यसयफआई कहने लगे. डीपीटी
ने उस साल के चुनावी भाषण में हमें रीयल रेनीगेड कहा. निजी चरित्रहनन आम बात थी.
हमारी पब्लिक मीटिंग्स में काफी भीड़ होती थी. कम्युनिस्ट विरोधियों को मसाला मिल
गया. समादवादी विजयप्रताप दिनमान में मुझे उद्धृत कर, “ईश मिश्र बोले......” एक लेख लिखा. वह
अंक जेयनयू में रहते ही गायब हो गया था. शाहिद अब तक मिलने पर ईश मिश्र बोले
संबोधन से संबोधित करता है.
अगले चुनाव में हमने
लिबरेसन के नवगठित संगठन पीयसओ के साथ हमने गठबंधन बनाकर डोक्रेटिक स्टूडेंट्स
फ्रंट बनाया. पीयसओ में ज्यादातर इलाहाबाद के पुराने कॉमरेड थे. उर्मिलेश(पीयसओ)
अध्यक्ष तथा सीताराम सिंह सेक्रेटरी के उम्मीदवार थे उपाध्यक्ष के शायद संजीव
चोपड़ा तथा संयुक्त सचिव पद पर आरयसयफआई का गुलाम मोहम्मद भट्ट (कश्मीर विवि में
फ्रेंच का प्रोफेसर). 1983 आंदोलन में भट्ट ने लिखित माफीनामे के बाद 2 बार जस्टिस
पृथ्वीराज कमीसन में निजी रूप से माफी मांगने गया तथा भगा दिया गया. 1983 की बात
बाद में. डीपीटी एंड कंपनी की तुलना में हमाऱे स्टार स्पीकर थे दिलीप उपाध्याय,
सीताराम सिंह, उर्मिलेश(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक), निशात कैशर तथा संजीव चोपड़ा. मैं
प्रायः सभा संचालन की भूमिका में होता था. एक मीटिंग में किसी ने प़लिटिक्स फ्रॉम
एबव पर सवाल किया. मैं पार्टी लाइन पर कुछ बोलता कि दिलीप ने जवाब देने की इच्छा
व्यक्त किया. उसने फौज के जवानों की क्लास की सिमिली से नेपाली लहजे मे उत्तर
दिया. “सूबेदार शा’ब कम्पाश पढ़ा रहे थे. ज्वान ये मेरे हाथ में जो मशीन है इसे कम्पाश
कहते हैं, क्या कहते हैं? सब ज्वान एक साथ बोला, शा’ब कम्पाश. सूबेदार शा’ब बोले वेरी गुड ज्वान. ज्वान ये कम्पाश नार्थ को प्वाइंट करता है.
किधर को प्वाइंट करता है? सब लज्वान एक साथ, नार्थ को प्वाइंट करता है शा’ब, नार्थ को. शाबाश
ज्वान. तभी एक जवान पूछ देता है, शा’ब ये कम्पाश नार्थ को ही क्यों प्वाइंट करता है, ईश्ट को क्यों नहीं? सूबेदार शा’ब खुश हो बोले शाबाश
ज्वान. वेरी इन्टेलीजेंट कश्चन. चलते जाओ, चलते जाओ, चलते जाओ, चलते जाओ, चलते
जाओ, चलते जाओ और चलते जाओ तो एक पहाड़ मिलेगा. उस पहाड़ में वही मैटल है जो इस
कम्पाश में. समझ में आया ज्वान? सब एक साथ, हां शा’ब. बिल्कुल करक्ट शा’ब. सूबेदार शा’ब बोले, शाबाश ज्वान. अटेंसन से सब समझ आ जाता है. तभी एक ज्वाऩ पूछ
दिया, शा’ब, हम इस कम्पाश को लेकर चलते जायें, चलते जायें, चलते जायें, चलते
जायें, चलते जायें, चलते जायें, चलते जायें और चलते जायें, चलते चलते पहाड़ के
नीचे पहुंच जायें. औऱ फिर चढ़ते जायें, चढ़ते जायें, चढ़ते जायें, चढ़ते जायें, चढ़ते
जायें, चढ़ते जायें और चढ़ते जायें तथा चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते पहाड़
के ऊपर पहुंच जायें, तब कम्पाश किधक को प्वाइंट
करेगा? सूबेदार शा’ब चक्कर में पड़ गये यह तो किसी मैनुअल में लिखा नहीं था. कड़क आवाज
में बोले, शीओ शा’ब का हुक्म है कोई ज्वान पहाड़ पर नहीं चढ़ेगा.” (जारी)
रोचक वृतांत.
ReplyDeleteइसे आप पहाड़ के ऊपर तक ज़रूर पहुंचावें.
पता तो चले कि कंपास किस दिशा को सूचित करता है !
रोचक वृतांत.
ReplyDeleteइसे आप पहाड़ के ऊपर तक ज़रूर पहुंचावें.
पता तो चले कि कंपास किस दिशा को सूचित करता है !
कभी-न-कभी पहजड़ के ऊपर पहुंचेगा ही।
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