Sunday, May 5, 2013

साहित्यिक २

क्या यार कामू और काफ्का की याद दिलाकर तुमने इलाहाबाद में  किशोरावस्था (यह अलग बात है कि मैं अपने को वयस्क मानता था) की नास्टेल्जिया में ढकेल दिया जब पहली बार इन दोनों को पढ़ा. मैं कामू को अतिरंजना का मानक मानता हूँ, ऐसी अतिरंजना जो भोगा हुआ लगे. जब भी कभी किसी सरकारी दफ्तर किसी काम के लिए जाता "ट्रायल" के दृश्य आँखों के सामने नाचने लगते. बनारस में एक अद्भुत भिखारी से एक बार मुलाक़ात हुई. मैं १४--१६ साल का रहा होऊंगा. जौनपुर में पढता था और अक्सर बिना टिकट बनारस घूमने चला जाया करता था. (भूमिका लम्बी हो रही है, इस लिए अब सीधे कहानी पर). हाई स्कूल में १० या १२ रूपये प्रति माह की छात्र वृति मिलती थी. ६ महीने की इकट्ठे. मैं दशास्वमेध घात पर एक नाव वाले से अकेले घुमाने का मोल-भाव कर रहा था. तभी दुग्ध धवल खादी की बनयान और लूंगी में एक आदमी मेरे पास आया. मुझे गौर से देखा और बोला, "हे बाबू! एक रूपया (उस समय एक पैसा भीख मांगते थे सब) भीख दे दे". मैंने गौर से उस आदमी को देखा उन्नत ललाट, व्यवस्थित बाल, हृष्ट पुष्ट काया. मैं दर गया. ठगों की कहानियां याद आने लगी. मैं डरते डरते पूछा "आप भीख देने वाले पर छोड़ दीजिये वह कितना..." बात बीच में काट कर बोले मैं दिन भर भीख ही माँगता रहूँगा. नहीं है तो बोल. मैं एक रूपया देते देते पूछ लिया, "क्या करेंगे एक रूपये से?". "पूड़ी-कचौड़ी खाऊंगा". (उन दिनों 1 रूपये में भर-पेट पूड़ी-कचौड़ी मिलती थी.) नाव वाले ने बताया कि यह सुबह-शाम दो बार 1 रूपये की भीख माँगता है. मैंने पूछा रात कहाँ बिताते हैं, तो बोले 1 रूपये में सारा-इतिहास भूगोल जान लोगे. ३३-३४ साल पहले मिला वह व्यक्ति आज भी मेरे लिए पहेली बना हुआ है.

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