वैसे तो हकीकत का था मुकम्मल एहसास
नहीं थी कोइ रूमानी खुशफहमी
लेकिन उस दिन से, जो वाकई एक दिन था
किया था हमने जब इज़हार-ए-इश्क
एक तिरता हुआ एहसास
आता था बहुत करीब
तन्हाइयों में अक्सर
छू जाता था
अन्तर्मन के किसी नाज़ुक कोने को
और वह रात, जो वाकई एक रात थी
उड़ा ले गया था तुम्हे जब
फ्रायड की हवा का एक हल्का झोंका
आशिकी के चंद दिन बीते उल्लास में
और कुछ गम-ए-जुदाई के विलास में
उतर चुका है खुमार अब
नशे का उल्लास-ओ-विलास के
याद करनी हैं फिर से
नियामतें गम-ए-जहां के विरोधाभास के
तो इसे विदागीत समझो
वायदा है न दिखने का
फिर से
उस राह
साथ न लाये जब तक
जंग-ए-आज़ादी की साझी चाह
[ईमि/१६.०५.२०१३]
No comments:
Post a Comment