Wednesday, May 8, 2013

लाल्लापुराण ८३

जब तक माशूक तटस्थ बना रहे या अस्पष्टता की चादर ओढ़े रहे तो 'अंतिम विदागीत" के विशेषण की प्रामाणिकता संदिग्ध हो जाती है, नफ़रत प्रामाणिकता को पुष्ट कर देती है और अतीत को गर्द की तरह एक कविता से झाड़ कर दुबारा उस रास्ते की संबावना क्षीण हो जाती है. इसमें न तो प्यार के दुबारा बीजारोपण का धृष्ट प्रयास है न ही प्रतिदान याचना और जिस किसी के साथ चन्द सुन्दर क्षण गुजरे हों उसे ब्लैकमेल की बात तो अपराध है, ऐसा जघन्य अपराध मैं नहीं कर सकता. वैसे तो हमेशा स्पष्ट मकसद के साथ नहीं लिखता कई कवितायें तो तात्कालिक प्रतिक्रिया हैं, जिनपर काम की जरूरत है. इस कविता का मकसद "अंतिम अंतिम विदागीत" के "अंतिम" होने की आत्म-आश्वस्ति का प्रयास है. इसके पात्र और उनके प्यार और नफ़रत अमूर्त सैद्धांतिक अवधारणाएँ हैं. हा हा राजू जी, कविता का प्रेम और प्रेमिका अक्सर अमूर्त होते हैं और कोइ अगर आपसे नफ़रत करे तो नफरत से निकली चुनौतियां "जुदाई के गम" से ध्यान हटाती हैं और उसका गुरुत्व बदल देती हैं. इसमें मुझे न तो खुद को सच्चा प्रेमी साबित करने का कोइ दावा किया गया है और न ही प्रेमिका को बेवफा साबित करने की साज़िश. रंजिशों के और भी कारण हो सकते हैं.

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