"वह तोडती पत्थर
देखा इलाहाबाद के पथ पर......."
याद आती हैं हैं ये पंक्तिया
जब भी देखता हूँ ऐसा ही दृश्य
होते अगर निराला
देखते जिजीविषा का यह भीषण चक्र
और इस युवती का साहस
बेटी को स्तनपान कराने के साथ
करने को रोटी का इंतज़ाम
कर रही है साथ साथ
पत्थर तोड़ने का काम
वह तोडती पत्थर
देखा फेसबुक के पन्नो पर
तोड़ना है उसे दिन भर में
है वह जो पत्थरों का अम्बार
चलाने को टाट की आड़ में
बसा अपना घर-बार
लेनी है उसे लेकिन
नन्ही बच्ची की भी सुध
नहीं है समय अलग से
नहीं है समय अलग से
पिलाने को उसे दूध
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