Ramakant Roy आप सही फरमा रहे हैं बहुत से झोलाछाप, उलझे बाल, खिचडी दाढ़ी वाले कई कवि हुए हैं, कई बहुत गर्दिश में भी रहे हैं, हाँ दरवाजे दरवाजे वेउनमें से कितने भीख मांगते थे, यह जानकारी नहीं थी. निराला जी के बारे में क्या ख्याल है. भिक्षाटन वाला हिस्सा छोड़ दें तो हमारे मित्र गोरख पाण्डेय भी आपकी देवदास टाइप में आते हैं. किसी की कविता की धार उसकी दाढी की सजा या वैभव से नहीं बल्कि उसके सरोकारों और प्रतिबद्धताओं से तेज या कुंद होती है. रचना-कर्म एक आतंरिक प्रक्रिया है, वाह्य नहीं. जैसे ही आप कृपा पात्र बने, जमीर को थोड़ा क़त्ल किया.जैसी जैसे गुणात्मक-मात्रात्मक कृपापात्रता बढ़ती जाती है, जमीर क़त्ल होता जाता है और अन्ततः जमीर से मुक्ति. क्या धार होगी इन बेजमीर रचनाकारों की रचनाओं में. अच्छे शिक्षक और अच्छे लेखक होने के लिए अच्छा इंसान होना एक पूर्व-शर्त है. मैं ऐसा ही मानता हूँ. अशोक जी ठीक ही कह रहे हैं कि पूंजीवाद में श्रम के साधनों से मुक्त सारी श्रम-शक्ति, श्रम-शक्ति -- आजीविका के लिए बौद्धिक या भातिक श्रम पर निर्भर हम सब लोग alienated labour करने को अभिशप्त हैं. हमारा निरंतर प्रया इस एलीनेसन को कम करते हुए समाप्त करने का होना चाहिए. अध्यापन एक ऐसा पेशा है जिसमें एलिनेसन को कम-से-कम किया जा सकता है.
बहुत सुन्दर कविता है, प्रीती की. १९७० और ८० के दशकों में जो लोग फैशन में मार्क्सवादी बने थे वे "इतिहांस के अंत" के साथ ही भूतपूर्व हो गए. पेशेवर बुद्धिजीवियों में दरबारी और गिरगिटपन की प्रवृत्तियों की साहित्य के इतिहास में कभी कमी नहीं रही. जरूरत इन सबके भंडाफोड़ के साथ मार्क्सवादी खेमों में भी सनातनी ढर्रे पर पनप रहे हठों और मठों को तोड़ते हुए भूमंडलीय पूंजी के सांस्कृतिक हमलों के मुकाबले के लिए एक सामासिक सोच और जनतांत्रिक संगठन की है.
बहुत सुन्दर कविता है, प्रीती की. १९७० और ८० के दशकों में जो लोग फैशन में मार्क्सवादी बने थे वे "इतिहांस के अंत" के साथ ही भूतपूर्व हो गए. पेशेवर बुद्धिजीवियों में दरबारी और गिरगिटपन की प्रवृत्तियों की साहित्य के इतिहास में कभी कमी नहीं रही. जरूरत इन सबके भंडाफोड़ के साथ मार्क्सवादी खेमों में भी सनातनी ढर्रे पर पनप रहे हठों और मठों को तोड़ते हुए भूमंडलीय पूंजी के सांस्कृतिक हमलों के मुकाबले के लिए एक सामासिक सोच और जनतांत्रिक संगठन की है.
No comments:
Post a Comment