मार्क्स ने खुद उनके विचारों को अकाट्य मानने वालों से आजिज़ आकर मजाक में कहा था, जैसा की ऊपर शिक्षा ने लिखा है, "भगवान् का शुक्र है की मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ". जिन भी व्यक्तिओं और दलों ने मार्क्स को अल्लाह मान लिया उन्होंने मार्क्सवाद को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई. मार्क्स एक अतिसंवेदनशील और अद्भुत प्रतिभावान व्यक्ति थे जिनकी इतिहास को समझने और बदलने की विध्हएं आज भी उतनी ही सार्थक हैं जितनी १९वी शताब्दी में. आप बिलकुल सही फरमा रहे हैं की संचार क्रान्ति, जिसे शासक वर्गों ने अपने हित-साधन के लिए विकसित, किया उसने प्रिंट-मीडिया के तमाम समीकरण बदल दिए लेकिन पूंजीवाद का चरित्र नहीं बदला. हर बात के अनचाहे परिणाम होते हैं उसी तरह जिस तरह एडम स्मिथ इतहास को मुनाफ़ा कमाने की गतिविधिओं का अनचाहा परिणाम मानते थे. संचार-क्रान्ति वर्चुअल दुनिया में एक नए ढंग के अन्ताराश्त्रीयटा को जन्म दे रहा है जिसका वास्तविक दुनिया में परिलक्षण समय की बाते हैं. इसमे सबसे बड़े बाधक हैं सुविधाभोगी मध्य-वर्ग और चुनावी कम्युनिस्ट पर्तिआ जो सत्ता-भोग और टाटा और इंडोनेसिया के कम्युनिस्ट दमन में सहयोगी कंपनी से दलाली खाने के लिए मेहंकाशों का कत्ले आम करती आ रही हैं और जिसके लिए वे कांग्रेस, RSS , लालू और भाँति-भाँति के पूंजी के दलालों की गोद में बैठ जाती हैं. नवीन पटनायक ने जैसे ही भाजपा का साथ छोड़ा सीपीयम उसकी दलाली में हाथ बंटाने के लिए उस दलाल की दलाली में जुट गयी. सीपीयम का यह चरित्रा १९६७ से ही शुरू हो गया था जब ज्योति बासु के गृहमंत्री रहते हजारों युवा उमंगों को क़त्ल किया गया, यद्यपि सिद्धार्थ शंकर नामक कमीने कातिल ने उन्हें बहुत पीछे छोड़ दिया. अब प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्री सीपीयम द्वारा पूजी की दलाली को जनतांत्रिक आन्दोलनों के लिए आवश्यक बता रहे हैं.
Thursday, June 30, 2011
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