Saturday, June 11, 2011

कला की संस्कृति

कला की संस्कृति
ईश
कौन कहता है मर गया मक़बूल फिदा हुसैन
अब तो और करेगा वह संस्कृति के ठेकेदारों को बेचैन
कला कला के लिए नही होती, कहा उसके ब्रश ने बात माकूल
बना दिया उसने रंगों से सामासिक संस्कृति के कई पुल
जोड़ दिए जिनने कितने ही टूटे-बिछडे दिल
हैरान हो गए इससे पोंगा-पंथी, फिरकापरस्त, बुज्दिल
बुरुश से भर कर रंग बना रहा था वह देवता को भी इंशान
धर्म के ठेकेदारों को हुआ खतरा बंद हो जाएगी दुकान
खोल दिया मोर्चा कला की संस्कृति के खिलाफ
कहा, मिट जाएगा इससे तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
देख बढता कला की सामासिक संस्कृति का प्रताप
मच गया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कला-विरोधी उत्पात
शर्म आती है नागरिक कहने में इस राष्ट्र का
अंधी समझ हो जिसकी डरपोक ध्रितराष्ट्र का
तरस आती है ऐसे भयभीत समाज पर
फक़्र न हो जिसे हुसैन के रंगों के ऐतराज पर
मिलें न जहाँ शरण तस्लीमा नसरीन को
रोक न सके जो मक़बूल हुसैन को
अफसोस है मुझे ऐसे देश में रहने का
कला की सामासिक संस्कृति का अपमान सहने का.
[ईमि/10.06.2011]

1 comment:

  1. हुसैन को श्रद्धांजलि केतौर पर लिखा था. संभव हुआ तो लेख लिखूंगा इस पर.

    में तो वैसे भी नहीं हूँ नैसर्गिक कवि
    प्रयास से कुरेदता हूँ कव्यात्मक छवि
    वैसे भी लिखेंगे जब हर बात पर गान
    होती नहीं सभी कृतियाँ महान
    होते हैं सब नियमों के अपवाद
    कभी होते हैं संत कबीर तो कभी काराल मार्क्स

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