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हम भी अवधी क्षेत्र के हैं। हमारे यहां कलावा को रक्षा भी कहते हैं, अबतो बांधता नहीं, बचपन में बंधने के तुरंतबाद निकाल देता था। बचपन में काजल तो मां (माई) या दादी (अइया ) काजल लगा देती थीं और सुबह सुबह दादा जी (बाबा), ठाकुर को नहलाने-भोग लगाने के बाद माथे पर चंदन का टीका लगा देते थे तो काजल लगाने की जगह ही नहीं बचती थी, तथा अनखा कभी नहीं पहना, न कभी नजर लगी न ही भूत चुड़ैल का डर, जबकि नदी किनारे गांव में और गांव के बाहर कई भूत-चुड़ैल निवास करते थे। बुढ़वा बाबा, बैरी बाबा और कुछ और तो हमारे पूर्वजों के भूत कहे जाते थे। गांव के दक्षिणी सीमांत खेतों में अंड़िका गांव की एक पतुरिया की चुड़ैल काफी चर्चित थी। कई लोग रात में खलिहान की रखवाली में उसके साथ खैनी खाने और संवाद की कहानियां बताते थे।एक बुढ़वा बाबा नदी के किनारे के एक खेत में एक गूलर के पेड़ पर रहते थे। उसके आस-पास के खेत बुढ़वा तर कहे जाते थे। एक बार अपने एक सीनियर समौरी (हमउम्र), लालू भाई के साथ चरवाही करते समय मुंह से बुढ़वा बाबा के लिए कोई गाली निकल गयी तो लालू भाई ने टोका कि हमारे पूर्वज हैं। मैंने कहा कि पूर्वज हैं तो शांति से रहें बच्चों को डराते क्यों हैं। बचपन में, 12-13 साल की उम्र में भूत की परिकल्पना के वहम होने की धारणा बनने तक हमारी भूतों (?) से कुछ टकराहटें हुई हैं। जिनकी कहानियां फिर कभी, एक की लिंक ब्लॉग से खोजकर देता हूं। बचपन में मैं स्थानीय स्तर पर बिच्छू झाड़ने की ओझागीरी भी कर चुका हूं। आसपास के गांवों के लोग रात में सोते से जगाकर गोद में उठाकर ले जाते थे।
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