Monday, September 18, 2023

बेतरतीब 154 (गोरख)

 गोरख पांडे की कालजयी कविता, 'समझदाररो का गीत' पर एक चर्चा में मेरे इस कविता की रचना प्रक्रिया का गवाह होने की बात बताया। साथी, Daya Shankar Rai ने प्रक्रिया जानने का आग्रह किया। वैसे तो कविता कवि के मन से निकलती है और वह रही उसे संपादित कर सकता है। इसके जवाब में भूमिका लंबी हो गयी मास्टरों की लंबी भूमिका की आदत होती है, और कभी कभी तो भूमिका इतनी लंबी हो जाता है कि विषय गौड़ लगने लगता है। और यह तो भूमिका की भूमिका हो गयी। खैर


जेएनयू की तत्कालीन (अब पुरानी) जनतांत्रिक शिक्षानीति की जगह नई प्रवेश नीति लागू करने के विरोध में 1983 में जेएनयू में एक आंदोलन चला था। दोनों नीतियों में फर्क का गुणात्मक विश्लेषण फिर कभी, बाद के छात्र आंदोलनों के दबाव में पुरानी प्रवेश नीति के कई प्रावधान फिर से शामिल कर लिए गए हैं। कहा जा ररहा था कि नई शिक्षानीति प्रमुख किरदार थे, प्रसिद्ध इताहासकार, बिपिन चंद्र तथा उनके प्रमुख समर्थक थे सीपीआई के प्रो. आरआर शर्मा और एचसी नारंग। कैंपस नीचे (ओल्ड) से ऊपर (लए में)) शिफ्ट हो रहा था। आंदोलन की प्रतिक्रिया में पुलिस कार्रवाई हुई और बहुत से लड़के-लड़कियां तिहाड़ जेल पहुंच गए थे। कुछ अखबारों में जेएनयू के कुछ छात्रों के जेल से फरार होने की खबरें चफीं, उनपर फिर कभी। विवि अनिश्चित काल के लिए बंद था, 1983-84 जीरो सेसन घोषित था। 1983 में नए छात्रों का आगमन नहीं हुआ और एमए करने वाले छात्रों को एमफिल के लिए दिल्ली और अन्य विश्वविद्यालयों में जाना पड़ा। जांच समिति के नाटक के बाद 17-18 छात्रों को माफी न मांगने के लिए निष्कासित कर दिया गया था। मुझे गलती के लिए माफी मांगने में कोई परेशानी नहीं है, मैं अपने छात्रों के गलती होने पर माफी मांगने की शिष्टता सिखाता था और शिक्षक को प्रवचन से नहीं मिशाल से पढ़ाना चाहिए। लेकिन आंदोलन में साझेदारी के लिए माफी मांगना आंदोलन की भर्त्सना करना होता। कैंपस के सभी प्रमुख संगठन, एसएफआई, एआईएसएफ, फ्रीथिंकर्स समर्पण कर चुके थे। हम सब डाउन (पुराने)कैंपस लाइब्रेरी के बाहर कॉरीडोर में अड्डेबाजी करते थे। हम लोग फैज, नागार्जुन, इब्ने इंशा की कविताएं पढ़ते हुए तथाकथित प्रगतिशील (बिपिन तथा सीपीएम-सीपीआई टाइप) बुदिधिजीवियों के चरित्र का विश्लेषण कर रहे थे, गोरख ने कहा 'बुदिधिजीवियों की रुदाली' लिखता हूं, कुछ सुनाने के बाद शीर्षक पर बहस हुई और गोरख ने इसका शीर्षक समझदारों का गीत कर दिया। 2-3 पाठन और फौरी संपादन के बाद इस रूप में फाइनल किया। हम दुखी रहते हैं वाला हिस्सा बाद में जोड़ा। फिर हम लोगों ने आंदोलन में इस कविता का पोस्टर बनाया। यह छपी उनके देहांत के बाद 'स्वर्ग से विदाई' संकलन में।

अब इसी में कविता कॉपी-पेस्ट से फेसबुक के लिहाज से पोस्ट लंबी हो जाएगी, इसलिए कविता कमेंट बॉक्स में कॉपी-पेस्ट कर रहा हं, वैसे यह कविता ऑनलाइन उपलब्ध है।

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