यह राजा राजपथ का नाम कर्तव्य पथ रखकर
गरीब-गुरबा, रेड़ी-पटरी वालों को वहां से भगाकर
शासक वर्गों की करनी-कथनी के शाश्वत अंतर्विरोध के
ऐतिहासिक दोगलेपन को पुष्ट करता है
चाय वाले अतीत का शगूफा छोड़कर
लाखों के कई परिधान दिन में कई बार बदलता है
जब भी निकलता है सैर करने के लिए
शहर की सारी सड़कें बंद करवा देता है
सारे सरकारी उपक्रम अपने पसंदीदा धनपशुओं को देता है
औपनिवेशिक शासन की दलाली में उसकी शह पर
उपनिवेश विरोधी विचारधारा के रूप में उभरते
भारतीय राष्ट्रवाद को विखंडित करने वाले
अपने वैचारिक पूर्वजों के पद चिन्हों पर चलते हुए
भूमंडलीय साम्राज्यवाद की सेवा में देश की संप्रभुता और जमीर बेचता है।
जहां तक सवाल है पांच सितारा होटलों में बैठकर
जनवाद की कविता लिखने वाले पाखंडी कवियों की
तो ऐसे सारे-के-सारे कवि राजा के पालतू बन गए हैं
और अंधभक्ति में राजा के महिमामंडन के भजन गाते हैं
जहां तक राजाओं के आने-जाने का सवाल है
तो इसके पहले भी खुद को खुदा समझने वाले
बहुत से राजा आए और गए
यह भी जाएगा और राजाओं के आने-जाने का सिलसिला जारी रहेगा
जब तक आवाम को राजा का पद अनावश्यक नहीं लगने लगता
और बिना राजा के अपना राज-काज खुद संभाल नहीं लेता।
(ईमि: 15.09.2023)
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