गुरुर्देवो भव, गुरुकुल (ब्राह्मणवादी) शिक्षा परंपरा की रीति रही है, बौद्ध परंपरा में गुरु के विचारों को शिष्य द्वारा चुनौती देना आम बात थी, स्वयं बुद्ध के विचारों के विरुद्ध उनके शिष्य खड़े होते थे और शिष्य की तार्किक चुनौती के समक्ष बुद्ध अपने विचारों में तब्दीली भी करते थे। वैसे अरस्तू प्लेटो का आलोचक था और उसका यह कथन कि प्रिय हैं प्लेटो लेकिन उनसे भी प्रिय है सत्य अपने आप में एक क्रांतिकारी वक्तव्य है लेकिन उसका सत्य अपने गुरू प्लेटो के सत्य की तुलना में प्रतिगामी था, वह यथास्थितिवादी था और न केवल स्त्रीविरोधी था बल्कि गुलामी का भी कट्टर पैरोकार था। वह परिवर्तन को बुराई मानता था। अरस्तू के विचारों का विरोध करने का मतलब उसकी विद्वता को नकारना नहीं है। अपने समय का मुश्किल से कोई विषय रहा हो जिस पर उसने लिखा न हो। हमारी परंपरा में गुरू की तो बात ही छोड़िए किसी वरिष्ठ से तर्क करना भी बुरा माना जाता है। बचपन में मेरी छवि पूरे गांव में सबसे अच्छे बच्चे की थी, 14-15 साल का रहा होऊंगा, विद्वान समझे जाने वाले कुटुंब के रिश्ते में एक बाबाजी (दादा ) से किसी मुद्दे पर तगड़ी बहस हो गयी। आप बड़े हैं तो प्रणाम, लेकिन पते में कौन ठकुरई। यह खबर गांव में दावानल सी फैल गयी कि मैं फलां बाबा से सवाल जवाब कर रहा था और एक झटके में मेरी अच्छे बच्चे की छवि चकनाचूर हो गयी। मैं तो अपने ही नहीं सभी बच्चों को हर बात पर सवाल करना सिखाता हूं।
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