बिल्कुल सही कह रहे हैं, हमारे क्षेत्र में (शायद पूरे देश में), खेती कामशीनीकरण हो चुका है, हल से जुताई नहीं होती और बैलगैड़ी का प्रचलन बंद हो चुका है। गायें बछड़ा भी ब्याती हैं।लेकिन विकस के इस चरण में बैल का कोई उपयोग नहीं रहा। जब तक गाय उस पारी का दूध देती है, तभी तक उसकी देखभाल होती है। उसके बाद उसे किसानों पर कहर बरपाने के लिए छोड़ दिया जाता है। पहले पशुओं की बिक्री किसानों के पास नगदी की आमदनी का एक महत्वपूर्ण श्रोत होता था। लोग अनुपयोगी पशुओं को धर्म की सियासत के भय से बेच नहीं सकते: गोरक्षक भीड़ के डर से कोई उन्हें खरीद नहीं सकता। उनकी मजबूरी को उनका अपराध समझकर उन्हें आवारा कहकर लोग परसंतापी सुख का आनंद लेते हैं। जब कोई किसी दुष्ट व्यक्ति को कुत्ता कहता है तो मैं पूछता हूं उन्हें कैसे मालुम कि कुत्ते दुष्ट होते हैं?हमारा तो आवारा घोषित कुत्तों के साथ बहुत अच्छे अनुभव रहे हैं। पूरे जीवन में मां से एक ही बार मार खाया हूं, वह भी एक कुत्ती के चक्कर में। याद नहीं है कि कितनी उम्र रही होगी, लेकिन 5 साल से अधिक रही होगी क्योंकि पांचवे साल में मेरी मुंडन हो चुकी थी और मैं शायद कक्षा 1 या 2 में पढ़ता था। पता नहीं क्यों कुत्ते मुझे पसंद नहीं थे, हो सकता है, उनके बारे में प्रचलित सामजिक अवधारणा के चलते या फिर इस कारण कि उनकी तुलमना बुरे इंसानों से की जाती है! मेरे ताऊ जी दिल्ली से एक पिल्ली ले गए थे। काले रंग की सुंदर सी थी। बहुत स्मार्ट थी, हम लोग नदी में कंकड़ फेंकते तुरंत पानीमें कूद जाती और वहकंकड़ निकाल कर ले आती। मैं जितना ही उसका सटना नापसंद करता था उतना ही वह मुझसे दुलार दिखाती। एक दिन धूप में बैठे थे कि आकर पैर सहलाने चाटने लगी। खीझकर मैं उसे एक थप्पड़ दिया, मेरी मां पता नहीं कहां से अवतरित हुई और किसी बच्चे पर कभी हाथ न उठाने की छवि वाली मेरी मां ने वास मुझे एक थप्पड़ यह कहते हुए दिया कि निरीह जानवर तुम्हारा क्या बिगाड़ रहा है। तब से कुत्तों से मेरी चिढ़ खतम हो गयी। इस कहानी से यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि मां के थप्पड़ से सोच बदल गयी, थप्पड़ तो आवेश में चल गया, मरेी सोच बदली थप्पड़ के साथ के साथ के तर्क से। उसने तो मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं था।उसे मालुम नहीं रहा होगा कि कुत्ते मुझे नापसंद थे, (वैसे भी नापसंदगी का मेरे पास कोई स्पष्ट कारण नहीं था)और वह प्यार डताने की कोशिश कर रही हो। हो सकता है उसे मालुम भी रहा हो और उसने नापसंदगी का जवाब पसंदगी से देने की सोची हो। कुछ भी हो लेकिन उसे थप्पड़ मारने का कोी औचित्य नहीं था। मैं डंडा मास्टरों/अभिभावकों को नापसंद करता हूं। आप मार-पीट कर किसी बच्चे को विद्वान नहीं बना सकते, लतखोर जरूर बना देते हैंं। कमेंट में विषयांतर हो गया, क्षमा कुछ और भी अनुभव हैं, फिर कभी।
Friday, December 29, 2023
Wednesday, December 27, 2023
कैलीगुला
प्राचीन रोम में एक सम्राट था कैलीगुला
प्राचीन रोम में एक सम्राट था कैलीगुलाबशर्ते लोग उससे डरते रहें
लेकिन नफरत की इंतहां होने पर
लोग डर पार कर जाते हैं
लेकिन लगता है
इस सम्राट को लगता है
उसका डर नफरत नहीं
श्रद्धा को जन्म देता है।
श्रद्धा पैदा करता है।
कैलीगुलाअपने को शाश्वत खुदा कहता था
जब नफरत इंतहां पार कर गयी
उसके अंगरक्षकों ने ही उसे चौराहे पर कत्ल कर
उसकी खुदाई को धूल में मिला दिया।
Friday, December 22, 2023
कुश्ती छोड़ा है, मैदान नहीं
Tuesday, December 19, 2023
शिक्षा और ज्ञान 335 (आरक्षण)
कई दिन पहले, मंडल कमीसन और फलस्वरूप लागू आरक्षण को देश की अवनति का कारण बताने वाली एक मित्र की एक पोस्ट पर तब लिखाया एक कमेंट:
1990 के पहले भारत बहुत उन्नति कर रहा था, एकबैग पाताल में चला गया! आरक्षण, जातिवाद और जवाबी जातिवाद पर एक समावेशी विकल्प होना चाहिए। चुनावी जनतंत्र, संख्यातंत्र है। हर राजनैतिक दल अपने पक्ष में संख्याबल की लामबंदी के लिए तुष्टीकरण की राजनीति करता है। हर समाज में ऐतिहासिक रूप से कामगर (भारत के संदर्भ में शूद्र) ही बहुसंख्यक रहे हैं और हैं। शूद्र (पिछड़ी जातियां और दलित) श्रेणीबद्ध जातियों में बंटे है। पूंजीवाद की ही तरह जाति व्यवस्था में भी सबसे नीचे के पायदान वाले को छोड़कर हर किसी को अपने से नीचे देखने के लिए कोई-न-कोई मिल जाता है। पूंजीवाद में आधार आर्थिक है, जाति व्यवस्था में सामाजिक। इसीलिए जातीय भेदभाव कोकम करने के मकसद से बनाए गए आरक्षण के प्रावधान सामाजिक न्याय के प्रावधान कहलाते हैं।
शिक्षा पर एकाधिकार खत्म होने से 'ज्ञान' के आधार पर खत्म होते द्विज वर्चस्व को पुर्स्थापित करने के लिए मुसलमान के रूप में एक साझा खलनायक ढूंढ़कर, जातीय अंतर्विरोधों को ढकने के लिए संघ गिरोह धर्म के नाम पर लामबंदी करने के साथ जातीय तुष्टीकरण के लिए भी मोहन यादव और साय ढूंढ़ लाता है। जब तक सामाजिक चेतना के जनवादीकरण से संख्याबल जनबल में नहीं बदलता, किसी भी दल की सरकार आरक्षण को खत्म करने का खतरा नहीं उठा सकती, निजीकरण और उदारीकरण तथा नौकरियों में ठेकेदारी प्रथा को व्यापक बनाकर आरक्षण को अप्रांसंगिक भले बना दे। प्रतिभा को समुचित सम्मान देने के लिए जातिवाद के दानव और आरक्षण पर एक समावेशी विमर्श होनी चाहिए। प्रतिभा जन्मजात नहीं होती, आरक्षण का मकसद आरक्षण की जरूरत को खत्म करना होना चाहिए। ओबीसी आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की आर्थिक सीमा शायद आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों की आर्थिक सीमा के ही बराबर है। हमारा मानना है कि जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं हो सकती और क्रांति के विना जाति का विनाश नहीं हो सकता। हम सब को स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थबोध को तरजीह देकर आरक्षण और आरक्षण-विरोध की राजनीति से ऊपर उठकर जातिवाद के विनाश की दिशा में योगदान देकर सुखद जीवन जीना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से आरक्षण का मकसद जवाबी जातिवाद नहीं, जाति क विनाश है।
Monday, December 18, 2023
शिक्षा और ज्ञान 334 (मर्दवाद)
सामाजिक विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्तर और स्वरूप विकसित होता है। मर्दवादी समाज की सामाजिक चेतना पूरे समाज को प्रभावित करती है।मर्दवाद एक विचारधारा (मिथ्या चेतना) है और विचारधारा वर्चस्वशाली और अधीनस्थ (शोषक तथा शोषित) दोनों को प्रभावित करती है किसी लड़की को बेटा कहने वाला ही नहीं ऐसा साबाशी देने के लिए करता है, बल्कि वह लड़की भी उसे साबाशी ही समझती है। बाबू जी ही नहीं समझते थे कि माई को उनकी हर बात माननी चाहिए बल्कि माई भी उनकी आवाज सुनते ही अपना कर्तव्य समझ खाना छोड़कर भी दौड़ पड़ती थीं। मेरी बेटियों को कोई बेटा कह देता है तो अकड़कर जवाब देती हैं, "Excuse me, I don't take it as a complement". मैं कभी किसी बेटी को बेटा कहकर complement नहीं देता। किसी लड़के को बेटी कह दो तो सब हंसने लगते हैं। मैं तो 5 साल से कम था बड़े बाल के चलते अनजान लोग बेटी कह देते थे, एक पबार इतना गुस्सा आया कि मैंने प्रमाण के साथ प्रतिवाद किया कि मैं बेटी नहीं बेटा हूं। मेरी मुंडन 5वें साल में हुई थी। अब इतने छोटे के दिमाग में कहां से आता है कि बेटे की बजाय बेटी कहलाना बुरी बात होती है। सामाजिक चेतना का प्रभाव। लड़कियां शादी के बाद पति का सरनेम ले लेती हैं। स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के अग्रगामी अभियान के साथ स्थितियां बदल रही हैं। बहुत सी लड़कियां अपना सरनेम नहीं बदलतीं। कुछ स्त्री दावेदारी का आधा रास्ता तय करती हैं, अपना पुराना सरनेम छोड़े बिना पति का सरनेम भी लगा लेती हैं। कुछ स्त्री प्रधानन खुद प्रधानी करने लगी हैं धीरे धीरे प्रधानपति की प्रणाली समाप्त हो जाएगी। क्रमिक-मात्रात्मक विकास परिपक्व होकर क्रांतिकारी गुणात्मक विकास में तब्दील होता है। स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान के चलते आज कोई भी बाप सार्वजनिक रूप से नहीं कहता कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, एक बेटा पैदा करने के लिए 4-5 बेटियां भले ही पैदा कर ले। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है। विचारधाराके रूप में मर्दवाद के उन्मूलन के साथ यह विजय संपूर्ण होगी। जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत निश्चित है, मर्दवाद अपवाद नहीं है। जो भी लड़का मां-बाप कीतीसरी-चौथी-पांचवी संतान हो तो 99.99 फीसदी मामलों में उससे बड़ी सब बहनें होंगी। बाकी बाद में।
19.12.2021
Friday, December 15, 2023
हम तो बचपन से ही यूं ही कहते-सुनते रहे
Tuesday, December 12, 2023
शिक्षा और ज्ञान 333 (मैक्यावली)
मैक्यावली सझदार राजा (prudent prince) को सलाह देता है कि अपने पूर्व सहोगी रसूखदार लोगों को औकात में रखे और ऐसे वफादार लोगों को आगे बढ़ाए जिनके पास उसकी कृपा के अलावा कोई और संबल न हो।
शिक्षा और ज्ञान 332 (मैक्यावली)
मैक्यावली कुशल (समझदार) राजाओं (प्रिंसों) को सलाह के रूप में लिखी गयी 'प्रिंस' में लिखते हैं कि विजय से राज्य स्थापित करने के साथ प्रिंस को यह नहीं समझना चाहिए कि उसका काम खत्म हुआ है, बल्कि शुरू हुआ है। राज्य प्राप्त करना तो पहला पड़ाव ही है, यह रानीति का एक उद्देश्य है। अन्य दो उद्देश्य हैं सत्ता को बरकरार रखना और बढ़ाना। पहले उद्देश्य की प्राप्ति के बाद पहला काम है, सत्ता प्राप्त करने में जो सहायक रहे हैं उनके साथ क्या करना है। 2017 में एक पत्रिका के लिए, 'नव उदारवदी प्रिंस' शीर्षक से एक लंबा लेख लिखा था, जिस अंक के लिए लिखना था, वह डेड लाइन छूट गयी (समय पर पूरा नहीं कर सका। उसके बाद सोचाअगले अंक के लिए अपडेट कर दूंगा। तब से उस पर बैठ ही नहीं पाया ।
मास्टरों की बुरी आदत होती है (जनरलाइजेसन नहीं) क टेक्स्ट के बीच में फुटनोट चेंप देते हैं। तो नए प्रिंस को सबसे सबसे ज्यादा खतरा अपने करीबियों से होता है। सबसे पहले उनको दरकिनार कर देना चाहिए। उस जमाने में (मैक्यवली के अनुसार) दरकिनार करने के लिए धोखे से हत्या भी जायज तरीका था। जनतंत्र में समझदार प्रिंस इतने क्रूर नहीं होतेष उन्हें दरकिानर करने के बहुत से हाईटेक जनतांत्रिक तरीके हैं। क्रांति (विजय) मे ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बड़ा हिस्सा मांगते हैं। दरबार में फर्सी लगाते समय उन्हे लग सकता है कि यह भी तो मेरे जैसा ही है थोड़ा चीजें अलगहोतीं तो मेरी जगह वह होता और वह उसे फर्सी लगा रहा होता। सहायकों में दूसरी कैटेगरी है पांचवे कॉलम की यानि दुश्मन खेमे के सहायकों की। वे अपने को किंगमेकर समझ रहे होते हैं और उन्हें लगता है कि उन्हें सबसे बड़ा हिस्सा मिलना चाहिए। ऐसे लोगों को पूरी तरह नजरअंदाज करने की सलाह देता है, इन्हें कुछ दानदक्षिणा देकर 'खुश' कर देना चाहिए। दरबार में जहां भी जो भी जगह मिल जाए या नभी मिले, उन्हें उससे ही खुश होना पड़ेगा। प्रिंस की कृपा स्वीकार करने के अलावा के अलावा उनके पास कोई रास्ता ही नहीं होता। अपने पुराने राज्य के लोग उन्हें गद्दार समझते हैं और नए राज्य के लिए वे नए होते हैं।बाकी, बाद में। 2017 का लेख जल्दी ही अपडेट करने की कोशिश करूंगा।
Monday, December 11, 2023
शिक्षा और ज्ञान 331 (दो बांके)
स्कूल में किसी क्लास के कोर्स में भगवती चरण वर्माकी कहानी ' दो बांके' पढ़ा था और बांको का चरित्र आज भी दिमाग में सजीव है। लाइब्रेरी में कुछ विलंबित काम पूरा करने की कोशिश कर गहा हूं। मेज पर भगवती चरण वर्मा की कहानियों का एक संकलन दिख गया पलटनें के लिए उठाया और पहली पलट में दो बांके का पेज खुल गया और शुरू से अंत तक पूरी कहानी पढ़ गया, लगा पहली बार पढ़ रहा हूं। सभी रचनाएं समकालिक होती हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक हो जाती हैं, जितनी बार पढ़िे पहली बार लगता है। अच्छी कहानी शब्दों से परिघटनाओं के विजुअल्स बनाती है।
Saturday, December 2, 2023
किसान आंदोलन
ठंड बढ़ने के साथ किसानों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा है दिल्ली की सिंधुसीमा पर हरयाणा में लाखों किसान जमे हैं उनकी तादात बढ़ती जा रही है। गाजीपुर सीमा पर उप्र में भी हजारों किसान कमर कसकर जुटते जा रहे हैं। किसान जीतेगा तो देश जीतेगा और जीतेगा ही क्योंकि हारने पर मुल्क पर विश्वबैंक की वफादारी में मुल्क पर नवउदारवादी पूंजी की गुलामी का शिकंजा कस जाएगा और आजादी की भीषण लड़ाई छिड़ जाएगी और तब जोआजादी आएगी उसमें अगली किसी गुलामी की गुंजाइश नहीं रहेगी। लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि किसान जीतेगा क्योंकि इतिहास को इसकी जरूरत है। नवउदारवादी भूमंडलीय साम्राज्यवाद उदारवादी औपनिवेशिक साम्राज्यवाद से इस मायने में अलग है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन चुके हैं।
जय किसान, इंकलाब जिंदाबाद।Thursday, November 23, 2023
बेतरतीब 163 (क्रिकटोंमाद)
Pankaj Mohan बिल्कुल सही कह रहे हैं। क्रिकेट राष्ट्रोंमाद किस तरह सामाजिक चेतना का हिस्सा बन गया, हम अपने बचपन में कल्पना भी नहीं कर सकते थे। मैं आपको एक अनुभवजन्य वाकया बताता हूं। जेएनयू जैसी जगह की 70-80 के दौर की कभी की बात है। जेएनयू को रेखांकित करने का कारण है कि वहां भक्ति पर विवेक को तरजीह दी जाती थी। सतलज हॉस्टल के कॉमन रूम में, टेलीविजन पर इंडिया-पाकिस्तान का मैच देखा जा रहा था। जहीर अब्बास ने बेदी की गेंद पर एक बहुत खूबसूरत छक्का लगाया, मैंने ताली बजाकर तारीफ कर दी, ज्यादा तो नहीं 2-3 लोग ऐसा घूरे जैसे कि मैंने कोई निंदनीय सामाजिक अपराध कर दिया हो!!
Friday, November 10, 2023
बेतरतीब 162 (इलाहाबाद)
मैं आजादी के पहले दशक में आजमगढ़ जिले के एक दूर-दराज के पिछड़े गांव में पैदा हुआ जिसका अब आधुनिकीकरण हो गया है, गांव में चौराहा है तथा 2 एक्सप्रेस वे के लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हमारे छात्र जीवन में चौराहेबाजी के लिए 3 दिशाओं में किसी भी तरफ 6-8 किमी दूर जाना पड़ता था। निकटतम मिडिल स्कूल 7-8 किमी दूर था 6-8 की पढ़ाई की रोज की मनोरम सामूहिक यात्रा के अनुभव फिर कभी शेयर करूंगा। नजदीकी लोकल-पैसेंजर का रेलवे स्टेसन 7 मील दूर था। 12 साल की उम्र में मिडिस पास कर हाईस्कूल-इंटर की पढ़ाई नजदीकी शहर जौनपुर से किया। 1972 में बीएस्सी की पढ़ाई के लिए बीएचयू और इलाहाबाद के चुनाव का धर्मसंकट था। सापेक्षतः बनारस नजदीक था तथा यातायात के सीधे रास्ते पर। घर से निकला बनारस जाने के लिए, जौनपुर बस स्टेसन पर विचार बदल गया और इलाहाबाद की बस में बैठ गया। 4 साल में इलाहाबाद में कितना सीखा-भूला, इसका हिसाब फिर कभी। एबीवीपी के नेता के रूप में 'राष्ट्रवादी' छात्र राजनीति में प्रवेश किया किंतु पुस्तकों और विमर्श के माध्यम से जाते-जवाते मार्क्सवादी बन गया। 1976 में भूमिगत रहने की संभावनाएं तलाशने दिल्ली चला गया और इवि के सीनियर डीपी त्रिपाठी को खोजते जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो जेल में थे, एक अन्य इलाहाबादी सीनियर से मुलाकात हो गयी, रहने का आश्रय मिल गया और गणित के ट्यूसन से रोजी का इंतजाम हो गया। आपातकाल के बाद 1977 में वहां राजनीतिशास्त्र में प्रवेश ले लिया। नौकरी में मास्टरी के अलावा दूसरी प्रथमिकता नहीं थी, रंग-ढंग ठीक किए नहीं, फिर भी अंततोगत्वा दिल्ली विवि में मास्टरी मिल ही गयी और रिटायर होने तक चल भी गयी। फिलहाल नोएडा में रह हे हैं। इस तस्वीर में दिख रही झोपड़ी कैंपस के घर में बनवाया था, जिसके छूटने का बहुत कष्ट है।
10.11.2020
Thursday, November 9, 2023
मानवता को यदि मुकम्मल देखना है
मानवता को यदि मुकम्मल देखना है
Tuesday, October 31, 2023
दुनिया बदलती रहती है लगातार
दुनिया बदलती रहती है लगातार
दुनिया बदलती रहती है लगातारशाश्वत तो महज बदलाव ही है
अतीत का पुनरावलोकन ही किया जा सकता है
पुनर्निर्माण नहीं।
ईमि: 01.11.2023
Monday, October 30, 2023
बेतरतीब 161 (दिनकर जयंती के समारोह में शिरकत)
बेतरतीब 156
दिनकर
जयंती के समारोह में शिरकत
ईश मिश्र
राष्ट्रकवि रामधारी
दिनकर की जयंती के उलक्ष्य में उनके गांव, सिमरिया में 10 दिन चले दिनकर समारोह के
आयोजन के अंतिम दिन, 24 सितंबर 2023 के कार्यक्रम, “दिनकर और हमारा समय” पर
संगोष्ठी का निमंत्रण मेरे लिए सुखद अवसर की बात थी। निमंत्रण में संगोष्ठी के
वक्ताओं में जाने-माने साहित्यकार, दूरदर्शन के पूर्व निदेशक लीलाधर मांडलोई; लेखक
तथा दूरदर्शन कलकत्ता जोन के पूर्व अवर निदेशक सुधांशु रंजन तथा बनारस हिंदू
विश्वविद्यालय के हिंदी विभागके प्रोफेसरों, प्रो. रामाज्ञा शशिधर तथा प्रो. प्रभाकर
सिंह के नाम थे। संगोष्ठी की अध्यक्षता छात्र जीवन से ही परिवर्तमकामी आंदोलनों
में सक्रिय रहे मार्क्सवादी चिंतक डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा ने की।
किसी
भी रचना के साथ न्याय उसे उसके ऐतिहासिक संदर्भ में रखकर ही किया जा सकता है,
क्योंकि सभी रचनाएं समकालिक होती हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक बन जाती हैं। वे हर
युग में प्रसंगिक रहती हैं। मैं लंबी रेल यात्राओं में, रास्ते में पलटने के लिए,
कुछ पढ़े हुए अच्छे उपन्यास ले जाता था और पलटने की बजाय आदि से अंत तक ऐसे पढ़
जाता जैसे पहली बार पढ़ रहे हों। मुझे लगता है अच्छी रचनाएं जितनी बार पढ़ा जाए,
हर बार पहली बार लगता है। जानी हुई बातें फिर से जानने का मन होता है। दिकर की रश्मिरथी
और संस्कृति के चार अध्याय पढ़ते हुए ऐसा ही लगा। दिनकर एक जनतात्रिक
राष्ट्रवादी चिंतक/कवि/लेखक थे। उनका राष्ट्रवाद भारत के पहले प्रधानमंत्री,
जवाहरलाल नेहरू की ही तरह सामासिक संस्कृति का राष्ट्रवाद था, जिसे नेहरू जी ने संस्कृति
के चार अध्याय की भूमिका में रेखांकित भी किया है। उनकी पंक्तियां, “सिंहासन
खाली करो कि जनती आती है” 1974 के छात्र आंदोलन का मुख्य नारा बन गयी थीं। आज के
युद्धोंमादी समय में, कुरुक्षेत्र में युद्ध जनित रक्तपात और सर्वनाश का
मार्मिक विवरण, इसे एक युद्ध विरोधी ग्रंथ के रूप में प्रासंगिक बनाता है।
निमंत्रण मिलने के बाद कविताकोश से उनकी वे
कविताएं पढ़ने लगा जो बचपन में वीररस में पढ़ा करता था। सत्योत्तर युग के हताशा के
इस समय में, “जब मानव जोर लगाता है, पत्थर पानी हो जाता है” या “सिंहासन खाली करो,
जनता आती है” जैसी कविताएं प्रोत्साहन देती हैं और इतिहास के इस अंधे युग में
आशावाद की कुछ किरणें। संस्कृति के चार अध्याय लगभग चार दशक पहले पढ़ा था,
पलटने के लिए उठाया तो लगा पहली बार पढ़ रहा हूं, लेकिन समय की सीमाओं के चलते
पूरी किताब फिर से पढ़ने का मोह संवारना पड़ा, लेकिन विभिन्न संस्करणों की
प्रस्तावनाएं और नेहरू द्वारा लिखित भूमिका पढ़ने का मोह न संवार सका। नेहरू
भूमिका में भारत के सांस्कृतिक पुनर्मिर्माण मे सामासिक संस्कृति की भूमिका को
रेखांकित करते हुए इस ग्रंथ का महत्व समझाते हैं। इससे उनके उच्चकोटि के
साहित्यबोध और सांस्कृतिक संवेदना का परिचय मिलता है। इस भूमिका में उनकी कालजयी
रचना, भारत: एक खोज की भी झलक मिलती है। दिनकर जी देश में वैज्ञानिक,
सांस्कृतिक चेतना विकसित करने की नेहरू की परियोजना के प्रमुख कर्णधारों में थे।
बेगूसराय
जिले के उनके गांव सिमरिया में हर वर्ष उनकी जयंती के उपलक्ष्य में दिनकर समारोह
मनाया जाना उल्लेखनीय परिघटना है। बांग्ला, मराठी और शायद दक्षिण भारत के कई भाषाई
क्षेत्रों में अपने बड़े साहित्यकारों/महापुरुषों के नाम पर उत्सव मनाने का रिवाज
है। लेकिन हिंदी क्षेत्र में ऐसे नियमित उत्सवों का शायद कोई रिवाज नहीं है। उनके
पैतृक गांव में, दिनकर समारोह के नियमित वार्षिक आयोजन का रिवाज अपवाद है। सिमरिया
के दृष्टांत का अनुसरण और अनुकरण कर अन्य बड़े साहित्यकारों की जयंती पर उनके
पैतृक गांवों में समारोह का रिवाज शुरू करना चाहिए। इससे क्षेत्रीय लोगों में
साहित्यबोध की चेतना का प्रसार होगा और सामाजिक बदलाव की दिशा देने के औजार के रूप
में साहित्य और समाज में एक समन्वय
स्थापित होगा।
कभी
भारत के लेनिनग्राद की उपमा अर्जित कर चुके बेगूसराय की यात्रा की चाहत लंबे समय
से विलंबित थी और इस निमंत्रण ने चाहत पूरी होने का अवसर प्रदान कर दिया। लेकिन
यहां आना तब हुआ जब, बेगूसराय के साथी,
डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा के शब्दों में, “लेनिनग्राद सेंट पीटर्सबर्ग में तब्दील हो
गया”। बेगूसराय पर उनकी यह टिप्पणी, भारत के और कुछ हद तक दुनिया के सभी देशों के
कम्युनिस्ट आंदोलनों पर सटीक बैठती है।
23
सितंबर को शाम 4.20 पर नई दिल्ली से डिब्रूगढ़ राझधानी से नई दिल्ली से बरौनी का
टिकट था। 24 सितंबर, 2023 की भोर में
बरौनी स्टेसन पहुंचा, जहां दिनकर समारोह के आयोजन समिति के राजेश जी अपने
साथियों के साथ पहले से प्रतीक्षा कर रहे थे। बरौनी स्टेसन से लगभग 5 किमी दूर, 22
टोलों के विशालकाय गांव, बीहट में ज़ीरो माइल चौराहा है, जिसे ज़ीरो प्वाइंट भी
कहते हैं। चौराहे पर मंडप में दिनकर की आदमकद मूर्ति है। यहां से एक सड़क गौहाटी
जाती है, एक पटना और एक मुजफ्फरपुर। चौराहे से थोड़ी ही दूर देवी दरबार होटल में
हमारे रुकने की व्यवस्था थी। बगल के कमरे में ठहरे, हिंदी के साहित्यकारों, काशी
हिदू विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर रामाज्ञा शशिधर और प्रोफेसर
प्रभाकर सिंह से मिलना, सुखद, ज्ञानप्रद अनुभव था। प्रोफेसर शशिधर, दिनकर के गांव
सिमरिया के निवासी हैं और प्रोफेसर प्रभाकर इलाहाबाद के। शशिधर ने जेएनयू से पढ़ाई
की है तथा प्रभाकर ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। मैं 1972-76 के दौरान इलाहाबाद
विश्व विद्यालय में छात्र था और उसके बाद जेएनयू। दोनों के साथ क्रमशः जेएनयू और
इलाहाबाद विश्व विद्यालय के अनुभवों की साझेदारी तथा साहित्य और समाज की चर्चाएं
रोचक और सूचनाप्रद रहीं। दोनों ने ही इस बात पर मायूसी जाहिर की कि विश्वविद्यालयों
के मौजूदा दमघोटू माहौल के चलते विश्वविद्यालय परिसरों में किसी प्रासंगिक और
सार्थक साहित्यिक/सांस्कृतिक कार्क्रम का आयोजन नामुमकिन सा हो गया है। मैंने यह
कहकर शांत्वना दी कि यही चिंताजनक माहौल देश के सभी विश्वविद्यालयों का है। जनता
के वैचारिक संसाधन, शिक्षा को पंगु बना देना समाज को तबाह करने की घातक रणनीति है।
लेकिन हर निशा एक भोर का ऐलान है, लेकिन भोर के उजाले के पहले निशा के अंधकार की
अवधि की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
साथी
डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा की अनुशंसा पर जब दिनकर समारोह आयोजन समिति के श्री राजेश कुमार का समारोह में
भागीदारी के निमत्रण की स्वीकृति के लिए फोन आया तो बेगूसराय की बहुप्रतीक्षित
यात्रा के विचार से मैं गद्गद हो गया। डॉ. सिन्हा बेगूसराय की यात्रा की मेरी
इच्छा से वाकिफ थे। 2018 में मार्क्स की द्विशताब्दी पर आद्री (एसियन डेवेलपमेंट
रिसर्च इंस्टीट्यट) द्वारा आयोजित सेमिनार में भाग लेने पटना गया था तो संस्थान के
डायरेक्टर सैबाल गुप्ता (अब दिवंगत) और जेनयू के साथी पत्रकार प्रणव कुमार चौधरी
से भी मैं बेगूसराय जाने की इच्छा व्यक्त कर चुका था। सैबाल के पिताजी और प्रणव के
पिताजी की बेगू सराय के लेनिनग्राद बनने में महत्वपूर्ण भूमिका थी। दिनकर समारोह
में भागीदारी के लिए सिमरिया (बेगूसराय) क यात्रा का अवसर प्रदान करने के लिए डॉ.
सिन्हा और दिनकर समारोह के आयोजकों, खासकर राजेश कुमार का आभार न प्रकट करना
कृचघ्नता होगी।
लेनिनग्रादों
के सेंट पीटर्सबर्गों में तब्दीली को पलटने के लिए मौजूदा हालात में मार्क्सवाद के
पुनर्पाठ और मौजूदा संदर्भ में नई व्याख्या की जरूरत है। बीसवीं शताब्दी के
शुरुआती सालों में लेनिन ने लिखा था कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद का नवीनतम चरण है।
भूमंडलीकरण के बाद भी बदले स्वरूप में उदारवादी पूंजी का साम्राज्यवादी चरण जारी
है। अब वह नवउदारवादी रूप ले चुका है। साम्राज्यवादी पूंजी के नवउदारवादी चरण मे
पूंजी की समुचित मार्क्सवादी समीक्षा के साथ एक नए इंटरनेसनल की आवश्यकता है,
जिसकी दिशा-दशा दुनिया की जनवादी ताकतों और मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों के बीच
गंभीर विचार-विमर्श का विषय है। पहले इंटरनेसनल की प्रस्तावना लिखने की जिम्मेदारी
मार्क्स ने जरूर लिया, लेकिन संगठन में मार्क्सवादियों की संख्या कम ही थी। नए
इंटरनेसनल के लिए मार्क्सवाद के पुनर्पाठ
और राष्ट्रीय विशिष्टताओं में उसे अनूदित करने की जरूरत है। लेकिन इस लेनिनग्राद
के पीटर्सबर्ग बन जाने के बाद भी क्रांतिकारी इतिहास की विरासत की अनुगूंज खत्म
नहीं हुई। आज भी किसी-न-किसी रूप में सुनाई देती रहती है। क्रांतिकारी उफानो कि
विरासतें खत्म नहीं होती, दब जाती हैं अवसर आने पर फिर से अंकुरित होती हैं जिसकी
आवाज नारा बनेने के लिए अगले उफान का इंतजार करती है। सेंट पीटर्सबर्ग बन चुके,
भारत के लेनिनग्राद की आत्मा रहे बीहट गांव की माटी में क्रांतिकारी आंदोलन के बीज
दबे पड़े हैं, जिससे 2016 में जेएनयू के ऐतिहासिक आंदोलन के माध्यम से आज के समय
के भारत के छात्र आंदोलन को दिशा देने वाले, जेनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष डॉ. कन्हैया
कुमार जैसे पौधे उगते रहेंगे। बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन के एक प्रमुख कर्णधार
और बेगूसराय से सांसद रहे चंद्रशेखर सिंह भी बीहट के ही थे।
ऐतिहासिक
भोतिकवादी (मार्क्सवादी) समझ के अनुसार आमूल-चूल परिवर्तन या क्रांति के लिए दो
कारक होते हैं – व्यक्तिपरक या व्यक्तिनिष्ठ सब्जेक्टिव फैक्टर) और व्स्तुपरक या
वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव फैक्टर)। ऑब्जेक्टिव फैक्टर है, व्यवस्था (पूंजीवाद) के
अंतर्विरोधों का परिपक्व होना, जिसकी अभिव्यक्ति पूंजीवाद के आर्थिक संकट के रूप
में होती है। सब्जेक्टिव फैक्टर है, पूंजीवाद के संकट के समय में, वर्गचेतना से
लैश पूंजीवादी वर्ग से सत्ता अपने हाथ में लेने को तैयार, वर्गचेतना से लैश संगठित
कामगर वर्ग की मौजूदगी। जिसके लिए आंदोलनों और क्रांतिकारी विमर्शों के माध्यम से
सामाजिक चेतना के जनवादीकरण, यानि वर्गचेतना के प्रचार-प्रसार के अनवरत प्रयासों
की जरूरत है। भारत में सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की पूर्व शर्त है, मर्दवाद, जातिवाद,
सांप्रदायिकता और क्षेत्रवाद की मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति। इन मिथ्या चेतनाओं से
मुक्ति अपने आप में एक अलग अनवरत बौद्धिक अभियान का मुद्दा है। बौद्धिक संघर्ष
लंबा चलेगा।
पूंजीवाद
के आर्थिक संकट कई बार दिखे। 1930 के दशक की महामंदी के रूप में आए आर्थिक संकट से
कई विद्वानों को पूंजीवाद धराशाई होने के कगार पर लगने लगा था। मार्क्सवादी चिंतक
क्रिस्टोफर कॉडवेल की कालजयी रचना मरणासन्न संस्कृति के अध्ययन और पुनर्अध्ययन
(स्टडीज एंड फर्दर स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर) इसी सोच की परिचायक है। लेकिन
पूंजीवाद को गहन संकट से निकलने के संकटमोचक समाधान निकालने में महारत हासिल है।
उस संकट से निकलने के लिए एडम स्मिथ के उत्पादन साधनों पर निजी स्वामित्व की अर्थव्यवस्था
और अहस्तक्षेपीय राज्य की अवधारणा को तिलांजलि
देकर इसने केंस के राजनैतिक अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर राज्य नियंत्रित
अर्थव्यवस्था और हस्तक्षेपीय, कल्याणकारी राज्य की अवधारणा विकसित की। इसमें सब्जेक्टिव
फैक्टर यानि मजदूर आंदोलन की सापेक्ष मौजूदगी के दबाव की भूमिका को भी नहीं नकारा
जा सकता। पूंजीवाद के आवर्ती संकटों के विश्लेषण की यहां न तो गुंजाइश है न ही
जरूरत, नवउदारवादी पूंजी के जारी मौजूदा संकट का समाधान पूंजीवादी ढांचे में
दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। कहने का मतलब की पूंजीवाद आर्थिक के साथ सिद्धांत के
संकट के दौर से भी गुजर रहा है। पूंजीवाद की वैकल्पिक व्यवस्था, समाजवाद भी
राजनैतिक के साथ सिद्धांत के संकट से भी गुजर रही है। ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव
फैक्टरों का कब संगम होगा यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन होगा ही, द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत अवश्यंभावी है, पूंजीवाद
अपवाद नहीं है। इसके बाद की वैकल्पिक व्यवस्था की संरचना भविष्य की पीढ़ियां तय
करेंगी।
समकालीन नवउदारवादी पूंजी का
चरित्र स्पष्टतः भूमंडलीय है। यह अब न तो
श्रोत के मामले में राष्ट्र/क्षेत्र केंद्रित (geocentric) है, न निवेश
के मामले में। वैसे तो औपनिवेशिक विस्तार के संदर्भ में पूंजी का चरित्र, तिजारती
पूंजीवाद के रूप में पूंजीवाद के उदय के समय से ही अंतर्राष्ट्रीय रहा है। लेकिन
तकनीकी प्रगति और विश्व राजनीति के गतिविज्ञान के बदलते नियमों के चलते इसका साम्राज्यवादी
चरित्र भिन्न आयाम ले चुका है। साम्रज्यवादी वर्चस्व के लिए अब किसी लॉर्ड क्लाइव
की जरूरत नहीं है, सिराज्जुदौला भी मीर जाफर बन गए हैं। इसने संकटों की आपदा में
अवसर की संभावना तलाशने में नई महारत हासिल कर ली है। सामंती राज्य के विकल्प के
रूप में पूंजीवादी राज्य की वैधता के लिए धार्मिक कट्टरपंथ से लड़ने की जरूरत थी,
क्योंकि सामंती राज्य की सत्ता का श्रोत भगवान था और विचारधारा धर्म। पूंजीवादी
राष्ट्र-राज्य में सत्ता की वैधता का स्रोत जनता है और इसकी विचारधारा के रूप में
राष्ट्रवाद का विकास हुआ। नव उदारवादी पूंजीवाद ने धार्मिक/नस्लवादी कट्टरपंथ से
लड़ने की बजाय उसे अपना हमराज और हमराही बना लिया है। चूंकि पूंजीवादी शोषण-दमन
भूमंडलीय है, इसलिए सभी देशों में अपनी-अपनी क्षेत्रीय/राष्ट्रीय विशिष्टताओं के
साथ प्रतिरोध भी भूमंडलीय ही होना चाहिए। और इसके लिए जनवादी प्रतिरोध के नए
इंटरनेसनल की स्थापना की जरूरत है।
बेगूसराय,
खासकर बीहट की सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे, प्रो. शशिधर ने बताया कि 1950-80
के दशकों में बीहट, भारत के लेनिनग्राद के नाम से जाने जाने वाले बेगूसराय के
क्रांतिकारी सांस्कृतिक, राजनैतिक और ट्रेडयूनियन गतिविधियों का केंद्र होता था।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन के निर्माण में प्रमुख
भूमिका निभाने वाले चंद्रशेखर सिंह और जेएनयू आंदोलन के जरिए भारत में क्रांतिकारी
छात्र आंदोलन का पर्याय बने डॉ. कन्हैया कुमार इसी गांव के हैं। इस गांव ने बिहार
के कम्युनिस्ट राजनीति के और भी कई कद्दावर नेता तथा कार्यकर्ता दिए हैं। डॉ.
भगवान प्रसाद सिन्हा ने बताया कि कम उम्र में चंद्रशेखर का निधन हो गया था। 1960
के दशक में किसी आंदोलन में राज्य द्वारा आंदोलनकारियों के बर्बर दमन में कर्पूरी
ठाकुर, रामानंद तिवारी और चंद्रशेखर समेत आंदोलनकारी नेताओं की जमकर पिटाई हुई थी।
कॉ. चंद्रशेखर के सिर पर काफी चोट लगी थी जो कालांतर में प्राणघातक साबित हुई।
दिनकर
का गांव यहां से लगभग 5 किमी दूर है। पास में ही बरौनी रिफाइनरी का प्लांट है और
चौराहे के इर्द-गिर्द अन्य छोटे उद्योग। थोड़ी दूर पर घने पेड़ों के जंगल की
पृष्ठभूमि में एक विशाल कावर झील है, जिसे स्थानीय लोग कावर ताल कहते हैं। लोगों
ने बताया कि इस झील के परिष्कार में ट्राई के पूर्व निदेशक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
के हमारे सहपाठी रामसेवक शर्मा का उल्लेखनीय योगदान है। उन्हें यहां से गए चार दशक
से ज्यादा हो गये लेकिन स्थानीय लोग उन्हें अब भी प्यार और सम्मान से याद करते
हैं। वे 1980 के दशक के पूर्वार्ध में यहां के जिलाधीश थे, उन्होंने बेगूसराय में दिनकर भवन का
निर्माण करवाया और लोगों दिनकर समारोह की बुनियाद रखने में भी उनकी महत्वपूर्ण
भूमिका थी।
फोन
पर बातचीत में बेगू सराय की यात्रा की बात पर रामसेवक शर्मा ने यहां की अपनी सुखद
समृतियों में खोकर दिनकर भवन बनवाने में अपनी पहल की बात तो बताया था, लेकिन वहां
के लोग उन्हें वहां उनके सामाजिक सुधार के लिए अतिरिक्त सम्मान से याद करते हैं।
उस क्षेत्र में विधवा विवाह की प्रथा शुरू करवाने और उसे लगभग संस्थागत रूप देने
में उनकी निर्णायक भूमिका थी। लोगों में उनकी लोकप्रियता से कुछ क्षेत्रीय नेताओं
को, अपच होने लगी और जल्दी ही उनका स्थांतरण हो गया। किसी ने साफ तो नहीं कहा,
लेकिन लोगों की बातों से अनुमान हुई कि उनके असमय स्थांतरण में सीपीआई छोड़कर
कांग्रेस और फिर भाजपा की राजनीति करने वाले स्थानीय राजनेता भोला सिंह का हाथ था।
वे वहां से सांसद थे। वहां के लोगों की बातों से लगा कि रामसेवक और बेगूसराय के
लोगों ने ‘अभी तो दिल भरा नहीं’ के अंदाज में एक दूसरे को अलविदा कहा था। लोगों से
रामसेवक की प्रशंसा सुनकर और उनकी लोकप्रियता देखकर लगा कि संवैधानिक कर्तव्यबोध
से लैश, कर्तव्यनिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी यदि चाहें तो प्रशासनिक सुधार के साथ-साथ
सामाजिक सुधार में भी योगदान कर सकते हैं। संविधान निर्माताओं ने समाज में
वैज्ञानिक चेतना के संचार में भी राज्य की सकारात्मक भूमिका की परिकल्पना की थी।
जब वे पूर्णिया के जिलाधीश थे तो उन्होंने वहां फणीश्वरनाथ रेणु की याद में रेणु भवन
का निर्माण करवाया था और उनकी स्मृति में समारोह शुरू करवाया था। पता करना पड़ेगा
कि कि रेणु समारोह की निरंतरता बनी हुई है कि नहीं! क्षमा कीजिएगा कि दिनकर समारोह
में शिरकत के संस्मरण में एक नौकरशाह मित्र का महिमामंडन करने लगा लेकिन इस
महिमामंडन में मेरी भूमिका सूत्रधार की ही है, कथ्य लोगों का है। वैसे भी
महिमामंडन के नौकरशाह पात्र अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं।
11
बजे के करीब बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन के पुरोधा और बेगूसराय के पूर्व सासद
शत्रुघ्न सिंह और डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में एक बडा हुजूम जुलस के
रूप में होटल पहुंचा। डॉ. सिन्हा ने दूरदर्शन के पूर्व निदेशक सुधांशु रंजन से
मिलवाया, जिनसे कम समय में ही बौद्धिक घनिष्ठता हो गयी। नेसनल बुकट्रस्ट से छपी जय
प्रकाश नारायण पर उनकी किताब पर कुछ रचनात्मक चर्चा हुई। जय प्रकाश नारायण के
राजनैतिक जीवन के कुछ नए पहलुओं की जानकारी मिली। हाल ही में दिनकर पर भी उनकी
किताब आई है।
होटल
से जुलूस की शक्ल में चलकर हम ज़ीरो मील चौराहे तक गये। वहां दिनकर मंडप में उनकी मूर्ति पर माल्यार्पण कर, कार-मोटरसाइकिलों
के जुलूस में वहां से 5 किमी दूर,
“सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”
की घोषणा करने वाले,
कालजयी कवि-विचारक, रामधारी सिंह दिनकर के पैतृक गांव, सिमरिया के लिए चल पड़े।
भूमंडलीय पूंजी के दौर की कांक्रीटीकरण प्रवृत्ति के बावजूद रास्ते में हरियाली और
प्राकृतिक सौंदर्य की काफी झलकें मिलीं। गांव में पहुंचने पर गांव के बाहर ही
सैकड़ों लोग स्वागत के लिए खड़े दिखे। यहां के लोगों में साहित्यिक उत्सवधर्मिता;
उत्साह और साहित्यिक चेतना देखकर, मन भाव विभोर हो गया। मेरे लिए दिनकर की कविताएं
और भारत की सामासिक संस्कृति को रेखांकित करती उनकी कालजयी रचना, संस्कृति
केचार अध्याय सामाजिक अवसाद की मनोदशा में प्रेरणा और नई ऊर्जा का श्रोत रही
है।
समारोह
में क्षेत्र के लोगों की भागीदारी और अतीत के अपने बौद्धिक नायक के सम्मान का
उत्साह उल्लेखनीय था। जैसे बाकी गांवों में घरों की दीवारों पर पेप्सी आदि उपभोक्ता
उत्पादों के विज्ञापन दिखते हैं वैसे ही सिमरिया के घरों की दीवारो पर दिनकर की
कविताओं की पंक्तियां लिखी हैं। गांव में दिनकर स्कूल, दिनकर पुस्तकालय और दिनकर
सभागार का जीवंत माहौल तथा सांस्कृतिक एवं साहित्यिक रूप से जागरूक उत्साही गांव के
लोगों को देखकर, गांव के उच्च कोटि के शैक्षणिक-सांस्कृतिक परिवेश का परिचय मिलता
है। इस परिसर के पास ही दिनकर विद्यालय भी है। विद्यालय-पुस्कालय-सभागार परिसर में
जगह-जगह दिनकर की जीवंत मूर्तियां हैं। गांव से लगता है पलायन बहुत कम हुआ है,
परिवारों की वृद्धि के साथ घरों के आहाते छोटे होते गए हैं, गलियां सकरी और बसावट
घनी।
दिनकर
सभागार परिसर के प्रवेश द्वार पर बनी दिनकर की जीवंत मूर्ति पर माल्यार्मण के बाद
हम दिनकर के पैतृक घर गए। वहां कमल वत्स एवं कुछ अन्य फेसबुक मित्रों से जीवंत,
सुखद मुलाकात हुई। गांव में अन्य घरों की तुलना में दिनकर के घर का आहाता (दुआर)
काफी खुला-खुला है। आहाते के एक किनारे सुसज्जित मंडप में दिनकर की इतनी जीवंत
मूर्ति है कि माल्यार्पण करते हुए मन-ही-मन मूर्तिकार को साधुवाद देने का लोभ न
संवार सका। मूर्ति पर माल्यार्पण के बाद उनके अध्ययन कक्ष का दर्शन किया गया। वहां
संग्रहित उनकी स्मृतियां उनकी जीवन शैली की सहज-सरलता का बोध कराती लगीं। साधारण
सज्जा वाली बैठक में जलपान करते हुए इस गांव के एक किसान परिवार से निकलकर
राष्ट्रकवि बनने तक की दिनकर की यात्रा और संघर्षों की कल्पना में खो गया था। वहां
एक रजिस्टर था जिस पर समारोह में शामिल होने आए आगंतुकों ने अपने अपने कमेंट लिखे।
पता चला कि हर सालाना समारोह में शिरकत करने आए विद्वानों और अतिथियों के कमेंट संरक्षित
रखे जाते हैं।
पहले
के आयोजनों में यहां बड़े-बड़े विद्वान और साहित्यकार आ चुके हैं। इस बार हिंदी के
जाने-माने कवि-लेखक और दूरदर्शन के पूर्व निदेशक, लीलाधर मंडलोई आने वाले थे,
लेकिन आकस्मिक स्वास्थ्य कारणों से नहीं आ सके। दूरदर्शन के कलकत्ता मंडल के पूर्व अपर
महानिदेशक सुधाशु रंजन की उपस्थिति ने काफी हद तक उनकी कमी की भरपाई की। हाल ही
में दिनकर पर उनकी किताब आई है। दिनकर के जीवन और कविताओं की पासंगिकता पर अपने
सारगर्भित उद्बोधन में उन्होंने सिमरिया को संदर्भविंदु बनाकर दिनकर पर अपनी अगली
किताब की योजना की घोषणा की।
प्रो.
रामाज्ञा शशिधर हमारे समय के एक उदीयमान साहित्यकार है। वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
में हिंदी विभाग के एक लोकप्रिय शिक्षक हैं।
दिनकर की तरह शशिधर भी इस गांव के एक किसान परिवार से निकलकर अपनी लगन;
अध्ययन और चिंतन-मनन के परिणामस्वरूप साहित्य जगत की ऊंचाइयां नापने में लगे हैं।
निजी बातचीत में उन्होंने दिनकर की तर्ज पर नाम के साथ शशिधर जोड़ने की बात बतायी।
एक सधे हुए आलोचक की तरह दिनकर की कविताओं की सार्थकता पर अपने अभिभाषण से
उन्होंने मंच पर बैठे हम जैसों और स्कूली छात्रों समेत हजारों श्रोताओं को
मंत्रमुग्ध सा कर दिया था। उन्हीं के विभाग के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह कहां पीछे
रहने वाले थे। दिनकर की कविताओं में सामाजिक बदलाव के तत्वों की पहचान के अलावा
उन्होंने दिनकर की कालजयी कृति, संस्कृति के चार अध्याय की आज के समय में प्रासंगिकता
पर भी जोर दिया। प्रभाकर जी हिदी साहिय के इतिहास के विद्वान है तथा होनहार आलोचक
हैं। ‘देखन में छोटन लगैं, घाव करत गंभीर’ उक्ति को चरितार्थ करते हुए मारक
छणिकाएं लिखते हैं। संगोष्ठी से लौटकर होटल में शशिधरजी ने अपनी कुछ भावभरी
कविताएं सुनाया और प्रभाकरजी ने कई अर्थपूर्ण क्षणिकाएं।
संगोष्ठी
की शुरुआत गांव की ही दो प्रतिभाशाली, सुर-ताल की धनी छात्राओं के गायन से हुई तथा
संगोष्ठी में आए गणमान्य व्यक्तियों द्वारा शाल और दिनकर की मूर्ति एवं मूमेंटो की
भेट से अतिथियों का स्वागत किया गया। मैं तो इस बात से कृतार्थ महसूस कर रहा था कि
मेरा स्वागत बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन के पुरोधा, पूर्व सांसद शत्रुघ्न सिंह ने
किया। संभव है वे 2024 के चुनाव में बेगूसराय से इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार बनें।
मेरी शुभकामनाएं।
1980 में मैंने संस्कृति के
चार अध्याय पढ़ा था, इस कार्यक्रम का निमंत्रण मिलने पर फिर से पलटा और लगा कि आज
के भारत में वह तब के भारत से अधिक प्रासंगिक है। आज जब अधोगामी ताकतों की आक्रामक
मुखरता राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से समाज और देश के ताने-बाने को
छिन्न-भिन्न कर रही हैं, तब 1950 के दशक में इसके लिखे जाने के समय की तुलना में
यदि ज्यादा नहीं तो भारत की ऐतिहासिक सामासिक संस्कृति को रेखांकित करने की उतनी
ही जरूरत है। तीसरे संस्करण की भूमिका में दिनकरजी अपनी इस कृति को भारतीय
सांस्कृतिक एकता के सैनिक की उपमा देते हैं, ऐसा सैनिक जो तमाम विरोधों के बावजूद
अपना काम करता रहेगा। वे लिखते हैं कि पंडित और विशेषज्ञ भले ही ऐसी बातों से बिदक
जाएं लेकिन जनसाधारण सांस्कृतिक एकता की बातें सुनना चाहता है। पता नहीं, आज के
धर्मोंमादी समय में दिनकर की उपरोक्त उक्ति कितनी सही है! दिनकर भारतीय संस्कृति के इतिहास को चार
क्रांतियों का इतिहास मानते हैं। पहली क्रांति आर्यों का आगमन और अनार्य
संस्कृतियों से मिलन से हुई जिसके आधे उपकरण आर्यों ने उपलब्ध कराए और आधे आर्येतर
जातियों ने। दूसरी क्रांति उपनिषदीय संस्कृति के विरुद्ध महावीर और बुद्ध की बौद्धिक
क्रांति थी, जिसने भारतीय समाज और संस्कृति की बहुत सेवा की लेकिन बाद में “इनके
सरोवर में शैवाल उगकर गंदगी फैलाए”। तीसरी क्रांति इस्लाम के साथ मेल-मिलाप से
हुई। चौथी सांस्कृतिक क्रांति औपनिवेशिक शासन के दौरान यूरोपीय मूल्यों के साथ मेल
मिलाप की है। हिंदू-मुसलमानों में भिन्नता के बावजूद वे सांस्कृतिक एकता के सूत्र
में बंधे हैं। सामासिकता समझाने का काम साहित्य संस्कृति का है, राजनीति का
नहीं।
संस्कृति के चार अध्याय की प्रस्तावना भारत के पहले
और अभी तक के एकमात्र युगद्रष्टा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, जो उनकी
साहित्यिक संवेदना का परिचायक है। भारतीय संस्कृति की ऐतिहासिक सामासिकता को
रेखांकित करती उनकी प्रस्तावना फ्रांसीसी दार्शनिक, ज्यां पॉल सार्त्र द्वारा
लिखी गयी अल्जीरियाई क्रांतिकारी बुद्धिजीवी, फ्रांज़ फेनन की पुस्तक “धरती के
अभिशप्त (Wretched of the Earth)” की
प्रस्तावना की याद दिलाती है। संस्कृति के चार अध्याय की मूलभूत प्रस्थापनाओं और
नेहरू की भारत एक खोज की प्रस्थापनों में काफी साझे सरोकार दिखते
हैं। दोनों ही रचनाएं भारतीय संस्कृति की ऐतिहासिक सामासिकता को रेखांकित करती
हैं. जिसमें आज सांप्रदायिक-फासीवादी उफान ने दरारें पैदा कर दी हैं, जिसे भरना
हमारी और भविष्य की पीढ़ियों का दायित्व है।
सभी रचनाएं समकालिक होती
हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक हो जाती हैं, उन्हें जितनी बार पढ़ा जाए, हर बार पहली
बार लगता है। मैंने गोर्की का उपन्यास मदर पहली बार 1976 में पढ़ा था, 2016
में कोई किताब खोजते समय निगाह पड़ गयी, पलटने के लिए उठा लिया और आदि से अंत तक
पढ़ गया तथा उस समय चल रहे जेएनयू आंदोलन पर एक लेख की शुरुआत उसके ही एक उद्धरण
से की। गोर्की की ही तरह हिंदी साहित्य के गगन के दिनकर, रामधारी सिंह दिनकर की
समकालिक सरोकारों से लिखी रचनाएं भी सर्वकालिक हैं। मुझे जब भी कोई काम बहुत
मुश्किल लगता है तो भगत सिंह और दिनकर से मुश्किल को आसान करने की ऊर्जा, प्रोत्साहन और प्रेरणा
मिलती है। भगत सिंह ने कहा था, “क्रांतिकारी मजलूमों/उत्पीड़ितों के लिए लड़े
क्योंकि उन्हें लड़ना ही था” (Revolutionaries
fought for the oppressed, because they had to)।
दिनकर की कालजयी रचना रश्मिरथी की एक पंक्ति है, “जब मानव जोर लगाता है, पत्थर पानी हो जाता है”।
मैं कभी साहित्य का औपचारिक छात्र नहीं रहा और सहजबोध से दिनकर की कविताओं की
सर्वकालिक, खास कर आज के फासीवादी समय में प्रासंगिकता पर अपनी समझ साझा किया।
उनकी कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, मार्क्स की वर्ग और वर्गचेतना
की याद दिलाती है कि मजदूर तब तक एक भीड़ ही रहता है, जब तक वह वर्गचेतना से लैश
होकर अपने को वर्गीय हितों के आधार पर संगठित नहीं करता। जनता जब तक अपने अधिकारों
और सामर्थ्य के प्रति जागृत नहीं होती तभी तक हांकी जा सकती है, जागृत होने के बाद
अपने लिए सिंहासन खाली कराती है। एक आशावादी मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते
जनता के जल्द जागृत होने के प्रति आशावान हूं। मैंने अपना संबोधन, संगोष्ठी के
विषय, “दिनकर और आज का समय” पर ही केंद्रित रखा। तथा संस्कृति के चार
अध्याय की सांस्कृतिक सामासिकता को रेखांकित करते हुए उम्मीद की कि सांस्कृतिक
विखंडन का यह काला दौर जल्द खत्म होगा और लोग अपनी ऐतिहासिक सामासिक संस्कृति का
देशव्यापी उत्सव मानाएंगे।
प्रत्यक्ष विश्वयुद्ध तो
नहीं हो रहा है, लेकिन यूक्रेन पर रूसी हमले तथा इज्रायल पर हमस हमले के बाद फिलिस्तीन पर जारी
इज्रायली हमले के युद्धों में पूरी दुनिया के देशों की सरकारें किसी-न-किसी पक्ष
में खड़ी हैं। युद्ध की विभीषिका और रक्तपात का खामियाजा दुनिया भुगत रही है।
युद्धों में विजय तो किसी की नहीं होती, मानवता जरूर पराजित होती है। ऐसे में
युद्ध की विभीषिका का सजीव चित्रण करती दिनकर की रचना, कुरुक्षेत्र पथप्रदर्शक
सी है।
डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा के
ज्ञानप्रद अध्यक्षीय भाषण के बाद आयोजन समिति के राजेश जी द्वारा संगोष्ठी के
समापन की घोषणा के पहले शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल
करने वाले छात्र-छात्राओं को अतिथियों के हाथों पुरस्कार और प्रशस्तिपत्र दिए गए।
आयोजन के बाद राजेश जी के घर भोजन के बाद होटल में वापस आकर शशिधर और प्रभाकर से
शिक्षा तथा साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हुई।
अगले दिन यानि 24 अक्टूबर
की शाम डॉ. सिन्हा की मेजबानी में बेगूसराय बरौनी रिफाइनरी के टाउनशिप में स्थित
गेस्ट हाउस में रुकने की व्यवस्था थी। रिफाइनरी का निर्माण सोवयत संध सरकार की
सहायता से हुआ था। निर्माणाधीन टाउनशिप में सबसे पहले गेस्ट हाउस बना था। रिफाइनरी
की स्थापना सोवियत वैज्ञानिकों/इंजीनियरों की देख-रेख में हुई थी, वे इसी में रहते
थे। आवास निर्माणाधीन थे और वे इसी गेस्ट हाउस में रहते थे। इसलिए स्थानीय लोगों
में गेस्ट हाउस अभी भी रूसी हॉस्टल के नाम से जाना जाता है, यद्यपि अब उसका नाम
रामधाररी सिंह दिनकर गेस्ट हाउस है। गेस्ट हाउस के कमरे किसी बढ़िया होटल से बेहतर
सुविधाजनक हैं। कई वर्ग किमी में फैला सुनियोजित और सुव्यवस्थित टाउनशिप आधुनिक
स्थापत्य कला का बढ़िया नमूना है। इसमें स्कूल और अस्पताल भी हैं।
अगले दिन उसके अगले दिन
(25-26 सितंबर, 2023) रिफाइनरी परिसर में सुबह की शैर काफी आनंददायी थी। सैर के
दौरान वहां कार्यरत कुछ इंजीनियरों और अन्य कर्मचारियों से बातचीत में विघटित
सोवियत संघ की प्रशंसा सुनना अच्छा लगा। लोगों से बातचीत में पता चला कि परिसर में
रिफाइनरी के सभी नियमित कर्मचारियों के आवास की व्यवस्था है। डाइनिंग रूम में
नाश्ते की मेज पर रिफाइनरी के अस्पताल में नव नियुक्त दो नर्सों से बातचीत हुई।
नियमित आवास मिलने की प्रतीक्षा में गेस्ट हाउस में ही उनके रहने की व्यवस्था की
गयी थी। नर्सों से पता चला कि अस्पताल में
योग्य डॉक्टरों तथा चिकित्सा की सभी आधुनिक सुविधाओं का प्रबंध है।
बरौनी रिफाइनरी की टाउनशिप
में टहलते हुए भारत जैसे, उपनिवेशवाद से नए-नए मुक्त हुए तीसरी दुनिया के देशों के
औद्योगीकरण में सोवियत संघ की सकारात्मक भूमिका के प्रति प्रशंसा के भाव स्वाभाविक
थे।
दोपहर के भोजन के लिए डॉ.
सिन्हा के आवास पर जाने के दौरान लगा कि शहर की बसावट बहुत अनियोजित ढंग से हुई
है। संकरी सड़कों से चलकर अनियोजित शहर में उनका नियोजित आवास प्रशंसनीय लगा। बैठक
में उनकी पुस्तकों का संग्रह उनकी विद्वता का परिचय देता है।उनके साथ देश और
बेगूसराय में प्रगतिशील आंदोलनों की दशा-दिशा पर व्यापक चर्चा हुई। हम दोनों में
एक साझी बात यहहै कि दोनों ही भविष्य की पीढ़ियों की क्रांतिकारी संभावनाओं के
प्रति आश्वस्त हैं। हम दोनों ने अपनी उम्मीदें कि इतिहास अंधेरी सुरंग से निकल कर
सुर्ख उजाले में प्रवेश करेगा ही, आपस में साधाकर एक दूसरे को आश्वस्त । भोजन की
मेज पर उनके कर्मठ और जागरूक, पत्रकार सुपुत्र पराग से मिलना सुखद लगा। वे दैनिक
हिंदुस्तान के स्थानीय संवाददाता हैं। उन्होंने अंतरजातीय विवाह किया है तथा अपने
परिवार के साथ मकान की ऊपरी मंजिल पर रहते हैं।
रात के भोजन का प्रबंध चंदन वत्स समेत
सामाजिक बदलाव की राजनीति में सक्रिय के शहर के कई युवा कार्यकर्ताओं तथा सुधांशु
रंजन के साथ था। सुधांशु रंजन जी का भी पैत्रिक आवास बेगूसराय में ही है। 2019 में
बेगू सराय के संसदीय चुनाव में कन्हैया कुमार के चुनाव प्रचार में अग्रणी भूमिका
निभाने वाले एक युवक (नाम भूल रहा हूं) ने प्रचार के अपने रोचक अनुभव सुनाया। भोजन
चर्चा में सबने ऐक्टिविज्म के अपने अपने कुछ रोचक अनुभव सुनाया। भोजनोपरांत भगवान
भाई अपने अनुज के साथ मुझे गेस्ट हाउस तक छोड़ने आए।
अगली सुबह की सैर में
रास्ते में कर्मचारियों से बातचीत करते हुए दो बातें दिमाग में कौंधी। पहली बात कि
सोवियत संघ के विघटन से तीसरी दुनिया के देशों क् आर्थिक विकास में एक मददगार
आर्थिक महाशक्ति की नुपस्थिति से एक ध्रुवीय दुनिया में साम्राज्यवाद बेलगाम हो
गया और दूसरी दुनिया के पाठकों को लगभग मुफ्त में उच्च कोटि की किताबों के प्रसार
का एक महत्वपूर्ण स्रोत खत्म हो गया। प्रतिस्पर्धा में पूंजीवादी प्रकाशनों की
किताबें भी अपेक्षाकृत सस्ती मिलती थीं। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि सोवियत
संघ के नेतृत्व ने पने देश के पूंजीवादीकरण (औद्योगीकरण) के साथ समाजवादी चेतना के
विकास पर भी ध्यान देता तो आज दुनिया की स्थति अलग होती, प्रतिक्रांति से विखरने
की बजाय सोवियत संघ और दुनिया में पिछली क्रांतियों से सीख लेकर अगली क्रांति के
उफानन में समाजवाद के वास्तविक निर्णाण की विश्वव्यापी प्रक्रिया शुरू होती।
इतिहास में ऐसा होता तो वैसा होता की बहस बेकार है, जो हुआ उसी पर विचार होना
चाहिए।
मार्क्स ने लिखा है कि क्रांति
सर्वाधिकविकसित पूंजीदी देश से शुरू होगी, लेकिन मार्क्स ज्योतिषी नहीं
एकक्रांतिकारी समाजवैज्ञानिक थे और विज्ञान के सिद्धांत, नए अन्वेषणों से
निर्धारित होते हैं। क्रांति सामंती जारशाही से जकड़े एक पिछड़े पूंजीवादी देस में
हुई। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सामने दो कार्य थे – पूंजाद (औद्योगीकरण) का विकास
और समाजवादी चेतना का निर्माण। पहला काम तो क्रांति के बाद के सोवियत संघ ने बखूबी
किया। दूसरे विश्वयुद्ध तक सोवियत संघ आर्थिक और सैनिक महाशक्ति बन गया। यानि जितना
आर्थिक विकास निजी स्वामित्व के पूंजीवाद(यूरोप और अमेरिका) में लगभग साढ़े तीन सौ
लालों में हुआ, उतना सोवियत संघ में राज्य नियंत्रित सुनियोजित अर्थ व्यवस्था में लगभग
20 सालों में हुआ। कहने का मतलब राज्य नियंत्रित, नियोजित अर्थव्यवस्था में औद्योगिक
विकास की गति निजी स्वामित्व की अर्थ व्यवस्था की तुलना में तीव्रतर होती है। दूसरी
जिम्मेदारी यानि समाजवादी चेतना के निर्माण में विकास की दिशा प्रतिगामी रही; इतनी
कि जब अगली क्रांति की प्रतीक्षा होनी चाहिए थी, तब प्रतिक्रांति हो गयी। सोवियसंघ
में क्रांति के बाद के समाज का विश्लेषण एक अलग विमर्श का विषय है।
दिनकर समारोह में शिरकत के संस्मरण
में काफी विषयांतर हो गया, इस संस्मरण का समापन दिनकर की एक कविता से करना अप्रासंगिक
नहीं होगा।
“सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.”
Sunday, October 29, 2023
फिलिस्तीन के लिए
इज्रायली नस्लवादी हैवानियत के शिकार हजारों फिलिस्तीनी बच्चों की श्रद्धांजलि की एक पोस्ट पर एक अंधभक्त को इज्रायल द्वारा फिलिस्तीनी नरसंहार के समर्थन में वामपंथ का दौरा पड़ गया। उस पर--
बेघर कर दिए गए, Zionist नस्लवाद के शिकार फिलिस्तीनी देश के अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। हमास, पीएलओ के जनतांत्रिक संगठन फतह के विरुद्ध अमेरिकी सीआईए और और इज्रायली मोसाद द्वारा खड़ा किया गया, उनकी भावनाओं का शोषण करने वाला एक आतंकी संगठन है जिसने अकस्मात हमले में कुछ सौ इज्रायली सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर दी, जो निंदनीय है। लेकिन इज्रायल तो अमेरिका और उसके साम्राज्यवादी कारिंदों द्वारा समर्थित एक आतंकवादी राज्य है, जिसने गाज़ा के स्कूल-अस्पताल समेत रिहायशी इलाकों में हमलाकर हजारों बच्चों समेत तमाम नागिरिकों की हत्या कर दी। उनकेदेश पर कब्जा कर पहले ही उन्हें दो छोटे-छोटे दड़बों में बंद कर दिया है अब उन दड़बों की घेराबंदी करके उनका खाना-पानी बंद कर दिया है। हजारों लाशें घरों के मलवे में दबी पड़ी हैं। मीडिया तो इज्रायली हमले ही दिखा रहा है। अपने बच्चों की लाोसं पर विलाप करते मां-बाप के दृश्य की कल्पना कीजिए। कल्पना कीजिए इज्रायली सेना के आतंकी बमबारी के शिकार बच्चों में आपका भी बच्चा है। बाकी धनपशुओं के अंधभक्तों को वामपंथ के दौरे की बीमारी पुरानी है। जाहिल अंधभक्तों को वामपंथ की स्पेलिंग भी नहीं मालुम होती लेकिन बात-बेबात वामपंथ-वामपंथ अभुआने लगते हैं। वैसे तो रटा भजन गाते गाते दिमाग कुंद ओऔर दिल असंवेदनशील हो जाता है लेकिन कभी मानवीय संवेदना से दिमागलगाइए और छोटे आतंकी से गुस्साकर भीमकाय आतंकी का समर्थन करने के अपने विचारों पर विचार की कोशिश करिए।
Friday, October 27, 2023
मार्क्सवाद 295 (साम्यवाद)
साम्यवाद भविष्य की मानवमुक्ति की व्यवस्था है, वह कब आएगी, और कब तक चलेगी, भविष्य ही बताएगा, उसके बाद की उच्चतर व्यवस्था की रूपरेखा भविष्य की पीढ़ियां तय करेंगी। आदिम साम्यवादी युग की अवधि बहुत लंबी थी और उसके बाद का दास युग भी बहुत लंबा चला, हजारोंसाल। दास युग के बाद आया सामंती युग लगभग 2,000 साल चला और मौजूदा पूंजीवादी युग लगभग 700 साल का है।।
Sunday, October 22, 2023
शिक्षा और ज्ञान 330 (रुपया)
5 साल पहले एक पोस्ट शेयर किया था कि मुद्रा के लिए रुपया शब्द का प्रचलन शेरशाह सूरी के शासनकाल में शुरू हुआ। एक सज्जन ने नाराजगी में तंज किया कि सल्तनत काल के पहले भारत का अस्तित्व ही नहीं था! उस पर --
भजन गाने की जरूरत नहीं है, सल्तनतकाल के पहले भारत का भी अस्तित्व था और बाजार-विनमय तथा मुद्रा का भी चलन था, लेकिन मुद्रा को रुपया नहीं कहा जाता था। मौर्यकाल में मुद्रा पण नाम से जानी जाती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्य के उच्चतम अधिकारियों (महामात्य; प्रधान सेनापति; पुरोहित और युवराज) का निर्धारित वेतन 48000 पण बताया गया है तथा निम्नतम कर्मचारियों का 8 पण। सल्तनतकाल मुगलकाल के पहले का है जिसकी मुद्रा जीतल थी। शेरशाह का समय हुमायूं और अकबर के बीच का है। रुपया रुप्य धातु की व्युत्पत्ति लगता है। चांदी को संस्कृत में रुप्य कहा जाता है और फारसी में को रुपा। संस्कृत और फारसी में कई और भाषाई समानताएं पाई जाती हैं।
Saturday, October 21, 2023
फिलिस्तीन के लिए
इज्रायल एक आतंकवादी राज्य है जिसे अमेरिकी नेतृत्व वाले आतंकवादी साम्राज्यवाद का समर्थन प्राप्त है। पीएलओ के फतह संगठन के विरुद्ध सीआईए और मोसाद ने हमस बनवाया और उसे शह दिया, उसी तरहजैसे इंदिरा गांधी ने पंजाब में अकाली प्रभाव के विरुद्ध भिंडरवाले को शह दिया, जो उनके लिए भस्मासुर बन गया। अमेरिका पूरी दुनिया में जनतांत्रित ताकतों के विरुद्ध राजशाहियों और आतंकी संगठनों का मशीहा रहा है। अरब में सउदी राजशाही अमेरिका का सबसे विश्वस्त सहयोगी है। 1970 के दशक में इरान कीनिर्वाचित सरकार का तख्तापलट कर सीआईए ने शाह की राजशाही को पुनर्स्थापित किया था, जिसके विरुद्ध जनता के संघर्ष का फल कट्टरपंथी नरपिशाच खोमैनी ने कब्जा कर उन सभी जनपक्षीय लोगों का कत्लेआम किया जो शाह की राजशाही के विरुद्ध बहादुरी से लड़े थे। प्रकारांतर से इरान में खोमैनी के कट्टरपंथी शासन की स्थापना का जिम्मेदार अमेरिका ही है। अफगानिस्तान में रूसी मौजूदगी से निपटने के लिए अमेरिका ने अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठनों को शह दिया, जो उसके लिए भस्मासुर बन गया। 2002 में अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के विरुद्ध युद्ध विरोधी प्रदर्शन में हम लोगों ने एक नारा दिया था, 'अल कायदा अभिशाप है, अमरीका उसका बाप है'; 'बिन लादेन अभिशाप है, अमरीका उसका बाप है'। ताज्जुब नहीं होगा जब पता चलेगा कि हमस का हमला फिलिस्तीनियों के कत्लेआम और उनकी बची-खुची जमीन पर कब्जा करने के लिए इज्रायल प्रायोजित था, वरना उनके पास मिसाइलें कहां से आईं? आइए मानवता की रक्षा में हर तरह के आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट हों चाहे वह हमस जैसे कट्टरपंथी संगठनों का आतंकवाद हो या साम्राज्यवादी प्रश्रय में पलने वाले नस्लवादी इज्रायली राज्य का।
Sunday, October 15, 2023
सबका नंबर आएगा
लिखने और बोलने या लिखने या बोलने के जुर्म में सबका नंबर आएगा
उर्मिलेश,प्रवीर, भाषा के बाद अब अरुंधती का नंबर आया है
धीरे-धीरे सबका नंबर आएगा
हर लेखक-पत्रकार का नंबर आएगा
बचने के लिए जो मृदंग बन गया है उसका भी
उसका भी नंबर जो धर्मोंमाद की ताड़ी पीकर
मंदिर-मंदिर भजते नाच रहा है
उसका भी
जो पेट पर लात भी प्रसाद समझ खाकर
सम्राट के महिमामंडन का भजन गा रहा है।
(ईमि: 15.10.2023)
Friday, October 13, 2023
शिक्षा और ज्ञान 329 (ब्राह्मणवाद)
बाभन से इंसान बनना जन्म के जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता की प्रवत्तियों से ऊपर उठकर एक विवेकसम्मत इंसान बनने का मुहावरा है। इस मुहावरे का ब्राह्मण व्यक्ति से कोई सीधा संबंध नहीं है। चूंकि वर्णाश्रमवाद या जातिवाद व्यवस्था का बौद्धिक औचित्य का दायित्व ब्राह्णण का रहा है या यों कहें कि ब्राह्मण इस व्यवस्था का बुद्धिजीवी रहा है इसलिए वर्णवाद या जातिवाद को ब्राह्मणवाद कहा जाता है। ब्राह्मण व्यक्ति बाहुबली तो अपवाद स्वरूप ही होता है। बाहुबली या दबंद तो पारंपरिक रूप से ठाकुर रहे हैं तथा यादव उनके लठैत। अब यादव ठाकुरों की लठैती करने की बजाय उनके प्रतिद्वंदी हैं। हाल के मामलों में तो गोंडा और राजस्थान में ब्राह्मण पुजारी ही भुक्तभोगी हैं। हाथरस और गोंडा में क्रमशः दलित और ब्राह्मण उत्पीड़न में ठाकुरों का नाम आया है।
Thursday, October 12, 2023
बेतरतीब 160 (स्थाई तिलक)
पहले गांव के घरों में आंटा पीसने की छोटी चक्की होती थी जिसे अवधी इलाके में जाता कहा जाता है। आप लोगों में से कुछ ने शायद अपने घर में ऐंटीक के रूप में किसी कोने पड़ा जांता देखा होगा। हमारे बचपन में आंटे की चक्की का रिवाज तो शुरू हो गया था दो-ढाई किमी दूर पड़ोस के एक गांव में लगी थी और हमारे पट्टीदार के यहां बैल से चलने वाली चक्की भी थी लेकिन आमतौर पर रोजमर्रा के इस्तेमाल का आंटा स्त्रियां घर पर अपने जांते पर ही पीस लेती थीं। मेरे माथे पर एक स्थाई तिलक का निशान है। मैं 2-3 साल का रहा होऊंगा, यह घटना इसलिए याद है कि लोग बहुत दिनों तक इसकी बात करते थे। मां (माई) जांते पर आंटा पीस रही थी और मैं उसकी पीठ पर लदा झूल रहा था। जांते के हत्थे का सिरा बहुत नुकीला होता था। झूलते-झूलते मेरा माथा हत्थे के नुकीले सिरे से टकराया और नाक के ऊपर खून की सीधी रेखा में छोटी सी लकीर बन गयी। जिसका निशान अब भी है, लेकिन कालांतर में बहुत हल्का हो गया है।गलती मेरी थी, फिर भी दादी (अइया) ने माई को बहुत डांटा और माई बिना प्रतिवाद के गलती मानकर अइया की डांट सुन लेती थी। बचपन में दादा जी (बाबा) ठाकुर को भोग लगाकर मुझे चंदन लगाते समय परिहास करते थे कि मेरे माथे पर तो स्थाई तिलक है।
13.10.2020
Monday, October 9, 2023
हर समाज में बहुमत सज्जनता का ही होता है
हर समाज में बहुमत सज्जनता का ही होता है
शिक्षाऔर ज्ञान 328 ( चारण)
इतिहास और मिथक पर चर्चा में एक सज्जन ने कहा कि इतिहास भी तो लिखा ही जाता है और लेखक शासक की जी हुजूरी करते हैं, उस पर:
सही कह रहे हैं, शासक की जीहुजूरी में शासक के भक्त और चाटुकार शासक के भजन गाते हैं जिसका जवलंत उदाहरण आज का समय है, और यह पोस्ट भी जाने-अनजाने भजन ही है। इतिहास अतीत की याद होती है, आज का दिन जब अतीत हो जाएगा तो शासक की जीहुजूरी में भजन गाने वाली भक्तमंडली का भी इतिहास लिखा जाएगा। इतिहास तथ्यपरक होता है, मिथक, महाकाव्य, उपन्यास कल्पनापरक होते हैं। पुराण इतिहास का मिथकीकरण है और पुराण से इतिहास समझने के लिए उसका अमिथकीकरण करना होता है।
Saturday, October 7, 2023
भक्तिभाव
भक्तिभाव प्रवृत्ति है मानवता को नकारने की
बेतरतीब 159(डीपीएस)
मैं डीपीएस में बहुत लोकप्रिय शिक्षक था। डीपीएस ज्वाइन किए अभी 1-2 महीना ही हुआ था कि स्टूडेंट्स की ट्रिप जा रही थी सूरजकुंड। मैंने न जाने का मन बनाया था और गंगा हॉस्टल (जेएनयू) अपने कमरे में सुस्त सुबह बिता रहा था। तभी बॉल्कनी से देखा कि काशीराम के ढाबे ( अब गेगा ढाबा) के पास डीपीएस की एक बस खड़ी थी। मैंने जब तक कुछ सोचता, दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। दरवाजा खोला तो 3 स्टूडेंट्स [ XI F (Commerce Section) के विक्रम भार्गव और सुजाता सरीन और एक और लड़का, जिसका नाम याद नहीं आ रहा है ] अंदर चले आए। ये तीनों मेरी क्लास के नहीं थे।( विक्रम पिछली साल दो बार मिला।) मैं XII A, XI C, XI D पढ़ाता था। तीनों तुरंत तैयार होकर साथ चलने की जिद पर अड़ गए, उनकी जिद का प्रतिरोध ज्यादा नहीं कर सका और साथ चल पड़ा। बस में अलग अलग क्सासों के कई लड़के-लड़कियों से गप्पें करते गए। बाकी कहानी बाद में।
Friday, October 6, 2023
शिक्षा और ज्ञान 327 (जंगल राज)
सत्योत्तर युग के नए भारत में मृदंग मीडिया और सोसल मीडिया के भक्तसंघ ने धर्मोंमादी सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद और नरसंहार; हत्या-बलात्कार तथा बुलडोजरी न्याय वैध प्रचारित कर रखा है। भारत वैसे ही भक्तिभाव प्रधान देश है जिसमें धर्मोंमाद के नशे में भक्त पेट पर लात भी प्रसाद समझकर खाकर भजन खाता है। यूरोपीय नवजागरण के राजनैतिक दार्शनिक, मैक्यावली ने समझदार राजा को सलाह दी है कि धर्म और नैतिकता की नकाब ओढ़कर अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए उसका सारा अनैतिक अनाचार-दुराचार वाजिब है, लेकिन जनता के पेट पर लात न मारे नहीं तो लोग विद्रोह कर देंगे। लोग पिता की मौत आसानी से भूल जाते हैं, पैतृक संपत्ति का नुक्सान नहीं। लेकिन लगता है वह हमारे जैसे किसी देश के भक्तिभाव की वैचारिक ताकत से अपरिचित था। आज हमारे देश में अन्याय-उत्पीड़न मृदंग बनने से इंकार करने वाली मीडिया पर तरह तरह के अत्याचार; बुलडोजरी न्याय सब वाजिब बन गए हैं। मीडिया जब तक मृदंग की तरह शासकीय सुर-ताल पर बजती रहेगी, फासीवादी शासन की वैधता बनी रहेगी। अरे भाई कोई यदि सचमुच का भीअपराधी है तब भी उसे सजा देने के लिए अदालत बनी है, एन्काउंटरी सजा-ए-मौत या बुलडोजर का न्याय जंगल राज का न्याय है, किसी सभ्य समाज का नहीं। संवैधानिक न्यायिक व्यवस्था किसी अपराधी के परिजनों को अपराधी नहीं मानती, फिर उन्हें बेघर कर भयानक सजा क्यों? किसी प्रोफेसर जैसी नौकरी से रिटायर होने के बाद एक फ्लैट खरीदने-बनाने में पूरी जिंदगी की कमाई खप जाती है; एक मकान बनाने में पीढ़ियों की मेहनत होती है, संविधानेतर जंगल राज का कानून उसे 5 मिनट में ध्वस्त कर देता है। जब अत्याचार और अन्याय कानून बन जाए तो विद्रोह नागरिक कर्तव्य है। जब सच्चाई का अपराधीकरण कर दिया जाए, तो सच्चाई के रास्ते पर चलना नैतिक दायित्व है।
Thursday, October 5, 2023
बॉस से अधिक खतरनाक हैं उसके कुत्ते
बॉस से अधिक खतरनाक हैं उसके कुत्ते
बेतरतीब 158 (आजादी और सामाजिक चेतना)
मैंने एक पोस्ट में लिखा कि मैं और मेरी पत्नी एक दूसरे की क्रमशः नास्तिकता और धार्मिकता के प्रति सहनशीलता दिखाते हुए सहअस्तित्व के सिद्धांत का पालन करते हैं। एक सज्जन ने इसे ब्राह्मण कम्युनिस्ट की अवसरवादी प्रवृत्ति कहा और एक अन्य मित्र ने कहा कि जब अपनी पत्नी को नहीं बदल सकता तो बदलाव के लिए औरों को कैसे प्रभावित करूंगा? एक और मित्र ने इसे उच्चजातीय प्रपंचबताया। उस पर --
मेरा विवाह उस उम्र में हो गया था जब मैं ठीक से विवाह का मतलब भी नहीं समझता था, हमारे गांव के सांस्कृतिक परिवेश में बाल विवाह आम प्रचलन था। आधुनिक शिक्षा की पहली पीढ़ी के रूप में हाई स्कूल इंटर की पढ़ाई (1967-71) शहर (जौनपुर जो सांस्कृतिक रूप से 1960-70 के दशक तक गांव का ही विस्तृत संस्करण था) में करते हुए चेतना का स्तर इतना हो चुका था कि इतनी कम उम्र में विवाह नहीं होना चाहिए तथा इंटर की परीक्षा के बाद घर पहुंचने पर अपनी शादी का कार्ड छपा देखकर विद्रोह का विगुल बजा दिया लेकिन भावनात्मक दबाव के आगे झुक गया और विद्रोह अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। एक बार किसी ने पूछा कि सबके चुनाव की आजादी के अधिकार की बात करता हूं तो क्या शादी भी अपनी मर्जी से किया था? मैंने कहा, शादी तो अपनी मर्जी से नहीं किया था (शादी के समय और उसके 3 साल बाद गवना आनेतक मैंने पत्नी को देखा ही नहीं था), लेकिन शादी निभाने का फैसला अपनी मर्जी से किया था। यदि यह शादी मेरी मर्जी से नहीं हुई थी तो पत्नी की भी मर्जी से नहीं हुई थी, लड़कियों से तो मर्जी पूछने का सवाल ही नहीं होता था। उस समय हमारे गांवों में लड़कियों के पढ़ने का रिवाज नहीं था। उन्होंने गांव के स्कूल से प्राइमरी तक पढ़ लिया था। लड़कियों की छोड़िए, विश्वविद्यालय पढ़ने जाने वाला अपने गांव का मैं पहला लड़का था। 1982 में 8वीं के बाद अपनी बहन की पढ़ाई के लिए मुझे पूरे खानदान से महाभारत करना पड़ा था तथा अड़कर मैंने उसका राजस्थान में लड़कियों के स्कूल/विवि वनस्थली विद्यापीठ में एडमिसन कराया, वह अलग कहानी है। भूमिका लंबी हो गयी। बाकी बातें अगले कमेंट में। यह कमेंट दो घटनाओं से खत्म करता हूं। पहली घटना 1980-81 के आसपास की है एक संभ्रांत क्रांतिकारी जोएनयू की सहपाठी को मुझसे कुछ राजनैतिक डीलिंग करनी थी। हम दोनों अलग अलग वाम संगठनों में थे। राजनैतिक बातचीत की भावुक भूमिका के तौर पर उन्होंने कहा कि बाल विवाह के चलते मुझे, आसानी से तलाक मिल सकता था। मेरा माथा ठनका। मैंने पूछा कॉमरेड आपका क्या इंटरेस्ट है? कोई गांव का शादीशुदा लड़का अकेले हॉस्टल में रह रहा हो तो कई लोग शायद यह मानते हों कि वह शादी से छुटकारा चाहता होगा। मैंने कहा था, "If there are two victims of some regressive social custom, one co-victim should not further victimize the more co-victim and in patriarchy the woman is more co-victim." दूसरी घटना मेरे कॉलेज की है। एक सहकर्मी से वैज्ञानिकता और धार्मिकता पर बहस हो रही थी, तर्कहीन होने पर उन्होंने कहा कि वे मेरी कोई बात तब मानेंगे जब मैं अपनी पत्नी को नास्तिक बना दूं। मैंने कहा कि इतने दिनों में जब मैं आपको भूमिहार से इंसान न बना सका जबकि आपतो पीएचडी किए है और इतने सीनियर प्रोफेसर है, मेरी पत्नी तो प्राइमरी तक पढ़ी गांव की स्त्री हैं। बाकी फिऱ।Wednesday, October 4, 2023
शिक्षा और ज्ञान 326 (आस्तिकता और सांप्रदायिकता)
समस्या आस्तिकता नहीं. सांप्रदायिकता है, जो धार्मिक नहीं, धर्मोंमादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है, जिसकी इमारत दूसरे धार्मिक समुदायों से नफरत की बुनियाद पर खड़ी है।
Tuesday, October 3, 2023
शिक्षा और ज्ञान 325 (स्त्री रिक्शाचलक)
ऐसी दबंगई को सलाम। ऐसी ही एक स्त्री रिक्शाचलक दिल्ली यूनिवर्सिटी मेंं थी। लेकि वे पैसे सब (पुरुषों) जितना ही लेती थी। 40-45 साल के आस-पास की पढ़ी-लिखी दिखने वाली स्त्री। दिल्ली विवि होते हुए कमला नगर से विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेसन। रिटायर होने के बाद जब कभी गया, दिखीं नहीं।
मुझे लगता था कि दिल्ली में रिक्शा किराया वाजिब नहीं है, अगर समग्रता में नहीं तो, अपेक्षाकृत वाजिब किराया दूं। डी'स्कूल से मेट्रो का किराया 20 रु. था मुझे लगता था कि कम-से-कम 30 होना चाहिए, तो मैं 30/ दे देता था। ई रिक्शा में 10/ सवारी का रेट था। कमललानगर से मेट्रो तक 20/
एक दिन मैं किसी काम सेकमला नगर गया था। और फोन आया, कोई पुराना दूर से मिलने आया था, डी'स्कूल में इंतजार कर रहा था। वह सवारी के इंतजार मे थीं, मैने कहा अकेले ले चलिए, पूरा किराया ले लीजिए। वे 4 ही सवारी बैठाती थीं। बोली 80/ लगेंगे। मैं डी'स्कूल उतरा तेमेट्रो की सवारी खड़ी थी, उन्होंने उन्हें बैठने को कहा और 100/ में से 60 / लौटाने लगीं, मेरे मना करने पर कहने लगीं मैं गैर वाजिब किराया नहीं लेती, यब कहते हुए कि खाली जातीं तब 80/ लेती। रिक्शा स्टार्ट कर चल दीं।
Monday, October 2, 2023
जीवन का उद्देश्य
नहीं है जिंदगी का कोई जीवनेतर उद्देश्य