सत्योत्तर युग के नए भारत में मृदंग मीडिया और सोसल मीडिया के भक्तसंघ ने धर्मोंमादी सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद और नरसंहार; हत्या-बलात्कार तथा बुलडोजरी न्याय वैध प्रचारित कर रखा है। भारत वैसे ही भक्तिभाव प्रधान देश है जिसमें धर्मोंमाद के नशे में भक्त पेट पर लात भी प्रसाद समझकर खाकर भजन खाता है। यूरोपीय नवजागरण के राजनैतिक दार्शनिक, मैक्यावली ने समझदार राजा को सलाह दी है कि धर्म और नैतिकता की नकाब ओढ़कर अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए उसका सारा अनैतिक अनाचार-दुराचार वाजिब है, लेकिन जनता के पेट पर लात न मारे नहीं तो लोग विद्रोह कर देंगे। लोग पिता की मौत आसानी से भूल जाते हैं, पैतृक संपत्ति का नुक्सान नहीं। लेकिन लगता है वह हमारे जैसे किसी देश के भक्तिभाव की वैचारिक ताकत से अपरिचित था। आज हमारे देश में अन्याय-उत्पीड़न मृदंग बनने से इंकार करने वाली मीडिया पर तरह तरह के अत्याचार; बुलडोजरी न्याय सब वाजिब बन गए हैं। मीडिया जब तक मृदंग की तरह शासकीय सुर-ताल पर बजती रहेगी, फासीवादी शासन की वैधता बनी रहेगी। अरे भाई कोई यदि सचमुच का भीअपराधी है तब भी उसे सजा देने के लिए अदालत बनी है, एन्काउंटरी सजा-ए-मौत या बुलडोजर का न्याय जंगल राज का न्याय है, किसी सभ्य समाज का नहीं। संवैधानिक न्यायिक व्यवस्था किसी अपराधी के परिजनों को अपराधी नहीं मानती, फिर उन्हें बेघर कर भयानक सजा क्यों? किसी प्रोफेसर जैसी नौकरी से रिटायर होने के बाद एक फ्लैट खरीदने-बनाने में पूरी जिंदगी की कमाई खप जाती है; एक मकान बनाने में पीढ़ियों की मेहनत होती है, संविधानेतर जंगल राज का कानून उसे 5 मिनट में ध्वस्त कर देता है। जब अत्याचार और अन्याय कानून बन जाए तो विद्रोह नागरिक कर्तव्य है। जब सच्चाई का अपराधीकरण कर दिया जाए, तो सच्चाई के रास्ते पर चलना नैतिक दायित्व है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment