Friday, November 10, 2023

बेतरतीब 162 (इलाहाबाद)

 मैं आजादी के पहले दशक में आजमगढ़ जिले के एक दूर-दराज के पिछड़े गांव में पैदा हुआ जिसका अब आधुनिकीकरण हो गया है, गांव में चौराहा है तथा 2 एक्सप्रेस वे के लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हमारे छात्र जीवन में चौराहेबाजी के लिए 3 दिशाओं में किसी भी तरफ 6-8 किमी दूर जाना पड़ता था। निकटतम मिडिल स्कूल 7-8 किमी दूर था 6-8 की पढ़ाई की रोज की मनोरम सामूहिक यात्रा के अनुभव फिर कभी शेयर करूंगा। नजदीकी लोकल-पैसेंजर का रेलवे स्टेसन 7 मील दूर था। 12 साल की उम्र में मिडिस पास कर हाईस्कूल-इंटर की पढ़ाई नजदीकी शहर जौनपुर से किया। 1972 में बीएस्सी की पढ़ाई के लिए बीएचयू और इलाहाबाद के चुनाव का धर्मसंकट था। सापेक्षतः बनारस नजदीक था तथा यातायात के सीधे रास्ते पर। घर से निकला बनारस जाने के लिए, जौनपुर बस स्टेसन पर विचार बदल गया और इलाहाबाद की बस में बैठ गया। 4 साल में इलाहाबाद में कितना सीखा-भूला, इसका हिसाब फिर कभी। एबीवीपी के नेता के रूप में 'राष्ट्रवादी' छात्र राजनीति में प्रवेश किया किंतु पुस्तकों और विमर्श के माध्यम से जाते-जवाते मार्क्सवादी बन गया। 1976 में भूमिगत रहने की संभावनाएं तलाशने दिल्ली चला गया और इवि के सीनियर डीपी त्रिपाठी को खोजते जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो जेल में थे, एक अन्य इलाहाबादी सीनियर से मुलाकात हो गयी, रहने का आश्रय मिल गया और गणित के ट्यूसन से रोजी का इंतजाम हो गया। आपातकाल के बाद 1977 में वहां राजनीतिशास्त्र में प्रवेश ले लिया। नौकरी में मास्टरी के अलावा दूसरी प्रथमिकता नहीं थी, रंग-ढंग ठीक किए नहीं, फिर भी अंततोगत्वा दिल्ली विवि में मास्टरी मिल ही गयी और रिटायर होने तक चल भी गयी। फिलहाल नोएडा में रह हे हैं। इस तस्वीर में दिख रही झोपड़ी कैंपस के घर में बनवाया था, जिसके छूटने का बहुत कष्ट है।

10.11.2020

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