Tuesday, December 19, 2023

शिक्षा और ज्ञान 335 (आरक्षण)

 कई दिन पहले, मंडल कमीसन और फलस्वरूप लागू आरक्षण को देश की अवनति का कारण बताने वाली एक मित्र की एक पोस्ट पर तब लिखाया एक कमेंट:


1990 के पहले भारत बहुत उन्नति कर रहा था, एकबैग पाताल में चला गया! आरक्षण, जातिवाद और जवाबी जातिवाद पर एक समावेशी विकल्प होना चाहिए। चुनावी जनतंत्र, संख्यातंत्र है। हर राजनैतिक दल अपने पक्ष में संख्याबल की लामबंदी के लिए तुष्टीकरण की राजनीति करता है। हर समाज में ऐतिहासिक रूप से कामगर (भारत के संदर्भ में शूद्र) ही बहुसंख्यक रहे हैं और हैं। शूद्र (पिछड़ी जातियां और दलित) श्रेणीबद्ध जातियों में बंटे है। पूंजीवाद की ही तरह जाति व्यवस्था में भी सबसे नीचे के पायदान वाले को छोड़कर हर किसी को अपने से नीचे देखने के लिए कोई-न-कोई मिल जाता है। पूंजीवाद में आधार आर्थिक है, जाति व्यवस्था में सामाजिक। इसीलिए जातीय भेदभाव कोकम करने के मकसद से बनाए गए आरक्षण के प्रावधान सामाजिक न्याय के प्रावधान कहलाते हैं।

शिक्षा पर एकाधिकार खत्म होने से 'ज्ञान' के आधार पर खत्म होते द्विज वर्चस्व को पुर्स्थापित करने के लिए मुसलमान के रूप में एक साझा खलनायक ढूंढ़कर, जातीय अंतर्विरोधों को ढकने के लिए संघ गिरोह धर्म के नाम पर लामबंदी करने के साथ जातीय तुष्टीकरण के लिए भी मोहन यादव और साय ढूंढ़ लाता है। जब तक सामाजिक चेतना के जनवादीकरण से संख्याबल जनबल में नहीं बदलता, किसी भी दल की सरकार आरक्षण को खत्म करने का खतरा नहीं उठा सकती, निजीकरण और उदारीकरण तथा नौकरियों में ठेकेदारी प्रथा को व्यापक बनाकर आरक्षण को अप्रांसंगिक भले बना दे। प्रतिभा को समुचित सम्मान देने के लिए जातिवाद के दानव और आरक्षण पर एक समावेशी विमर्श होनी चाहिए। प्रतिभा जन्मजात नहीं होती, आरक्षण का मकसद आरक्षण की जरूरत को खत्म करना होना चाहिए। ओबीसी आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की आर्थिक सीमा शायद आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों की आर्थिक सीमा के ही बराबर है। हमारा मानना है कि जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं हो सकती और क्रांति के विना जाति का विनाश नहीं हो सकता। हम सब को स्व के स्वार्थबोध पर स्व के परमार्थबोध को तरजीह देकर आरक्षण और आरक्षण-विरोध की राजनीति से ऊपर उठकर जातिवाद के विनाश की दिशा में योगदान देकर सुखद जीवन जीना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से आरक्षण का मकसद जवाबी जातिवाद नहीं, जाति क विनाश है।

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