Pankaj Mohan बिल्कुल सही कह रहे हैं। क्रिकेट राष्ट्रोंमाद किस तरह सामाजिक चेतना का हिस्सा बन गया, हम अपने बचपन में कल्पना भी नहीं कर सकते थे। मैं आपको एक अनुभवजन्य वाकया बताता हूं। जेएनयू जैसी जगह की 70-80 के दौर की कभी की बात है। जेएनयू को रेखांकित करने का कारण है कि वहां भक्ति पर विवेक को तरजीह दी जाती थी। सतलज हॉस्टल के कॉमन रूम में, टेलीविजन पर इंडिया-पाकिस्तान का मैच देखा जा रहा था। जहीर अब्बास ने बेदी की गेंद पर एक बहुत खूबसूरत छक्का लगाया, मैंने ताली बजाकर तारीफ कर दी, ज्यादा तो नहीं 2-3 लोग ऐसा घूरे जैसे कि मैंने कोई निंदनीय सामाजिक अपराध कर दिया हो!!
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