Saturday, December 20, 2014

क्षणिकाएं ३९(६०१-६१०)

601
कुछ खास खयाल हैं लगता है इसके मन में
है  यह लड़की  जरूर किसी उधेड़-बुन मे
अांखें ढूंढ़ रहीं अासमां से परे नया अनंत
सपनों का जहां न अादि हो न अंत
लगती है हिरावल दस्ते की हरकारा
तज़वीज में है करने को रंग परचम का गहरा. 
(ईमिः19.11.2014)
602
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के aआंदोलनकारी छात्रों के नामः

उठी है बगावत की एक चिंंगारी गंगा के कोलाहली किनारे
गूंज रहे अाकाश में काशी विश्वविद्यालय के छात्रों के नारे
टूट पड़ी है पुलिस इन पर लाठी-गोली के साथ
घुस-घुस कर छात्रावासों में मचा रहे उत्पात
सुनता नहीं ज़ालिम इतिहास की हिदायतें
दुहराता जा रहा है जोर-ज़ुल्म की घिसी-पिटी अायतें
जानता नही है वो जवानी का जोर
झुकता है जमाना उधर चाहे वो जिस ओर
 कहा है एक शायर ने बहुत वाज़िब बात
बढ़ता है ज़ुल्म तो हो जाता बरबाद
नहीं होता खुद-ब-खुद कोई इंक़िलाबी काम
जवां उमंगे ही देतीं उन्हें अंज़ाम
बनेगी ही यह छोटी सी चिंगारी अाग एक दिन दावानल
बुझा जिसे न पायेंगे तोप-टैंकों के दमकल
 बनारस से उटी चिंगारी पहुंचेगी दिल्ली जरूर
तोड देगी तख्त-ओ-ताज़ का सारा गुरूर
(ईमिः21.11.2014)
६०३
तुम्हारी चुप रहने की अदब ने बे-अदब बना दिया उनको
अदावत तो है बहुत दूर की बात
तुम्हारी हुक्म-ना-फरमानी भी पसंद नहीं 
तुम्हारा मौन ही तुम्हारा सद्गुण है
उससे भी  बड़ा सद्गुण है वफादारी बे-सवाल
बोलने में तोता सी अदब है सोने में सुहागा
चलनें में सलीका-ए-भेंड़ सद्गुणों में चार-चांद लगाता
भोग्या ही नहीं पूज्या भी थी तुम पूर्वजों की सदियों तक
महान सम्राटों की वफादार प्रजा की तरह
थी क्योंकि तुम सर्व-सद्गुण-संपन्न
रामजी के बीर भालू-बानरों की तरह
भूल गीता के चिंतन-मुक्त महान कर्मोपदेश
विवेक के वर्जित क्षेत्र में प्रवेश की धृष्टता
तोड़कर गौरवशाली नारी-मर्यादा की सीमायें 
सावित्री-सीता की महान सांस्कृतिक परंपरायें
तलाश-ए-दीनिश की तुम्हारी नापाक कोशिस
बा-अदब मौन से बे-अदब मुखरता
सद्गुणों के पिजरे को तोडने की मूर्खता
अाज़ादी-ओ-हक़ की ऊलजलूल बातें
प्यार मुहब्बत की पापी खुराफातें
बता दूं तुम्हारे दुर्गुणों की पूरी कहानी
याद अा जायेगी मनु महराज को उनकी नानी
न रास  आने के लिय़े इतनी ही अदावत क्या कम थी
विमर्श में जो तुमने बराबरी की बेहूदी छौंक लगा दी
बातें विमर्श तक रहतीं तब भी गनीमत थी 
तुमने तो काफिराना जंग-ए-अाज़ादी छेड़ दी
है बात अब इतना अागे बढ़ गयी 
कि पतनशील पत्नियों की हद तक चली गयी
संक्रामक हो गया है नारी प्रज्ञा-ओ-दावेदारी का लफ़डा
बेलगाम हो गया है पतनशील पत्नीत्व का अश्वमेध घोड़ा
कर रहे हैं वे बर्दाश्त बेबस रखके पत्थर दिल पे 
देख कर भी मुल्क जाते हुये रसातल में. 
(पतनशील पत्नियों की अनमानतः सरगना(नामकरण उन्हीं का मौलिक) नीलिमा चौहान के एक सुंदर शेर पर टिप्पणी करते हुये लिखा गया सो उन्हीं को समर्पित)
(ईमिः 25.11.2014)
६०४
ठहराव मनुष्य के मन का भ्रम है
प्रवाह प्रकृति का साश्वत नियम
दुबारा पार करना वही नदी एक छलावा है
बदल चुका होता है उसका सारा नीर
स्थिरता की बात एक चाल है हुक़्मरानों की
गतिमान विधान इतिहास का
भरता है समाज मन में अज्ञात नव्य का एक अमूर्त भय
निरंतर आत्मान्वेषण है किरदार हिम्मत का
गरीब की आस्था से चलती दुकान भगवान की
भरता है झोली वह मगर थैलीशाह का
कहते हैं सब उसे सहारा बेसहारा का
बनता वो मगर सारथी किसी राजकुमार का
मालुम जिसे हकीकत भगवान के छलावे की
लगता नहीं है उनको भूत-ओ-भगवान का डर
धर्म है बैशाखी मन से अपाहिज़ की
नास्तिक के मजबूत पैर रचते नित नई डगर
होती विचारों की दृढ़ता जब
तब बेरोजगार हो जाती हैं धर्म की बैशाखियां
बहते रहो झरने की तरह सोचे बिन थमने की बात
करते रहो आत्मान्वेषणों से नित नयी मुलाकात
(ईमिः27.11.2014)
६०५
है इंसान रहकर दुनियां में ही तलाश-ए-खुदी करता
जंगल के एकाकीपन में इंसान महज एक मासूम जंतु था
थीं उसके अंदर महज अात्म-प्रेम की भावनायें
अंतरनिहित किंतु सुप्त थी बाकी इंसानी संभावनायें
निकलकर प्रकृति की गोद से बनाया जब समाजं
शुरू किया समझना तभी इंसानी प्रवृत्तियों का राज
होते जो इंसान भीरु अपनाते पलायनवाद
परजीवीपन को बताते दैविक अाध्यात्मवाद
ताकती हो जब चमत्कार मुल्क की अाबादी
ओढ़ लबादा धर्म का बन जाते साधू-संयासी
करते अनहोनी के तिलिस्म की तिजारतॉ
अाध्यात्मिक ढोंग की करते ये सियासत
रहेगा जब तक धर्म-भीरु बडा तपका इंसानों का
फलता-फूलता रहेगा धंधा पाखंडी शैतानों का.
(ईमिः28.11.2014)
६०६
रिश्तों की सुगंध बदबू बन जाती है
 घुलता है जब भी उनमें अविश्वास का जहर
अौर नीयत पर पहरेदारी की बदनीयती
इसी लिये लिखा था वह विदा गीत
दुबारा पडा पांव जब उसी राह
लगा पुरानी यादें यूं ही नहीं छूटतीं
 अतीत का अपना वज़ूद होता है
 कोई गर्द नहीं झाड़ दी जाय जिसे  एक उड़ती कविता से
पर अतीत का नशा कुछ पल का होता है
जब  छिप नहीं पाते अावारा ज़ज्बात
रोकता नहीं कभी-कभी होने से इन्हें मुखर
यही तो हैं चंद  चश्मदीद गवाह
मेरी आदमियत के
 रहे हैं मेरे प्रामाणिक हमराही
चलते हुये साथ मां के दूध से अब तक
(ईमिः12.12.1014)
६०७
परिन्दों की परवाज़ का चाँद को क्या पता?
चुनते सुबह सुबह दाना शाम तक लापता
खुद भयभीत है इंसानों के नापाक इरादों से
कब्ज़ा न लें उसको हवा-पानी के इंतज़ाम से
देखता है वह आज़ाद परिंदों की उड़ान
सहमता है समझ इन्हें अंतरिक्ष यान
(ईमिः13.12.2014)
६०८
कितना आसान है बने रहना आस्तिक 
नहीं जरूरत किसी विवेकसम्मत उपक्रम की 
पीटते हुए लीक
 कहावत वाले फ़कीर की तरह 
चलते जाना है भेंडचाल
 पूर्वजों के बनाए पुरातन रास्तों पर
संस्कारों में बंधा परंपरा के नाम पर
 ढोताहै पूर्वजों की लाशों का बोझ
डरता है भगवान से
और जीता उसी के भरोसे
रटते हुए तोते की तरह 
हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये
डरते डरते भगवान से 
डरपोक बन जाता है 
डरने लगता है भूत से हीनहीं
अपने आपसे भी
और हर अज्ञात बात से
नास्तिकता है लम्बे आत्म-संघर्ष का नतीज़ा
 करने को बगावत दकियानूसी संस्कारों से
डरता नहीं भूत से न ही भगवान से 
 वहम हैं जो धर्मभीरू इंसान के
करता है सवाल हर बात पर
और हर बात का मागता जवाब
मानता सत्य उसी को हो जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण 
बाकी है पाखण्ड और मिथ्या-प्रलाप
देते हो जब उसे विधर्मी की गाली
 मानता है वह इसे उपलब्धि
उपजता  है भय से धर्म 
सही कहा था आइन्स्टाइन ने 
मार्क्स  ने बताया इसे
आत्मा आत्मा-विहीन हालात का
हृदयविहीन दुनिया का ह्रदय 
आह है दर्म दमित प्राणी का
और जनता का अफीम
 अंतिम शरण है 
दैहिक-दैविक-भौतिक पीड़ा का
ख़त्म नहीं होती इससे पीड़ा 
कुंद होता है महज़ कष्ट का एह्सास
सुख नहीं देता है यह सुख की  भ्रान्ति
ख़त्म होगी जब पीड़ा की दुनिया 
और बहेगा सागर सचमुच  के सुख का
ख़त्म हो जायेगी भ्रम की जरूरत 
और  धर्म की भी.
(इमि/१३.१२.२०१४)
६०९
जब से देखा खुदा को ड्योढ़ी पर सेठ-सामंतों की
फेरने से पहले मुंह उसके मैंने ही मुंह फेर लिया 
डूब रही थी भव सागर में जहां गरीब की कश्ती 
नाखुदाओं की साज़िश में शामिल था खुदा भी
करते हैं इंसान जब इंसान को इंसान से जुदा 
हर हर करते महादेव की कहते महान है ख़ुदा
करते तालिबानी भक्त बच्चों का कत्ल-ए-अाम
लूटते हैं मुल्क की अश्मत बोलते जयश्रीराम
अलग-अलग खुदाओं के अलग-अलग मज़हब
तोड़ने में सामासिक संस्कृति इनकी एकता गज़ब
अापसी अावाजाही है गज़ब का सियासी  खेल 
बांटने में समाज खुदाओं में दिखता अज़ब का मेल
(ईमिः19.12.2014)
६१०
खुर्शीद को याद करते हुयेः

मुझे भी याद रहेगी सदा सदा वो शाम
बहुत दिनों बाद मिले थे हम दोनों
गिला शिकवा की जगह मुलाक़ात के ख़लूस ने ले ली
करते थे हम फोन पर लगातार बात
नहीं खोलता था मगर वह अपनी तक़लीफ़ों का राज़
फ़ोंन किया जब 15 दिसंबर की रात
हुई थी नारीवाद पर उससे लंबी बात
निर्भया कांड की याद से था वह बहुत मायूस
निकालना था पहली बरसी पर उसे मशाल जुलूस
मर्दवाद-ओ-फ़िरकापरस्ती को ललकार रहा था खुर्शीद
साज़िश में खिलाफ़ उसके मशगूल थे कुछ नामुरीद
बौखला गये सभी कठमुल्ले देख उसके कलम का तेवर
घोंटने को हुये अातुर वे ये विद्रोही स्वर
 घोबराता है ज़ालिम जब किसी विचार से
करता है विदा विचारक को संसार से
जानता नहीं ज़ालिम मगर यह राज़
मरकर विचारक हो जाता अौर खतरनाक
 करहा था जब वह नारी-मुक्ति के विचारों का प्रचार
शाज़िश लगाया कमीनों ने तभी उस पर इल्ज़ाम-ए-बलात्कार
नहीं सह पाया वह यह बेहूदा  बाकी बाद अारोप
छा गये दिल पे उसके ग़म के बादल घटाटोप
ले ली कमीनों ने एक दानिशमंद की जान
बनेंगे शब्द उसके मेहनतकश के अजान. (अौर नहीं लिखा जा रहा है ..... खुर होता तो पूछता अबे ये कविता है या वक्बतव्य अौर मैं कहता, मैं तो वक्तव्य देता हूं कभी गद्य में अौर कभी पद्य में, अब कोई ऐसा नहीं पूछता. सलाम खुर)
(ईमिः20.12.20014)



















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