Ramadheen Singh अग्रज, प्रणाम. मैंने कब कहा कि अाप मॉस्को या वाशिंगटन नहीं गये होंगे, सत्ता के गलियारों में भ्रमण से इतना सुख तो मिल ही जाता है.अलांकारिक रूप से कहें तो लेनिन के पार्थिव शरीर की पूजन परम्परा ही अंततः सोवियत संघ के विनाश का कारण बनी.व्यक्ति अावाम का पर्याय बन गया था. बुतपरस्ती अंततः अात्मघाती ही होती है. व्यक्तिपूजा ही अंततः मौजूदा सरकार के पतन का कारण बनेगा. लेकिन तब तक मुल्क काफी बिक चुका होगा. वैसे, अग्रज, बात कोई अौर कुछ भी हो, मार्क्सवाद के भूत के तमाम पीड़ितों की तरह अाप भी लालू-मोदी की चर्चा के विषयांतर के लिये, क्रेमलिन पहुंच जाते हैं. क्रेमलिन के शवों पर बहुत लिखा जा चुका. रणधीर सिंह की पुस्तक "The Crisis of Socialism" में सोवियत संघ के उत्थान की बृहद व्याख्या करती है. क्रेमलिन के शवों की संख्या, 1950 के दशक में मैकार्थीवाद के तहत अमरीकका में मारे गये वैज्ञानिकों, लेखकों, कलाकारों, शिक्षकों के शवों से बहुत कम थी, 1984 में सिखविरोधी जनसंहार या 2002 में गुजरात नरसंहार के शवों से भी कम थी. अापको क्रेमलिन दिखता है, मुज़फ्फरनगर नहीं. क्रेमलिन के शव निंदनीय राजनैतिक हत्या के परिणाम थे, मुज़फ्फरनगर के शव राजनीति के लिये हत्या के परिणाम हैं जिसने गांवों की सदियों पुरानी सामासिक संस्कृति को खाक कर दूरगामी वैमनस्य अौर नफरत के वृक्ष रोप दिये. उनकी संख्या 1947 में देश के अनैतिहासिक बंटवारे के समय धर्मोंमादी हिंसा में गिरी लाशों से तो बहुत ही कम थी, जिसके लिये मौदूदी उतने ही जिम्मेदार थे, जितने गोलवल्कर, जितने जिन्ना उतने सावरकर. अाइये मुल्क पर अाक्रामक कॉरपोरेटी वर्चस्व के शिकंजे तोडने की जरूरत पर मिलकर विमर्श करें. अतीत का पुनर्निर्माण असंभव है, इतिहास से सीख ही ली जा सकती है. इंसानों को बौना बनाकर राष्ट्र महहान नहीं बन सकता.
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waah sir
ReplyDeleteशुक्रिया
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