Saturday, December 20, 2014

साहित्य अौर सत्ता 1

Kuldeep Kumar लाशें हर जगह हैं अौर उन हर जगहों पर लाशों की सियासत का अौर लाशों की सियासत करने वालों का विरोध होना चाहिये. बहिष्कार प्रतीकात्मक विरोध है. सफलता-असफलता तमाम ऐतिहासिक परिस्थिति-जन्य कारणों पर निर्भर करता है, मगर महत्वपूर्ण है विरोध की गुणवत्ता. इन्ही तर्कों पर कॉरपोरेटी भोंपुओं ने समाजवाद का ही नहीं इतिहास का भी मर्सिया लिखना शुरू कर दिया, तो क्या मजदूर शोषण के क़ॉरपोरेटी निज़ाम का विरोध बंद कर दें? ऐसी विचारधारा की सरकार जो धर्म निरपेक्षता, नारीवाद तथा क्रांति जैसे शब्दों को राष्ट्रीय अपशकुन मानती हो, महिलाओं के लिये लक्षमण रेखायें खींचती हो, वह अगर नारीवाद, धर्मनिरपेक्षता अौर क्रांतिकारिता के लंबरदारों का लाल कारपेट बिछाकर स्वागत करे तो उसकी नीयत पर संदेह होना स्वाभाविक है. इसमें कोई खापवाद नहीं दिखता, न ही खाप पंचायत सी किसी सभा में बहिष्कार का फरमान जारी किया गया, लेखकों ने निजी विवेक के अाधार पर बहिष्कार किया.

कुलदीप भाई नमस्कार, बिलकुल सही कह रहे हैं. किसी को भी कहीं भी जाने न जाने का हक़ है, लोगों को ्ायोजन के निहितार्थों पर राय रखने का हक़ है. यह किसी साहित्यिक-सांस्कृतिक निकाय का नहीं रमण सिंह सरकार का अायोजन था, जनता के पैसे से. कोई अतिम सत्य होता नहीं. विमर्श में निजी अाक्षेपों से बचते हुये (कभी अावेश में मैं भी नहीं बच पाता, पश्चाताप होता है, जिन्हे कई बार सार्वजनिक नहीं कर पाता) अालोचना बर्दास्तकरने का साहस होना चाहिये. मैं तो साहित्यकार भी नहीं हूं, बेबात बीच में कूद पड़ा. सलाम.

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