जनहस्तक्षेपः फासीवादी मंसूबों के खिलाफ एक मुहिम
मानवाधिकार दिवस, (10 दिसंबर) के अवसर पर जनसभा
स्थानः गांधी शांत प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय
मार्ग (आईटीओ के पास),
नई दिल्ली
विषयः मानवाधिकार आदोलनों के समक्ष मौजूदा
चुनौतियां
समयः शाम 5.30 बजे
दोस्तों,
इतिहास के एक भयावह
दौर से गुजर रहे हैं. लोकतांत्रिक मूल्यों का तेजी से क्षरण हो रहा है लोकतांत्रिक
क्षितिज सिमटता जा रहा है. हाल के लोकसभा चुनावों में बड़े पूंजी घरानों और
कॉरपोरेट मीडिया के उड़नखटोले पर सवार हो राष्ट्रीय स्वयंसेवक की राजनैतिक शाखा
भाजपा ने संसद में स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया. सत्ता पर काबिज होते ही मोदी सरकार
ने कॉरपोरेट के मुनाफे में इज़ाफे वाली नीतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की
जरूरतों के अनुरूप आर्थिक सुधार की प्रतिबद्धता की नीतियों की और कॉरपोरेट द्वारा
जनसंपदा की खुली लूट और मजदूरों के अबाध शोषण को सुगम बनाने के लिये सरकार श्रम
कनूनों, भूमि सीमा एवं भूमिअधिग्रहण अधिनियमों में परिवर्तनों की ताबड़तोड़
घोषणायें कर डाली. तमाम आर्थिक मुद्दों पर वैसे तो शासक वर्ग की सभी पार्टियों में
तो एका है लेकिन जब भी राज्यसभा में बहुमत के अभाव में यदि कानून में संशोधन नहीं
कर पा रही हैं तो सरकार नियमों मे तब्दीली करके इन कानूनों के विभिन्न प्रावधानों
को, खासकर, मजूरों, किसानों, आदिवासियों तथा अन्य वंचित-उपेक्षित तपकों के पक्षधर
प्रावधानों को, अप्रभावी बनाकर कॉरपोरेटी लूट को सुगम बना रही है. हमें यकीन है कि
जनता ऐतिहासिक कर्तव्य के रूप में इन जनविरोधी नीतियों का विरोध करेगी और अपने
चरित्र के अनुकूल सरकार पुरजोर दमन. लाखों लोगों को बेघर और आजीविका के साधनों से
वंचित करने वाले विनाशकारी विकास के चलते विस्थापन और विस्थापन विरोधी आंदोलनों का
जारी दमन मानवाधिकार के लिये एक प्रमुख चुनौती है.
दूसरा प्रमुख
मानवाधिककार सरोकार है नवउदारवादी नीतियों के विरुद्ध प्रतिरोध के कार्यकर्ताओं और
समर्थकों की फजी मुठभेड़ों में हत्या तथा यूएपीए जैसे काले कानूनों के तहत
गिरफ्तारी और प्रताड़ना. अंग्रेजी राज की जारी राजनैतिक विरासतों में से एक –
राजनैतिक जनांदोलनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के विरुद्ध फर्जी मुकदमें दर्ज
करना – को सभी सरकारों ने भक्ति भाव से बरकरार रखा है. ताजा मामला वेदांता के खनन
परियोजना के विरुद्ध नियामगिरि आदिवासों के विस्थापन विरोधी जनांदोलन के नेता
हरिबंधु गाठर की माओवादी बताकर गिरफ्तारी. जनांदोलनों के समर्थकों को आतंकित करने
के लिए यूएपीए जैसे काले कानूनों के इस्तेमाल की औपनिवेशिक विरासत को समृद्ध करने
में हमारी सरकारें कोई कोर-कसर नहीं छोडतीं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के
छात्र, संस्कृतिकर्मी, हेम मिश्र, पत्रकार प्रशांत राही तथा दिल्ली विश्वविद्यालय
के शिक्षक, मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रो. साईंबाबा की गिरफ्तारियां और प्रताड़ना
इसके ज्वलंत उदाहरण हैं.
अल्पसंख्यकों के
अधिकारों पर तेज होते हमले और 2002 गुजरात की तर्ज़ पर सांप्रदायिक हिंसा और
सरकारी नीतियों के मिले-जुले कारणों के चलते ग्रामीण इलाकों में आंतरिक विस्थापन
तथा सामुदायिक विलगाव (ghettoization), मानवाधिकार संगठनों के समक्ष तीसरी प्रमुख चुनौती है. संघ परिवार के
विभिन्न संगठन, छोटे-मोटे निजी झगड़ों को सांप्रदायिक रंग देकर; गाय-बहू-बेटियों की
रक्षा के नाम पर; लव जेहाद के नाम पर; और कुछ न हो तो अफवाहें फैलाकर समाज को बांटने में लग जाते हैं. 2002
में गुजरात में गांवों में धर्मोंमादी हिंसा के पहले आम तौर पर गांव सांप्रदायिक
तनाव से मुक्त रहते थे. मुजफ्फनगर और शामली में गुजरात प्रयोग की सफलता को बाद,
सियासी लामबंदी के लिए गांवों की सामासिक संस्कृति की बलि देकर, सांप्रदायिक
ताकतों ने, गांवों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को सियासी हथियार बना लिया है.
सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने जीवन के
विभिन्न आयामों का भगवाकरण और नैतिक चौकीदारी शुरू कर दिया है. सभी शैक्षणिक-सांस्कृतिक
संस्थानों में संघ संस्कारित लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया जा रहा है.
शिक्षा के भगवाकरण की साज़िशें तेज हो रही हैं. सांप्रदायिक आधार पर विकृत इतिहास
पढ़ाने की साज़िशे शुरू हो गयी हैं. पिछली सरकार की ही तरह यह सरकार भी पढे-लिखे
युवा मुस्लिमों को निशाना बना रही है. आतंकवादी का ठप्पा लगाकर उन्हें जेलों में
सड़ा रही है. दुर्भाग्य से पिछले कुछ समय से नौकरशाही और पुलिस एवं अन्य सुरक्षा
बलों के आला अफसरों की सोच में सांप्रदायिकता का पुट देखने को मिल रहा है, जो देश
की सामासिक संस्कृति के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है.
सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक-प्रशासनिक संस्थानों और नौकरशाही के भगवाकरण का खतरा
मानवाधिकार संगठनों के समक्ष चौथी अहम चुनौती है :
मानवाधिकार संगठनों का एक और अहम सरोकार है
: एक संपूर्ण इंसान के रूप में महिलाओं का मानवाधिकार. लव जिहाद के शगूफों और हिंदुत्व के दकियानूसी संगठन “भारतीय संस्कृति“ के स्वयंभू प्रहरी बन नैतिक चौकीदारी महिलाओं की
आज़ादी पर गंभीर खतरा बनता जा रहा है. नारियों पर नैतिक पहरेदारी की परिणति कभी
कभी खाप पंचायतों के तुगलकी फरमानों और “सम्मान-हत्याओं में होती है जिसका मकसद है महिलाओं को आतंकित कर,
जातीय शुद्धता के नाम पर, उन्हें मर्दवादी सामंती संस्कारों में कैद करना. यह अलग
बात है कि नारी प्रज्ञा और दावेदारी का उमड़ता आग का दरिया खाप पंचायतों तथा
संस्कृति के ठेकेदारों जैसे तिनकों से नहीं रुकेगा.
मानवाधिकार संगठनों के समक्ष सबसे बड़ी फौरी
चुनौती है, वैचारिक वैभिन्य के प्रति असहिष्णुता की बढ़ती फासीवादी प्रवृत्ति,
जिसकी मुखरता केंद्र में हिंदुत्ववादी ताकतों के कब्जे के बाद अधिक आक्रामक हो गयी
है. राष्ट्रीयता आंदोलनों के दमन के लिए उत्तर-पूर्व के राज्यों तथा जम्मू-कश्मीर
में एयफयसपीए और यूएपीए जैसे खतरनाक काले कानूनों से लैस फौज़ की मौजूदगी स्थायी
भाव बन चुका है. नक्सलवाद के नाम पर झारखंड-छत्तीसगढ को भी फौजी छावनी सा बन गया
है.
इस विश्व मावाधिकार दिवस पर जनहस्तक्षेप की
इस छोटी पहल का मक्सद समस्या की समझ विकसित कर उनके निदान के लिए संगठित संघर्ष की
रणनीति तैयार लोकतांत्रिक ताकतों, खासकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, के बीच इन
मुद्दों पर सार्थक विमर्श की शुरुआत है.
हमारा आमंत्रण स्वीकार कर इस विमर्श के सहभागी
बनें.
ईश मिश्र
संयोजक
मेरा एक युवा मित्र इस वर्ष मताधिकार के लायक भी हुआ और आज उसने एडमिट किया कि मैंने विकास के नाम पर मोदी को वोट दिया...इसका मतलब ये है कि आपके और वामपंथियों के विचार जन-जन तक नही पहुंचे...इसीलिए लफ्फाजी के शिकार युआ हो रहे हैं...क्रन्तिकारी के रूप में वे अब अरविन्द केजरीवाल को देखते हैं तो बड़ा दुःख होता है...
ReplyDeleteपूजी के सकट के दौर मे सुधारवाद अाकर्षित करता है अौर क्रातिकारी विकल्प के अभाव में सुधारवाद को क्रातिकारी मान लेता है
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