ख़ुदी की गफलत के शिकार एक शायर के हैं ये विचार
तख़ल्लुस है उनका ग़ाफ़िल
जानते नहीं मगर निज़ाम-ए-ज़र का आचार
कहते हैं
आसाँ है सोच रोटी की मगर मुश्किल है उसे बनाना
बताना पड़ेगा इनको वह बात
जानता है जिसे मुद्दत से सारा जमाना
खेलता-खाता जो रोटियों में और करता रोटी का धंधा
किया नहीं आँटे से उसने कभी भी हाथ गंदा
आता है जिसे बनाना और बनाता है जो रोटी
बिना नाश्ते के स्कूल जाती है उसकी बेटी
ईंट-गाढ़े की होती नहीं उन्हें तनिक पहचान
महलों-दुमहलों में रहते हैं जो धनपशु महान
बनाते हैं दिन-ओ-रात जो औरों की अट्टालिकायें
खुले आसमां के नीचे सोती हैं उनकी ललनायें
भूखा है मगर नहीं है कामचोर
श्रम के साधनों पर क़ाबिज हैं हरामखोर
झेलेगा अब और नहीं पीड़ा इस त्रासद अवस्था की
समझेगा जब साज़िश सरमाये की व्यवस्था की
दुनियां के भूखे-नंगे मिल जायेंगे जब साथ
तोड़ देंगे ज़ालिमों के सारे खूनी हाथ
भूखे न सोयेंगे तब रोटी बनाने वाले
बेघर न रहेंगे शहर बसाने वाले
करना पड़ेगा धनपशुओं को भी काम
बिन मेहनत होगी रोटी हराम
(ईमिः27.12.2014)
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