Friday, December 12, 2014

रिश्तों की सुगंध

रिश्तों की सुगंध बदबू बन जाती है
 घुलता है जब भी उनमें अविश्वास का जहर
अौर नीयत पर पहरेदारी की बदनीयती
इसी लिये लिखा था वह विदा गीत
दुबारा पडा पांव जब उसी राह
लगा पुरानी यादें यूं ही नहीं छूटतीं
 अतीत का अपना वज़ूद होता है
 कोई गर्द नहीं झाड़ दी जाय जिसे  एक उड़ती कविता से
पर अतीत का नशा कुछ पल का होता है
जब  छिप नहीं पाते अावारा ज़ज्बात
रोकता नहीं कभी-कभी होने से इन्हें मुखर
यही तो हैं चंद  चश्मदीद गवाह
मेरी अादमियत के
 रहे हैं मेरे प्रामाणिक हमराही
चलते हुये साथ मां के दूध से अब तक
(ईमिः12.12.1014)

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