कितना आसान है बने रहना आस्तिक
नहीं जरूरत किसी विवेकसम्मत उपक्रम की
पीटते हुए लीक
कहावत वाले फ़कीर की तरह
चलते जाना है भेंडचाल
पूर्वजों के बनाए पुरातन रास्तों पर
संस्कारों में बंधा परंपरा के नाम पर
ढोताहै पूर्वजों की लाशों का बोझ
डरता है भगवान से
और जीता उसी के भरोसे
रटते हुए तोते की तरह
हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये
डरते डरते भगवान से
डरपोक बन जाता है
डरने लगता है भूत से हीनहीं
अपने आपसे भी
और हर अज्ञात बात से
नास्तिकता है लम्बे आत्म-संघर्ष का नतीज़ा
करने को बगावत दकियानूसी संस्कारों से
डरता नहीं भूत से न ही भगवान से
वहम हैं जो धर्मभीरू इंसान के
करता है सवाल हर बात पर
और हर बात का मागता जवाब
मानता सत्य उसी को हो जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण
बाकी है पाखण्ड और मिथ्या-प्रलाप
देते हो जब उसे विधर्मी की गाली
मानता है वह इसे उपलब्धि
उपजता है भय से धर्म
सही कहा था आइन्स्टाइन ने
मार्क्स ने बताया इसे
आत्मा आत्मा-विहीन हालात का
हृदयविहीन दुनिया का ह्रदय
आह है दर्म दमित प्राणी का
और जनता का अफीम
अंतिम शरण है
दैहिक-दैविक-भौतिक पीड़ा का
ख़त्म नहीं होती इससे पीड़ा
कुंद होता है महज़ कष्ट का एह्सास
सुख नहीं देता है यह सुख की भ्रान्ति
ख़त्म होगी जब पीड़ा की दुनिया
और बहेगा सागर सचमुच के सुख का
ख़त्म हो जायेगी भ्रम की जरूरत
और धर्म की भी.
(इमि/१३.१२.२०१४)
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