Thursday, September 28, 2023

बेतरतीब 157 (बिलवाई)

 आजम गढ़ जिले में मेरा गांव शाहगंज (जौनपुर जिले में) और मालीपुर (पहले फैजाबादअब अंबेडकर नगर जिले में) से लगभग समान दूरी पर है। शाहगंज की अपेक्षाकृत बेहतर यातायात सुविधा के चलते हम गाड़ी शाहगंज से ही पकड़ते हैं। हाई स्कूल-इंटर में जौनपुर पढ़ते हुए दोनों स्टेसनों के बीच छोटे स्टेसन बिलवाई से पैसेंजर/लोकल ट्रेन पकड़ता था। बिलवाई बाजार हमारे गांव से 6 मील पड़ती है और स्टेसन 7 मील। वैसे स्टेसन बीबीगंज में है, लेकिन बिलवाई कहलाता है। हमारा मिडिल स्कूल एक गांव लग्गूपुर में है, लेकिन जूनियर हाई स्कूल पवई कहा जाता था/है। पवई बगल की बाजार है। बड़ी-छोटी मछलियों की कहावत का मामला लगता है।

बेतरतीब 156 (बिलवाई)

 अपने गांव संबंधी एक पोस्ट पर एक कमेंट पर कमेंट

Daya Shankar Rai शाहगंज का सेंट थॉमस तो बहुत नामी कॉलेज था। हम जब मिडिल में थे तो वहां के एक चर्चित प्रिंसिपल हस्नैन साहब थे, जिनके प्रशासन के बारे में इलाके में कई किंवदंतियां थीं। चाचा जी के शाहगंज से बिलवाई जाना तो खला होगा।

बिलवाई तो बहुत छोटा स्टेसन है, बगल की बाजार बीबीगंज है और चौराहा कलान।1967-72 के दौरान हम लगभग 7 मील पैदल चलकर शाम लगभग 7 बजे की लखनऊ-मुगलसराय पैसेंजर पकड़ने कलान चौराहे पर चाय पीते हुए आते थे, एक लघु उपन्यास की योजना में उस चौराहे पर काफी घटनाएं घटित होती हैं, 2016 में लगभग 3000 शब्द के बाद जेएनयू आंदोलन में भागीदारी और उस पर लिखने में ऐसा भटका कि अभी तक भटका ही रह गया। एक बार वह फाइल खोला तो लगा कि घटनाओं के संदर्भ ही दिलो-दिमाग से उतर गए हैं। जिस दिन जेएनयू में ह्यूमन चेन का कार्यक्रम था, मैं जेएनयू पर लेख लिख रहा था और सोचा कि मेरे न जाने से एक शंख्या का मामला है, लेकिन लेनिन की 'राज्य और क्रांति' की पोस्ट स्क्रिप्ट याद आई जिसमें वे किताब में बाद में लिखने के लिए छोड़े गए हिस्से के बारे में लिखते हैं कि उसके लिए अब शायद समय न मिले और यह लिखकर संतोष करते हैं कि क्रांति में भागीदारी उसके बारे में लिखने से ज्यादा सुखद है। (Participating in revolution is more pleasant than writing about it. ) और लैज टॉप बंद किया और हिंदू कॉलेज के आवास के लिए निकल पड़ा जीवन के सबसे सुखद अनुभवों में से एक के लिए। न जाता तो आजीवन मन कचोटता। उसके बाद हिंदी-अंग्रेजी में दो-दो लेख लिखे। एक का शीर्षक है, 'जेएनयू का विचार और संघी राष्ट्रोंमाद' (The Idea of JNU and RSS Jingoism) तबसे जेएनयू के मित्रों ने जेएनयू को विचार कहना शुरू किया और विचार मरते नहीं, फैलते हैं और इतिहास रचते हैं, जेएनयू का विचार कई कैंपसों में फैलने लगा। बिलवाई स्टेसन पर पैसंजर कम-से-कम आधे घंटे तो देर से आती ही थी।

एक शाम मैं स्टेसन पहुंचने में 20-25 मिनट देर हो गई और ट्रेन छूट गई लगभग साढ़े दस बजे, बाजार बंद होने तक बीबीगंज बाजार में चाय-वाय पीते अपरिचितों से परिचय कर करके गप्पियाते बिताया फिर रात भर अकेले सुनसान प्लेटफॉर्म पर चहलकदमी करते बिताया। बीच-बीच में बेंच पर बैठ जाता और कभी-कभी 15-20ल मिनटके लिए आंखें बंद हो जाती। एक अम्मा स्टेसन के पास के पोखरे के बगल की झोपड़ी में चाय बनाती थी। सुबह लगभग 5 बजे उन्होंने कोयले का चूल्हा जलाना शुरू किया तो उन्हें देखकर वर्णनातीत राहत की अनुभूति हुई। मुझे इतनी सुबह देख उन्हें बहुत अचंभा हुआ और पूरी बात जानकर उतनी ही सहानुभूति। वह रात मुझे कभी भूली नहीं।वे पंखी झलकर चूल्हा जल्दी जलाने लगी और तभी सड़क से पटरी की क्रासिंग का गेट बंद करने वाला अपनी लाल-हरी झंडियों के साथ आ गया। दोनों से गप्पियाते हुए अम्मा ने जल्दी ही चूल्हा जलाकर चाय रख दिया।

फैन के साथ चाय पीते हुए फाटक वाले भाई ने जलाकर एक बीड़ी बढ़ाया औक कस लेते ही जोर की खांसी आई और सोचा कि जिंदगी में फिर कभी बीड़ी-सिगरेट नहीं पिऊंगा। डेढ़-दो साल बाद इलाहाबाद विवि में पढ़ने गया तो चाय की अड्डेबाजी में दोस्तों के साथ यह सोचकर एकाधकश लेने लगा कि मेरी तो आदत नहीं पड़ेगी। लेकिन जल्दी ही आदत पड़ गयी और पान की दुकान पर सिगरेट का उधार-खाता खुल गया। हार्ट अटैक के बाद डॉ. ने सिगरेट छोड़ने को कहा तो असंभव सा लगा, लेकिन असंभव महज एक सैद्धांतिक अवधारणा है।

बेतरतीब 155(भूत-प्रेत)

 एक पोस्ट पर एक कमेंट

हम भी अवधी क्षेत्र के हैं। हमारे यहां कलावा को रक्षा भी कहते हैं, अबतो बांधता नहीं, बचपन में बंधने के तुरंतबाद निकाल देता था। बचपन में काजल तो मां (माई) या दादी (अइया ) काजल लगा देती थीं और सुबह सुबह दादा जी (बाबा), ठाकुर को नहलाने-भोग लगाने के बाद माथे पर चंदन का टीका लगा देते थे तो काजल लगाने की जगह ही नहीं बचती थी, तथा अनखा कभी नहीं पहना, न कभी नजर लगी न ही भूत चुड़ैल का डर, जबकि नदी किनारे गांव में और गांव के बाहर कई भूत-चुड़ैल निवास करते थे। बुढ़वा बाबा, बैरी बाबा और कुछ और तो हमारे पूर्वजों के भूत कहे जाते थे। गांव के दक्षिणी सीमांत खेतों में अंड़िका गांव की एक पतुरिया की चुड़ैल काफी चर्चित थी। कई लोग रात में खलिहान की रखवाली में उसके साथ खैनी खाने और संवाद की कहानियां बताते थे।

एक बुढ़वा बाबा नदी के किनारे के एक खेत में एक गूलर के पेड़ पर रहते थे। उसके आस-पास के खेत बुढ़वा तर कहे जाते थे। एक बार अपने एक सीनियर समौरी (हमउम्र), लालू भाई के साथ चरवाही करते समय मुंह से बुढ़वा बाबा के लिए कोई गाली निकल गयी तो लालू भाई ने टोका कि हमारे पूर्वज हैं। मैंने कहा कि पूर्वज हैं तो शांति से रहें बच्चों को डराते क्यों हैं। बचपन में, 12-13 साल की उम्र में भूत की परिकल्पना के वहम होने की धारणा बनने तक हमारी भूतों (?) से कुछ टकराहटें हुई हैं। जिनकी कहानियां फिर कभी, एक की लिंक ब्लॉग से खोजकर देता हूं। बचपन में मैं स्थानीय स्तर पर बिच्छू झाड़ने की ओझागीरी भी कर चुका हूं। आसपास के गांवों के लोग रात में सोते से जगाकर गोद में उठाकर ले जाते थे।

Monday, September 25, 2023

बतरतीब 155 (दिनकर)

 Bhagwan Prasad Sinha


बरौनी स्टेसन से लगभग 5 किमी पर बीहट गांव स्थित यह चौराहा ज़ीरो प्वाइंट कहा जाता है, यहां से सड़कें गुवाहाटी, पटना, मुजफ्फरपुर तथा वाराणसी की दिशाओं में जाती हैं, राष्ट्रकवि दिनकर का गांव सिमरिया यहां से लगभग 5 किमी है। हम (मैं तथा बीएचयू के प्रोफेसर्स रामाज्ञा शशिधर और प्रभाकर सिंह) इसी के विकट देबी दरबार में रुके थे। यह पूरा इलाका दिनकरमय है।चौराहे पर ऊंचे मंच पर दिनकर की भव्य प्रतिमा है। प्रतिमा पर माल्यार्पण के बाद यहीं से कार-मोटर साइकिलों के जुलूस में लभग 5 किमी दूर दिनकर के गांव सिमरिया स्थित दिनकर सभागार में 10 दिन के दिनकर समरोह के अंतिम दिन के कार्यक्रम में हमें जाना था। तस्वीर में सबसे बांए सिमरिया के ही कवि, कथाकार, लेखक, बीएचयू में हिंदी के प्रो. रामाज्ञा शशिधर हैं तथा उनके बगल में उन्हीं के सहकर्मी, कवि और आलोचक, प्रोफेसर प्रभाकर सिंह। उनकी बगल में मार्क्सवादी, चिंतक भगवान भाई (डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा) हैं । मेरी दाहिनी तरफ बेगू सराय को भारत का लेनिनग्राद की उपमा दिलाने वाले कर्णधारों में शामिल रहे, सीपीआई के पूर्व सांसद, शत्रुध्न सिंह हैं। बरौनी के औद्योगिक क्षेत्र के कई ग्राम पंचायतों के समटे, बीहट गांव का क्रांतिकारी इतिहास रहा है, 1930 के दशक में चौकीदारीआंदोलन के नाम से जाने जाने वाले लगानबंदी आंदोलन में गांव के एक आंदालनकारी ने शहादत दी थी, 1942 में भी गांव के एक आंदोलनकारी शहीद हुए थे। Ramagya Shashidhar ने बताया कि 1970 और 80 के दशकों में बीहट गांव और बाजार क्रांतिकारी सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियों का जीवंत केंद्र हुआ करता था। लेकिन 21 वीं शदी में यहां की लेनिनग्राद धीरे-धीरे सेंट पीटर्सबर्ग में तब्दील हो गया और बीहट भी बदल गया। अब यह गांव क्रांति की अगली लहर के इंतजार में है।

Friday, September 22, 2023

शिक्षा और ज्ञान 324 (अहिल्या)

 मालवा के सूबेदार ( 1693-1720-67) मल्हार राव होल्कर खुद भी चरवाहे थे, मराठा सेना में सिपाही भर्ती हुए और पेशवा बाजी राव के विश्वासपात्र बन गए फलतः 1720 में मराठा साम्राज्य के मालवा प्रांत के सूबेदार। उनके बेटे खंडेराव की पत्नी अहिल्याबाई भी एक चरवाहे की बेटी थी और बचपन में भेंड़े चाराती थी। शादी के बाद जद्दोजहद से शिक्षा प्राप्त कर राज-काज में हाथ बंटाने लगी। पति और बेटे की अकाल मृत्यु के बाद शासक बनी। वह एक visionary शासक थी, उसने जनकल्याण के बहुत काम किए, इंदौर से शिफ्ट करके नर्मदा तट महेश्वर में राजधानी बनाया, सड़कें, धर्मशालाएं, प्याऊ बनवाए उद्योगों का विकास किया। काशी विश्वनाथ मंदिर बनवाया तथा दुनिया की पहली शासक थी जिसने स्त्रियों की सेना का गठन किया था।

Tuesday, September 19, 2023

मार्क्सवाद 294 ( डूटा चुनाव)

 मेरे एक पूर्व छात्र किसी कॉलेज में एढॉक पढ़ा रहे हैं, उन्होंने दिल्ली विव शिक्षक संघ (डूटा) चुनाव में एनडीटीएफ (आरएसएसका दिवि का शिक्षक विंग) के उम्मीदवार और मौजूदा अध्यक्ष, एके भागी के प्रचार में दिवि के एक ग्रुप में एक पोस्ट शेयर किया। जिसपर मैंने अपने कमेंट में उनके कार्यकाल में हजारों एढॉक शिक्षकों की बेदखली और अपनी पेंसन के मुद्दे पर उनके रवैये की बात की। उसने मेरी मेरी निजी परेशानियों पर सहानुभूति जताते हुए और मेरी अच्छी सेहत तथा पेंसन बहाली की शुभकामनाएं देते हुए मेरी समझ से असमति व्यक्त की। उस पर:


'मेरी समझ से असहमति' का स्वागत है, मैं तो अपने छात्रों को पहली की क्लास में सबसे पहली बात हर बात पर सवाल करना; आलोचना और आत्मालोचना ही सिखाता हूं -- निर्मम आलोचना और आत्मालोचना। दरअसल आत्मालोचना बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त है। लेकिन असहमति तथ्यात्मक और तार्किक होनी चाहिए वरना वह पोंगापंथी फतवेबाजी होती है। आपकी शुभेच्छा और शुभकामनाओं के लिए, आभार लेकिन मैं व्यक्तिगत समस्याओं की उतनी चिंता नहीं करता, क्योंकि ननतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीने के मंहगे शौक की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। वैसे भी अन्यायपूर्ण समाज में व्यक्तिगत अन्याय की शिकायत वाजिब नहीं है। निजी न्याय के लिए न्यायपूर्ण समाज बनाना पड़ेगा, जिसमें किसी के साथ अन्याय न हो तो व्यक्तिगत न्याय अपने आप सुनिश्चित हो जाएगी। निजी स्वतंत्रता के लिए समाज को स्वतंत्र करना पड़ेगा। भागी जी से भी मेरी कोई शिकायत नहीं है, रिटायर्ड टीचर की समस्याओं को नजरअंदाज करना या फोन न उठाना भी नावाजिब नहीं है, क्योंकि उसका वोट तो होता नहीं। आपकी और अपनी स्टूडेंट प... (आपकी पत्नी और मेरी स्टूडेंट)) की परमानेंट नौकरी के लिए शुभकामनाएं। लंबे समय से एढॉक पढ़ा रहे अपने कई स्टूडेंट्स की बेदखली की पीड़ा झेल चुका हूं और कामना करता हूं कि और न झेलना पड़े।

मैं बौद्धिक कलाबाजी में यकीन नहीं करता एक शिक्षक का काम एक विवेकशील इंसान बनने में छात्रों की मदद करना है, बौद्धिक कलाबाजी नहीं, ऐसी अवमानना पूर्ण प्रशंसा अवांछनीय है। विरोध हमेशा तार्किक होना चाहिए, निराधार विरोध फतवेबाजी होती है।

मेरी व्यक्तिगत समस्याओं पर सहानभूति के लिए पुनः आभार, किंतु एक अन्यायपूर्ण समाज में व्यक्तिगत समस्याओं का कारण सार्वजनिक आचरण होता है। वैसे भी लोग सार्वजनिक-व्यक्तिगत के विरोधाभास का इस्तेमाल अपने सिंद्धांत-व्यवहार के अंतर्विरोध के आवरण के रूप में करते हैं।

आप, पल्लवी और आप दोनों की संतान को कोटिशः आर्शिर्वाद तथा शुभकामनाएं।

Monday, September 18, 2023

बेतरतीब 154 (गोरख)

 गोरख पांडे की कालजयी कविता, 'समझदाररो का गीत' पर एक चर्चा में मेरे इस कविता की रचना प्रक्रिया का गवाह होने की बात बताया। साथी, Daya Shankar Rai ने प्रक्रिया जानने का आग्रह किया। वैसे तो कविता कवि के मन से निकलती है और वह रही उसे संपादित कर सकता है। इसके जवाब में भूमिका लंबी हो गयी मास्टरों की लंबी भूमिका की आदत होती है, और कभी कभी तो भूमिका इतनी लंबी हो जाता है कि विषय गौड़ लगने लगता है। और यह तो भूमिका की भूमिका हो गयी। खैर

जेएनयू की तत्कालीन (अब पुरानी) जनतांत्रिक शिक्षानीति की जगह नई प्रवेश नीति लागू करने के विरोध में 1983 में जेएनयू में एक आंदोलन चला था। दोनों नीतियों में फर्क का गुणात्मक विश्लेषण फिर कभी, बाद के छात्र आंदोलनों के दबाव में पुरानी प्रवेश नीति के कई प्रावधान फिर से शामिल कर लिए गए हैं। कहा जा ररहा था कि नई शिक्षानीति प्रमुख किरदार थे, प्रसिद्ध इताहासकार, बिपिन चंद्र तथा उनके प्रमुख समर्थक थे सीपीआई के प्रो. आरआर शर्मा और एचसी नारंग। कैंपस नीचे (ओल्ड) से ऊपर (लए में)) शिफ्ट हो रहा था। आंदोलन की प्रतिक्रिया में पुलिस कार्रवाई हुई और बहुत से लड़के-लड़कियां तिहाड़ जेल पहुंच गए थे। कुछ अखबारों में जेएनयू के कुछ छात्रों के जेल से फरार होने की खबरें चफीं, उनपर फिर कभी। विवि अनिश्चित काल के लिए बंद था, 1983-84 जीरो सेसन घोषित था। 1983 में नए छात्रों का आगमन नहीं हुआ और एमए करने वाले छात्रों को एमफिल के लिए दिल्ली और अन्य विश्वविद्यालयों में जाना पड़ा। जांच समिति के नाटक के बाद 17-18 छात्रों को माफी न मांगने के लिए निष्कासित कर दिया गया था। मुझे गलती के लिए माफी मांगने में कोई परेशानी नहीं है, मैं अपने छात्रों के गलती होने पर माफी मांगने की शिष्टता सिखाता था और शिक्षक को प्रवचन से नहीं मिशाल से पढ़ाना चाहिए। लेकिन आंदोलन में साझेदारी के लिए माफी मांगना आंदोलन की भर्त्सना करना होता। कैंपस के सभी प्रमुख संगठन, एसएफआई, एआईएसएफ, फ्रीथिंकर्स समर्पण कर चुके थे। हम सब डाउन (पुराने)कैंपस लाइब्रेरी के बाहर कॉरीडोर में अड्डेबाजी करते थे। हम लोग फैज, नागार्जुन, इब्ने इंशा की कविताएं पढ़ते हुए तथाकथित प्रगतिशील (बिपिन तथा सीपीएम-सीपीआई टाइप) बुदिधिजीवियों के चरित्र का विश्लेषण कर रहे थे, गोरख ने कहा 'बुदिधिजीवियों की रुदाली' लिखता हूं, कुछ सुनाने के बाद शीर्षक पर बहस हुई और गोरख ने इसका शीर्षक समझदारों का गीत कर दिया। 2-3 पाठन और फौरी संपादन के बाद इस रूप में फाइनल किया। हम दुखी रहते हैं वाला हिस्सा बाद में जोड़ा। फिर हम लोगों ने आंदोलन में इस कविता का पोस्टर बनाया। यह छपी उनके देहांत के बाद 'स्वर्ग से विदाई' संकलन में।

अब इसी में कविता कॉपी-पेस्ट से फेसबुक के लिहाज से पोस्ट लंबी हो जाएगी, इसलिए कविता कमेंट बॉक्स में कॉपी-पेस्ट कर रहा हं, वैसे यह कविता ऑनलाइन उपलब्ध है।

Saturday, September 16, 2023

लल्ला पुराण 332 (सनातन)

 सनातन पर चर्चा में एक कमेंट


पहली बात आपका शीर्षक दुराग्रह पूर्ण है, एक सदस्य से विमर्श की जगह एक वामी से विमर्श , विषय पर बात करना आपका पूर्वाग्रह दर्शाता है। यह पूछने पर वामी क्या होता है, कुछ ऊट-पटांग बोलने लगेंगे। आप स्वस्थ विमर्श की बजाय प्रकारांतर से व्यक्ति को एक फैसलाकुन कोष्ठक में बंद करके शुरुआत कर रहे हैं, मैं कई बार कह चुका हूं कि मैं किसी पार्टी का सदस्य नहीं हूं, लेकिन 'आपको कम्युनिस्ट पार्टी से पैसा मिलता होगा' किस्म की बात निराधार, निंदनीय, आपत्तिजनक निजी आक्षेप है। आपको भाजपा क्या देती है, मुझे नहीं पता, लेकिन मैंने तो 18 साल की ही उम्र से ही अपने पिताजी तक से पैसा नहीं लिया।

दूसरी बात अपना लेख पढ़ने का अनुरोध इस लिए किया कि किसी विषय पर विमर्श का एक शुरआती विंदु होना चाहिए, जिस पर बहस से समझ समृद्ध करने में मदद मिलती है। यह लेख पढ़ने के लिए यह बताने के लिए नहीं कहा कि मैं लेखक हूं, इसकी जरूरत नहीं है। मैं तो लंबे समय तक कलम की मजदूरी से घर चलाया है। यह लेख भी इसलिए शेयर किया कि लोग सनातन का भजन गाते रहते हैं, बताते नहीं कि सनातन क्या है?

'हमारे आदिम पूर्वजों ने विवेक के इस्तेमाल से खुद को पशुकुल से अलग किया' मेरे इस वाक्य से आप असहमत हैं, आपकी असहमति का स्वागत है, लेकिन असहमति की सकारण व्याख्या न की जाए तो ठीक है वरना ऐसी बात फतवेबाजी होती है। आपका कहना कि चर्चा यह नहीं बल्कि यह है, कि सनातन धर्म क्या है। सनातन का मतलब शाश्वत है और शाश्वत केवल परिवर्तन है, इसे समझने के लिए मानव विकास का इतिहास समझना जरूरी है, जिसकी शुरुआत आदिम मानव की पशुकुल से भिन्नता से हुई।

लगता नहीं आपकी रुचि गंभीर विमर्श में है, बल्कि शब्दाडंबर के बवंडर से किसी को छोटा दिखाने में है। दूसरों को छोटा दिखाकर बड़ा बनने के प्रयास में व्यक्ति बौना दिखता है। सादर।

लल्ला पुराण 331 (सनातन)

 एक सज्जन ने एक चर्चा में कहा कि क्या मैं वामपंथी विचारक नहीं हूं और वे सनतनी हिंदुत्ववादी? उस पर:


वामपंथ की ऐतिहासिक उत्पत्ति और अवधारणा के अर्थ में हर जनपक्षीय परिवर्तनकामी वामपंथी है, इस अर्थ में मैं वामपंथी हूं, लेकिन आप क्या हैं यह आप ही जानें। सनातन का मतलब है, शाश्वत, अनादि अनंत। इसलिए हिंदुत्व सनातन नहीं, उपनिवेश विरोधी विचारधारा के रूप में विकसितहो रहे भारतीय राष्ट्रवाद को विखंडित करने के लिए औपनिवेशिक शह पर जन्मी-विकसित आधुनिक सांप्रदायिक विचारधारा है। लेकिन विमर्श विषय पर होना चाहिए, विचारक की वैचारिक निष्ठा पर नहीं।

लल्ला पुराण 330 (सनातन)

 एक सज्जन सनातन पर विमर्श में एक पोस्ट डाला जिसमें उन्होंने लिखा एक वामपंथी से सनातन पर विमर्श और कि मैं उन्हें सनातन पर अपना लेख ऐसे पढ़ने को कह रहा हूं, जैसे कि वे मेरे छात्र हों। उस पर :


Aditya Kumar की पोस्ट का जवाब

पहली बात आपका शीर्षक दुराग्रह पूर्ण है, एक सदस्य से विमर्श की जगह एक वामी से विमर्श , विषय पर बात करना आपका पूर्वाग्रह दर्शाता है। यह पूछने पर वामी क्या होता है, कुछ ऊट-पटांग बोलने लगेंगे। आप स्वस्थ विमर्श की बजाय प्रकारांतर से व्यक्ति को एक फैसलाकुन कोष्ठक में बंद करके शुरुआत कर रहे हैं, मैं कई बार कह चुका हूं कि मैं किसी पार्टी का सदस्य नहीं हूं, लेकिन 'आपको कम्युनिस्ट पार्टी से पैसा मिलता होगा' किस्म की बाद निराधार, निंदनीय, आपत्तिजनक निजी आक्षेप है। आपको भाजपा क्या देती है, मुझे नहीं पता, लेकिन मैंने तो 18 साल की ही उम्र से ही अपने पिताजी तक से पैसा नहीं लिया।

दूसरी बात अपना लेख पढ़ने का अनुरोध इस लिए किया कि किसी विषय पर विमर्श का एक शुरुआती विंदु होना चाहिए, जिस पर बहस से समझ समृद्ध करने में मदद मिलती है। यह लेख पढ़ने के लिए यह बताने के लिए नहीं कहा कि मैं लेखक हूं, इसकी जरूरत नहीं है। मैं तो लंबे समय तक कलम की मजदूरी से घर चलाता रहा हूं। यह लेख भी इसलिए शेयर किया कि लोग सनातन का भजन गाते रहते हैं, बताते नहीं कि सनातन क्या है?

'हमारे आदिम पूर्वजों ने विवेक के इस्तेमाल से खुद को पशुकुल से अलग किया' मेरे इस वाक्य से आप असहमत हैं, आपकी असहमति का स्वागत है, लेकिन असहमति की सकारण व्याख्या न की जाए तो वह फतवेबाजी होती है। आपका कहना कि चर्चा यह नहीं बल्कि यह है, कि सनातन क्या है। सनातन का मतलब शाश्वत है और शाश्त केवल परिवर्तन है, इसे समझने के लिए मानव विकास का इतिहास समझना जरूरी है, जिसकी शुरुआत आदिम मानव की पशुकुल से भिन्नता से हुई।

लगता नहीं आपकी रुचि गंभीर विमर्श में है, बल्कि शब्दाडंबर के बवंडर से किसी को छोटा दिखाने में है। दूसरों को छोटा दिखाकर बड़ा बनने के प्रयास में व्यक्ति बौना दिखता है। सादर।

PS सनातन पर उपरोक्त लेख का लिंक नीचे है।

राजपथ से कर्तव्यपथ

यह राजा राजपथ का नाम कर्तव्य पथ रखकर
गरीब-गुरबा, रेड़ी-पटरी वालों को वहां से भगाकर
शासक वर्गों की करनी-कथनी के शाश्वत अंतर्विरोध के
ऐतिहासिक दोगलेपन को पुष्ट करता है
चाय वाले अतीत का शगूफा छोड़कर
लाखों के कई परिधान दिन में कई बार बदलता है
जब भी निकलता है सैर करने के लिए
शहर की सारी सड़कें बंद करवा देता है
सारे सरकारी उपक्रम अपने पसंदीदा धनपशुओं को देता है
औपनिवेशिक शासन की दलाली में उसकी शह पर
उपनिवेश विरोधी विचारधारा के रूप में उभरते
भारतीय राष्ट्रवाद को विखंडित करने वाले
अपने वैचारिक पूर्वजों के पद चिन्हों पर चलते हुए
भूमंडलीय साम्राज्यवाद की सेवा में देश की संप्रभुता और जमीर बेचता है।
जहां तक सवाल है पांच सितारा होटलों में बैठकर
जनवाद की कविता लिखने वाले पाखंडी कवियों की
तो ऐसे सारे-के-सारे कवि राजा के पालतू बन गए हैं
और अंधभक्ति में राजा के महिमामंडन के भजन गाते हैं
जहां तक राजाओं के आने-जाने का सवाल है
तो इसके पहले भी खुद को खुदा समझने वाले
बहुत से राजा आए और गए
यह भी जाएगा और राजाओं के आने-जाने का सिलसिला जारी रहेगा
जब तक आवाम को राजा का पद अनावश्यक नहीं लगने लगता
और बिना राजा के अपना राज-काज खुद संभाल नहीं लेता।

(ईमि: 15.09.2023)

कविता को लकवा नहीं मार गया है

कविता को लकवा नहीं मार गया है
कविता लिखी जा रही है
लेकिन लुक-छिप कर
क्योंकि राजा को कविताएं नापसंद है
कविताएं पढ़ी जा रही हैं
लेकिन लुक-छिप कर
क्योंकि राजा को पसंद नहीं है कविता का पढ़ा जाना
वक्त करीब आ गया है
जब कविता खुले आम लिखी और पढ़ी जाएंगी
और कविता नापसंद कर देगी राजा को
गोरख ने लिखा कि तमाम धन दौलत-गोला बारूद के बावजूद
वह डरता है कि निहत्थे लोग उससे डरना न बंद कर देंगे
उसी तरह जिस दिन कविता नापसंद कर देगी राजा को
वह डरने लगेगा कविता से
और डर कर भाग जाएगा
देश लूटकर भाग चुके अपने किसी धनपशु के पास
जो इसी की कृपा से पहले ही कहीं दूर-देश में बस गए हैं
किसी-न-किसी सुरक्षित विदेश में।
(ईमि: 15.08.2023)

Friday, September 15, 2023

शिक्षा और ज्ञान 323 (सोसल मीडिया)

 सोसल मीडिया के प्लेटफॉर्म विमर्श यानि बहस-मुहावसे के लिए ही हैं, अनजानेे में किसी की बात सेअवमानना की अनुभूति होो तोो ्लग बात है, लेकिन हम लोग इतने समझदार त हैं ही कि जानबूझकर की गई अवमानना और अनजाने में हो गी अवमानना में अंतर समझ सकते हैंं, अनजाने में हो गयी गलती के लिए माफी मांग लेनी चाहिए। जानबूझ कर निजी आक्षेप या रटे भजन के विषयांतर से विमर्श विकृत करना बौद्धिक अपराद है। मैं तो जानबूझकर अवमानना करनेे वालों कोो ब्लॉक कर देता हूं, ऐसेे अवांछनीय तत्वों से उलझकर अपना समय क्यों नष्ट करें। किसी की बात का खंडन कही गयी बात की तथ्य-तर्कों पर आधारित आलोचना से होनी चाहिए। निजी आक्षेप भी तथ्य-तर्कों के आधार पर होनी चाहिए। किसी से यह कहना कि इस पर लिखते हैं, इसपर क्यों नहीं? किस्म केेे अनर्गल सवाल अवमानना की ही कोटि में आतेे हैं। फरियाना-निपटना बुद्धिजीवियों का नहीं बाहुबलियों का काम है। किसी से बहुत दिक्कत होो तो ब्लॉक का ऑप्सन है।

लल्ला पुराम 329 (ब्राह्मणवाद)

 मैं कभी कोई अनावश्यक बात नहीं करता, जबकोई संदर्भ होता है तो उस पर कमेंट करता हूं मैं कभी किसी धर्म के देवी-देवताओं; पैगंबरों-अवतारों के बारे में कोई अपमानजनक बात नहीं करता मै नास्तिक हूं, न भगवान को मानता हूं न धर्म, लेकिन धार्मिकों से मुझे कोई दिक्कत नहीं है, मेरी पत्नी बहुतधार्मिक हैं। धार्मिकता की आड़ में धर्मोंमादी उंमाद या फिरकापरस्ती का विरोध करता हूं, और अपनी बात तर्क-तथ्य के आधार पर रखता हूं, जिस विषय में जानकारी नहीं होती चुप रहता हूं, या पूछ लेता हूं। अच्च कोटि के नीचता के आक्षेपों का जवाब भी यथा संभव शिष्ट भाषा में ही देता हूं, अलिखे पर सवाल करना जहालत है, किसी व्यक्ति को जाहिल नहीं कहता। ब्राह्मणवाद वर्णाश्रम की विचारधारा है जो व्यक्तित्व का मूल्यांकन विचारों के नहीं जन्म के आधार पर करती है, जिसे मैं अवैज्ञानिक और अमानवीय मानता हूं। ऐसा करने वाले अब्राह्मण नवब्राह्मणवादी हैं जो सामाजिक चेतना के वैज्ञानिककरण (जनवादीकरण) के रास्ते के उतने ही बड़े गतिरोधक हैं जितने ब्राह्मणवादी। हर बात पर रटा भजन गाने वालों के लिए अंधभक्त से बेहतर शब्द मिलेगा तो उसकी जगह वह कहूंगा। मैं तो इस ग्रुप का माहौल देखकर ही बाहर हो गया था, स्वयं या किसी के कहने पर आपने और अमितमिश्र ने आग्रह किया तो फिर आ गया। जिससे ज्यादा परेशानी होती है, उसपर समय नष्ट करने की बजाय उसे ब्लॉक कर देता हूं। वर्णश्रम विचारधारा के बौद्धिक संरक्षक ब्राह्मण रहे हैं इसीलिए इसे ब्राह्मणवाद कहा जाता है।

Thursday, September 14, 2023

लल्ला पुराण 328 (एजेंडा)

 मैंने अलिखे के सवाल की बजाय लिखे पर सवाल करने के अनुरोध के साथ एक पोस्ट शेयर किया कि कुछ लोग जो लिखा जाए उस पर सवाल करने की बजाय पूछने लगते हैं कि इस पर क्यों नहीं लिखते। अपना विषय चुनने का अधिकार लेखक का होता है, अपनी रुचि के विषय पर आप लिखिए। उस पर एक सज्जन ने कमेंट किया,


'Ish सर मने कसम खा लिए हैं कि कुरान, इस्लाम पर नही बोलेंगे? मानवता के शिक्षक को मात्र सनातन वाली पाठ आती है इसमे कोई अचरज नही है क्योंकि एजेंडा भी कोई चीज होती है।'

उसका जवाब:

संदर्भ-प्रसंग के अनुसार कुरान, इस्लाम पर भी बोलते हैं, अंधभक्त तो हैं नहीं कि बिना संदर्भ-प्रसंग किसी भी बात पर रटा भजन गाते रहेंगे! मानवता का शिक्षक मानवता की सेवा में जरूरत के अनुसार हर तरह का पाठ पढ़ाता है। सनातन का संदर्भ था और कुंदबुद्धि अंधभक्त बिना जाने कि सनातन क्या है, सनातन का भजन गा रहे थे। जैसे वाम के दौरे से पीड़ित रोगी वाम क्या है, पूछने पर आंय-बांय करते हैं, वैसे ही सनातन का भजन गाने वालों से पूछने पर कि सनातन क्या है? मुझे लगा सनातन पर गंभीर विमर्श होना चाहिए, तो एक छोटा सा गंभीर लेख लिखकर शेयर किया। सनातन का भजन गाने वाले अंधभक्त वहां से गायब, जिस तरह जब भी वाम पर गंभीरर विमर्श शुरू किया तो वाम के दौरे से पीड़ित रोगी या तो गायब होते थे या गाली-गलौच से अपनी कुंठा निकालते थे। एजेंडा तो सबका होता है, बिना संदर्भ कुरान, इस्लाम की रट लगाना या हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से सांप्रदायिक नफरत फैलाना भी एजेंडा है। हमारा तो खुला एजेंडा है जनपक्षीय चेतना और सामाजिक सौहार्द के प्रसार से मानवता की सेवा। सांप्रदायिक मानसिकता वालों का एजेंडा है, चुनावी ध्रवीकरण के लिए हिंदू-मुस्लिम नरेटिव के नफरती भजन से समाज की सामासिक संस्कृति का विखंडन और स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व की भावना की संविधान की आत्मा पर प्रहार। जनतांत्रिक राज्य में संविधान के प्रति निष्ठा ही राष्ट्रवाद होता है। कोई भी काम, खासकर लेखन या व्याख्यान निरुद्देश्य नहीं होता, मैं तो हमेशा सोद्देश्य (यानि एजेंडा के अनुरूप) ही लिखता हूं। ऐंटोव चेखव का एक वक्तव्य है, 'कला के लिए कला' अपराध है। वह सभी बातों पर लागू होता है। जीने के लिए जीना अपराध है। सादर, उम्मीद है, आगे से अलिखे के रटे सवाल की बजाय लिखे पर सार्थक विमर्श से लोगों की ज्ञान की जिज्ञासा शांत करने में मदद करेंगे और मानवता की सेवा का एजेंडा अपनाएंगे। सादर।

Wednesday, September 13, 2023

बेतरतीब 153 (ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध पर सवाल)

 बुद्ध पर एक चर्चा में एक सज्जन ने पूछा क्या बुद्ध भक्क से पैदा हो गए, मैंने कहा कि आत्मावलोकन, आत्मैलोचना, अनुभव, चिंतन-मनन और विर्श की लंबी प्रक्रिया के बाद गौतम, बुद्ध बने। उन्होने पूछा पेड़ के नीचे अकेले किसे विमर्श करते थे, मैंने कहा अपने आपसे । खुद से बात करना बहुत मुश्किल होता है, उन्होंने बताया कि एक दिन आइने के सामने कोई विदेशी भाषा सीख रहे थे और कोई गलती नहीं हुई। उस पर कमेंट:

यह खुद से बात करना नहीं हुआ। आइने के सामने भाषा सीखना खुद से बात करना नहीं हुआ। खुद से बात करने के लिए गंभीर आत्मावलोकन और निर्मम आत्मालोचना की जरूरत होती है। जो मुश्किल काम है, लेकिन जैसा मैंने कहा, आसान काम तो हर कोई कर सकता है। मेरी याद में मैंने ऐसा आत्मावलोकन 9 10 साल की उम्र में अपने ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध पर सवाल करके किया था। नदी के किनारे इमली के बगीचे में घंटों अकेला बैठा था. जब लगा कि और देर होने से लोग खोजने निकल आएंगे। रोचक घटना है फिर कभी लिखूंगा। ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध के दंभ में (हर श्रेष्ठताबोध में दंभ के तत्व होते ही हैं) अपने से लंबे-चौड़े एक लड़के को झोला न ढोने के कारण मारने के लिए बेल्ट निकाल लिया उसके मार खाने से इंकार करने पर (हाथ पकड़ लेने पर) अपमानित महसूस करने कीअमानवीय गलती कर दिया था। 57-58 साल पुरानी बात है याद नहीं अपने से क्या बात कर रहा होऊंगा लेकिन इतना याद है कि खुद से पूछा था कि ब्राह्मण होने में उसका क्या योगदान है? यदि मैं 200 मीटर पश्चिम पैदा होता और वह उतना ही पूरब तो वह मेरी जगह होता और मैं उसकी। तब तो नहीं लगा था, लेकिन अब लगता है कि उस ऐतिहासिक परिवेश और चरण (1965) में सीमित एक्सपोजर वाले 10 साल के संस्कारी ब्राह्मण बालक द्वारा ऐसा आत्मावलोकन और निर्मम आत्मालोचना बड़ी बात थी। शीशे के सामने पढ़ना छोड़कर एकांत (Solitude) तलाश कर (तुम्हारे पास तो मनोरम एकांत की सुविधाएं हैं) अपने आप से बात करो। बहुत आनंद आएगा। इसीलिए तो कहता हूं बाभन से इंसान बनना मुश्किल तो है लेकिन सुखद। और फिर वही आसान काम तो हर कोई कर सकता है।कुछ जरूरी काम से समय चुराकर बहुत लंबा कमेंट लिखा गया। जब मैं हॉस्टल में वार्डन था तो जब कोई लड़का किसी और पर 'ऐक्सन' लेने की बात करता था तो मैं उसे कहता था कि अधिकारी के लिए 'ऐक्सन' लेना सबसे आसान होता है, लेकिन हमने जिंदगी में कभी आसान काम किए ही नहीं।

लल्ला पुराण 327 (बाभन से इंसान)

 बुद्ध पर एकचर्चा में एक सज्जन ने मुझे चिढ़ाने के लिए कहा कि बुद्ध क्षत्रिय से इंसान बन गए होंगे, मंने कहा तभी तो वे बुद्ध हो गए। मैं जन्म के संयोग की अस्मिता से जुड़ी प्रवृत्तियों और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर विवेेेक सम्मत इंसान की अस्मिता हासिल करने के अर्थ में 'बाभन से इंसान बनने का मुहावरा गढ़ा है। एक सज्जन इतने नाराज हुए कि लिखे कि मैं हाथी के घुसने से पैदा हुआ। उसका क्या मतलब है मैं समझ नहीं पाया और लिखा:


हम हाथी या शेर घुसने से नहीं पैदा हुए. मैं तो आम आदमियों की तरह अपने-माता पिता के अंतरंग संबंधों से ही पैदा हुआ, लेकिन यह एक संयोग मात्र है कि कोई किसी विशिष्ट क्षेत्र; विशिष्ट धर्म, विशिष्ट जाति में या स्त्री या पुरुष के रूप में पैदा हो गया. जिसमें कोई उसका कोई योगदान नहीं है तो उस पर न गर्व करना उचित है न शर्म। महत्वपूर्ण यह है कि कहीं भी पैदा होकर कौन क्या करता है; क्या सोचता है; उसका परिप्रेक्ष्य क्या है -- मानवता की सेवा का या उसे खंडित-मंडित करने का; तर्क और विवेक का या उंमादी धर्मोमाद का। हाथी और मनुष्यों के जीववैज्ञानिक संबंधों को ही नहीं, हम तो बहुत कुछ नहीं जानते और बहुत कुछ नहीं पढ़ा पाए, न आप जैसे ज्ञानी हैं, न ही शानी। वैसे भी हमने कभी जीवविज्ञान नहीं पढ़ा। सहज बोध और परिवेश से हासिल जानकारी के अनुसार मनुष्य स्त्री-पुरुष के संबंधों से पैदा होते हैं और कहां पैदा हो गए, वह महज एक जीववैज्ञानिक संयोग है, जिसे जीववैज्ञानिक दुर्टना कहना जन्म देने वाले माता-पिता की अवमानना नहीं है, उनकी मासूमियत का वर्णन है कि वे जानते ही नहीं कि उनकी अंतरंगता के परिणामस्वरूप कब और कौन पैदा होगा।

Tuesday, September 12, 2023

बेतरतीब 152 ( इस पर क्यों नहीं लिखते)

मेरे किसी कमेंट पर प्रतिक्रिया बिना किसी संदर्भ के मुझे ज्ञान का सागर होने का सम्मान देते हुए पुष्पा जी ने वही सलाह दिया जो बहुत से लोग किसी भी विषय की पोस्ट पर देते रहते हैं कि मुझे इस्लाम; तीन तलाक और भाई-बहन की शादी आदि पर लिखना चाहिए। उस पर:
हम कोई ज्ञान भंडार नहीं हैं, न ही कोई अंतिमज्ञान है। ज्ञान कोई इकाई नहीं है न ही कोई निश्चित अवधारण, ज्ञान अवधारणा नहीं, प्रक्रिया है: एक अनवरत प्रक्रिया। यह परिवर्तनशील, आनादि-अनंत प्रक्रिया ही शाश्वत है; यही सनातन है। जहां तक इस्लाम पर लिखने की बात है तो जरूरत पड़ने पर लिखता ही रहता हूं। तीन तलाक पर तो छपा हुआ आर्टिकल शेयर कर चुका हूं। रटा भजन गाने वाले अंधभक्त नहीं हैं कि बिना संदर्भ कोई रटा भजन गाने लगें। जहां तक भाई-बहन की शादी की बात है रिश्तेके भाई-बहनों (कजिन्स) में शादी का रिवाज कई और समुदायों में भी है। अजीब कठमुल्लापन है, लिखे पर प्रतिक्रिया देने की बजाय अलिखे पर लिखने का तंज कीजिए।वैसे मेरे लिए लिखना बहुत मुश्किल काम है,जितना लिखना चाहता हूं. उतना लिख लेता तो विद्वान कहलाने लगता। (एक किताब का एक चैप्टर पूरा करने में बीरबल की खिचड़ी पकने जितना टाइम लग रहा है।)
कृपया इस बात को अपने ऊपर मत लीजिएगा, यह सवाल बहुत लोग पूछते हैं, इस पर लिख रहे हैं तो इस पर क्यों नहीं लिखते? लेकिन समझ में नहीं आता कि ये कैसे पढ़े-लिखे लोग हैं जो लिखे की समीक्षा; खंडन-मंडन की बजाय अलिखे पर लिखने का रटा सवाल दुहराते रहते हैं। मुझे जिस पर लिखने की जरूरत होगी या जिसका संदर्भ होगा, उस पर लिखूंगा। तीन तलाक पर बहस चली लगा, लगा लिखना चाहिए लिखने का समय निकाला। सनातन पर विवाद चल रहा है, मुझे लगा कि कि सनातन पर अपनी समझ शेयर करना चाहिए कर दिया। (इसका दूसरा ड्राफ्ट बनाने का समय निकाल पाया तो इसे संवर्धित-परिवर्धित करने की कोशिश करूंगा) पोस्ट की विषय प्रस्तुति (प्रजेंटेसन) पर अपनी राय दें, निर्म आलोचना करें। मैं निर्मम आलोचना का हिमायती हूं; निर्मम आत्मालोचना का भी। उचित बौद्धिक विकास के लिए आत्मालोचना अनिवार्य है। आपकी राय अपना लेखन सुधारने के लिए मेरे लिे महत्वपूर्ण होगी।
बाकी जो आपको लगे कि इस पर और कोई क्यों नहीं लिख रहा है, उस पर आप खुद क्यों न लिखें, बस जानकारी इकट्ठा करके उन्हें ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य में रखना होता है। मेरे लिए लिखना इतना आसान होता तो प्राचीन यूनानी चिंतक अरस्तू की तरह दुनिया के सब विषयों पर लिख चुका होता। तो विनम्र निवेदन है कि जो लिखता हूं या लिख पाता हूं, उसे पढ़ने का मन न हो तो पढ़कर बता दीजिए कि इसमें क्या गड़बड है, और मैं पोस्ट डिलीट कर दूंगा। बाकी मुझसे लिखने के लिए कहने की बजाय आप खुद लिखें, लिखने में मैं आपकी मदद कर सकता हूं, शोध यानि जानकारी जुटाने का काम आपको खुद करना पड़ेगा।

बेतरतीब 151 (जनेऊ)

 हमारे गांव में तो जनेऊ केवल सवर्णों का होता था, ठाकुरों का शादीके पहले, ब्राह्मणों का बचपन में। मेरा जनेऊ 9 साल में (10 साल का होने के 2-3 महीने पहले) हो गया था। 12-13 साल की उम्र तक अनावश्यक लगने लगा और निकाल दिया। 12 साल में गांव से मिडिल पास कर शहर (जौनपुर) में हॉस्टल में रहने लगा। मैं जब घर आता दादाजी (बाबा) मंत्र पढ़कर पहना देते, मैं ट्रेन पकड़ने निकलते वक्त निकालकर गांव के बाहर किसी पेड़ में टांग देता। 5-7 बार के बाद बाबा ने मान लिया कि अब लड़का हाथ से गया और बंद कर दिया। मैंने किसी क्रांतिकारी चेतना के तहत नहीं, चुर्की (चुटिया) की ही तरह अनावश्यक समझ जनेऊ से मुक्ति ली थी। एक पिछड़े गांव के सीमित exposure वाले 12-13 साल के बालक की सामाजिक चेतना इतनी नहीं होती कि सैद्धांतिक सोच-विचार के बाद ऐसा करता। 9-10 साल की उम्र की एक घटना से ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध पर थोड़ा मंथन जरूर करता था।

Monday, September 11, 2023

शिक्षा और ज्ञान 322 (सनातन)

 सनातन क्या है?

ईश मिश्र
सनातन का शाब्दिक अर्थ है शाश्वत यानि अनादि-अनंत। लेकिन दुनिया की हर वस्तु अनवरत परिवर्तन की स्थिति में रहती है, यदि शाश्वत कुछहै तो वह है परिवर्तन। इंसान भी हमेशा से नहीं रहा है और अभी तक के मानव विकास का ज्यादा हिस्सा आदिम अवस्था का है। हमारे आदिम पूर्वजों ने अपनी प्रजाति-विशिष्ट प्रवृत्ति, विवेक के इस्तेमाल से अपनी आजीविका का उत्पादन शुरूकर खुद को पशुकुल से अलग किया। आजीविका के उत्पादन के लिए हाथों को पहला औजार बनाया और फिर लकड़ी, पत्थर, धातुओं के इस्तेमाल से नए-नए औजारों का अन्वेषण-निर्माण करते पाषाण युग से साइबर युग तक पहुंच गए। सबसे लंबी अवधि की आदिम अवस्था रही, लाखों साल। मानव सभ्यता का इतिहास तो कुछ हजारों साल ही पुराना है अवस्था प्राकृतिक आपदाओं और जंगली जानवरों से सुरक्षा के लिए, लंबे समय तक वनमानुष अवस्था के बाद जब मनुष्य समूहों में रहने लगे तथा संकेतों और ध्वनियों से न्यूनतम पारस्परिक संवाद करने लगे। भाषा का अन्वेषण एक अति क्रांतिकारी अन्वेषण था तथा शिकारी अवस्था के युग में तीर धनुष का अन्वेषण उतना ही क्रांतिकारी था, जितना आज के युग में साइबर स्पेस का। इसके विस्तार में जाने का अभी समय नहीं है, इसके लिए मैं नीचे एक लिंक शेयर करता हूं जिसमें पद्य में आदिम युग का वर्णन है। मैंने 2011 में मजदूरों और छात्रों के लिए पद्य में ऐतिहासिक भौतिकवाद पर एक पुस्तिका की योजना बनाया, जिसका एक खंड (आदिम साम्यवादी उत्पादन पद्धति) पूरा कर लिया था, चार ही रह गए थे, तब से बैठ नहीं पाया पता नहीं फिर कभी उसे पूरा करने बैठूंगा कि नहीं। कहने का मतलब हमेशा से कुछ नहीं रहा है न हमेशा कुछ रहेगा। प्रकृति का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है। कहने का मतलब परिवर्तन के सिवा न कुछ अनादि है न कुछ अनंत, अर्थात केवल परिवर्तन ही शाश्वत है यानि परिवर्तन ही सनातन है।

जब इंसान ही हमेशा से नहीं रहा है, कुछ लाख साल पहले ही विकसित हुआ तथा सभ्यता कुछ हजार साल पहले। तो धर्म की बात ही क्या? मानव इतिहास के लिहाज़ से यह परिघटना तो कल की बात है। यानि मनुष्य की परिवर्तन की जिज्ञासा ही सनातन है। नया ज्ञान हासिल करक् पुरातन को खारिजकर नूतन के निर्माण की अनवरत प्रक्रिया ही सनातन है। यह प्रक्रिया हर युग में नए संघर्ष को जन्म देती है। यह संघर्ष ही सनातन है। परिवर्तन-केंद्रित मानव सभ्यता के विकास के क्रम में नए ज्ञान के आधार पर नए सत्य के अन्वेषण के संघर्ष ही सनातन हैं। इस क्रम में वेद, बाइबिल, कुरान जैसी पवित्र माने जाने किताबें ही नहीं ईश्वर का अस्तित्व भी ख़ारिज हो जाता है। जैसा कि लोकायत, जैन,बौद्ध, सांख्य जैसे दर्शनों ने किया। या विभिन्न देश-कालों में चार्वाक, सुकरात, कबीर, रैदास, नानक, मार्क्स, पेरियार और भगत सिंह आदि लोगों ने ने किया। यूरोप के नव जागरण और प्रबोधन क्रांतियों ने तथा भारत में कबीर-नानक तथा भक्ति आंदोलनों ने जन्म या अन्य आधारों पर मनुष्य-मनुष्य में भेद-भाव की ल्यवस्थाओं को खारिज कर नूतन का निर्माण किया चाहे पुरातन के पक्ष में कितने ही धर्मशास्त्रीय प्रमाण हों। यानि सत्य और न्याय के संघर्ष की प्रक्रियाओं की निरंतरता ही सनातन है। धर्मांधता का भजन सनातन विरोधी है। पुरातन के विरुद्ध नूतन के निर्माण की परिवर्तनकामी प्रक्रिया ही सनातन है, बाकी पाखंड। जय सनातन। आदिम समाज में विकास क्रम के लिए नीचे कमेंट बॉक्स में लिंक देखें।

Friday, September 8, 2023

लल्ला पुराण 326 (हिंदुत्व)

 हिंदुत्व संस्कृति नहीं, इस्लामी सांप्रदायिकता के पूरक के रूप में औपनिवेशिक शासकों की शह पर निर्मित एक सांप्रदायिक, फासीवादी विचारधारा है। कवि की उड़ान हमेशा इतिहासपरक नहीं होती। मर्दवाद, नस्लवाद, जातिवाद की ही तरह सांप्रदायिकता भी कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही यह वसुधैव कुटुंबकं की तरह कोई विचार है जो पीढ़ी-दर पीढ़ी हम तक चली आई है, सांप्रदायिकता विचार नहीं, विचारधारा है जो हम अपने रोजमर्रा के व्यवहार और विमर्श में निर्मित और पुनर्निर्मित करते हैं। इसका निर्माण बांटो-राज करो की औपनिवेशिक नीति के तहत ऐतिहासिक कारणों से हुआ और भविष्य में ऐतिहासिक कारणों से ही इसका अंत भी संभव ही नहीं अवश्यंभावी है। कभी-न-कभी बर्लिन वाल की ही तरह बंगाल और पंजाब में बनी कृतिम सीमा रेखाएं भी ध्वस्त होंगी। प्राचीन काल में यूनानियों ने सिंधु (इंडस) घाटी क्षेत्र को इंडिया कहना शुरू किया जो उच्चारण के कारणों से अरबी में हिंदू हो गया। कालांतर में भौगोलिक पहचान सामुदायिक पहचान में बदल गयी । वैदिक संस्कृति के लोग हिंदुस्तान में नहीं, बलूचिस्तान से हरयाणा तक फैले सप्तसैंधव (आर्याव्रत) क्षेत्र में रहते थे। एक राजनैतिक इकाई के रूप में हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग सबसे पहले मुगल साम्राज्य के लिए मुगलकाल में हुआ।

लल्ला पुराण 325 (बाभन से इंसान बनना)

 जिनके पास गर्व करने को कुछ नहीं होता वे अपने जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना पर ही गर्व कर सकते हैं। तथाकथित आचार्य कुल के ये वंशज इतने मूर्ख और अनपढ़ होते हैं कि मुहावरे को गाली समझते हैं। बाभन से इंसान बनना जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उठकर विवेकसम्मत इंसान की अस्मिता हासिल करने का मुहावरा होता है। लेकिन रटा भजन गाने वाले अंधभक्तों का साहित्य से क्या लेना-देना? बाभन से इंसान बनने में हिंदू-मसलमान या अहिर-भूमिहार आदि से इंसान बनना भी शामिल है। इनका इतिहासबोध इतना अफवाहजन्य होता है कि बिना परिभाषा जाने कभी वाम के दौरे से पीड़ित रहते हैं तो कभी स्टालिन के भूत से प्रताड़ित हो अभुआने लगते हैं। बाभन से इंसान बनना मुश्किल जरूर है, लेकिन सुखद।

Thursday, September 7, 2023

मैं तो इस कविता के लिए नारे लगा सकता हूं कि

 Vishnu Nagar की एक उत्कृष्ट कविता पर तुकबंदी में कमेंट --


मैं तो इस कविता के लिए नारे लगा सकता हूं कि
अच्छी कविता कैसी हो हंसने की तरह रोने जैसी हो
प्रोफेसनल नारेबाज होने के नाते यही कर सकता हूं
अन्याय के विरुद्ध न्याय के लिए नारे लगा सकता हूं
एक बार एक अभूतपूर्व भूतपूर्व क्रांतिकारी ने पूछा था
कि कब तक करता रहूंगा इसी तरह की नारेबाजी
जब तक अपने अपने अपने हिस्से के नारे सब नहीं लगाते--
पद-प्रतिष्ठा के लिए नारे बेच चुके अभूतपूर्वों और भूतपूर्वों समेत।

पहले वे क्रांतिकारी थे जब बुद्धिजीवियों में मार्क्सवाद का फैशन था
फिर वे भूतपूर्व हो गए जब फैशन चला भूतपूर्व होने का।

वे अभूतपूर्व रूप से नए फैशनों के शौकीन है
नूतन के लिए पुरातन का त्याग नियम है द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का
जब नया फैशन चला भूतपूर्व होने का, बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद
उन्होंने उतार फेंका चोला मार्क्सवाद का और भूतपूर्व हो गए।
पहले वे ककहरे में पढ़ाते थे क से होता है कम्युनिस्ट
परिवर्तन प्रकृति का नियम है और वे अपवाद नहीं बनना चाहते
करते हुए प्रकृति के नियम का पालन पढ़ाने लगे क से कांग्रेस
जब चढ़े ऊंचे पद पर पुराने मनमोहक निजाम में
एक और नियम है द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का
अनवरत क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन परिपक्व होकर
तब्दील हो जाता है गुणात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन में
क से ककहरा पढ़ाना पुराने भारत की रिवाज था
नए भारत में वे अब पढ़ाने लगे म से ममहरा।

कलम ने आवारगी में भूमिका में टेक्स्ट को नजरअंदाज कर दिया
मैं द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियमों को धता बताते हुए
क्रमिक और क्रांतिकारी परिवर्तनों को नकारते हुए
अब भी नारेबाज ही हूं नहीं हुआ अभूत या भूतपूर्व
नारेबाज का नारेबाज ही बना रहा और नारा लगाता हूं
अच्छी कविता कैसी हो हंसने की तरह रोने जैसी हो
जब हमारी नतिनियां पूछेंगी यह सवाल की क्या कर रहा था
जब हो रहा था आवाम पर अभूतपूर्व जुल्म
मेरे पास पहले से ही तैयार जवाब होगा
नारेबाजी कर रहा था जुल्म के खिलाफ
(ईमिः 07.09.2023)

Tuesday, September 5, 2023

बेतरतीब 150 ( मेहा का जन्मदिन)

 कल मेरी बेटी Meha का जन्मदिन था, फोन पर तो परसों रात और कल शाम ही बधाई और शुभकामनाएं दे दी। 20 दिन बाद (23 सितंबर, 2023) उसके जीवन का बड़ा दिन है। स्त्रीवाद पर उसकी फिल्म "F for Equality" की Chicago South Asian Film Festival में स्क्रीनिंग है। मानवता की सेवा में पढ़ते-लड़ते-बढ़ते रहने की शुभ कामनाएं।

कल कल रात से ही उसे फेसबुक पर सार्वजनिक बधाई देने की सोचा लेकिन उसके जन्म की खबर मिलने पर खुशी के इजहार और बचपन से बड़ी होने तक की कुछ घटनाओं के बारे में सोचते-सोचते सो गया, वैसे शिकागो में 3 सितंबर की शाम अब शुरू होगी, तो उस लिहाज से अभी देर नहीं हुई है।

उस समय मोबाइल का जमाना नहीं था, उसके पैदा होने की खबर 2-1 दिन बाद मिली और जेएनयू के दोस्तों के साथ पार्थसारथी प्लैटो पर खूब जश्न मनाया। उसके पैदा होने के anticipation में मैंने जेएनयू में मैरिड हॉस्टल के लिए अप्लाई कर दिया था। नंबर आने ही वाला था कि जनतात्रिक एडमिसन पॉलिसी की बहाली के लिए जेएनयू के 1983 के ऐतिहासिक आंदोलन में भागीदारी के लिए मॉफी न मांगने के अपराध में जेएनयू के अधिकारियों ने रस्टीकेट कर दिया और बेटी के बचपन के साथ का मामला टल गया। 1983 में यूनिवर्सिटी अनिश्चितकाल के लिए बंद थी तथा 1983-84 ज़ीरो सेसन घोषित कर दिया गया था। 1983 में एमए करने वाले एमफिल के लिए दूसरे (प्रमुखतः दिल्ली विवि) विश्वविद्यालयों में गए। मेरा हॉस्टल से इविक्सन दोहरी छुट्टी के दिन हुआ था, 1983 का 2 अक्टूबर संडे को पड़ा था। भूमिका में टेक्स्ट नहीं खो जाना चाहिए, 1983 की कहानी फिर कभी। लब्बो-लबाब यह कि बेटी के बचपन के साथ का सुख टल गया।

6-8 महीने में घर जाता था तो मुलाकात होती थी वह जानती थी कि मैं उसका बाप हूं, लेकिन प्रोटेस्ट में मेरे पास आने में अरुचि दिखाती थी, तो मैं उसे घर से दूर लेकर चला जाता था, फिर एकमात्र परिचित साथ होने की बात से मिभत्रवत हो जाती थी। अभी तक ताने मारती है कि मैंने 4 साल तक उसे गांव में छोड़ रखा था। इसके बचपन की कई रोचक घटनाएं हैं, फिलहाल दो बताता हूं। एक बार बाग में उसने गाना सिखाने को कहा। मुझे बच्चों का एक ही गाना आता था 'इवन बतूता पहन के जूता निकल पड़े तूफान में, कुछ तो हवा नाक में घुस गय़ी कुछ घुस गयी कान में'। यह उसे तुरंत याद हो गया। उसने और की फरमाइश की, मुझे तो जंग है जंगे आजादी टाइप गाने ही आते थे। मैंने दूसरा गीत फैज का सिखाया, 'हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेगे'। इसे वह बिना बताए मुट्ठी भींच कर गाने लगी। शब्द शैली साथ लाते हैं। बड़ी होने पर जब किसी बात पर कुछ कहता तो कहती, 2 साल के बच्चे को जब जंग है जंगे आजादी सिखाओगे तो जानते नहीं थे कैसी होगी? एक बार खंता-मंता करते हुए मैंने पूछा, तुम्हारे बाप का क्या नाम है, बोली 'ईथ मिश्रा'। मैंने पूछा, मैं हूं तुम्हारा बाप, बोली 'बक'। ऐसा कैसा बाप जो इतने दिनों में मिलने आए।

जब मैं जेएनयू में शोधछात्र था तब डीपीएस आरके पुरम् में गणित पढ़ाता था। 1985 में साकेत में सबलेटिंग का एक फ्लैट किराए पर लिया, जिस दिन बनस्थली से छुट्टी में आई बहन के साथ उसके लिए खटोला देखकर आया उसके अगले और ग्रीष्मावकाश के पहले दिन स्कूल से चपरासी के हाथों नौकरी से बर्खास्तगी की चिट्ठी आ गयी और फिर उस लड़ाई में उलझ गया, जिसकी कहानी फिर कभी। हम कुछ (3) शिक्षकों ने प्रिंसिपल द्वारा कम्प्यूटर टीचर को कम्यूटर चोरी में फर्जी ढंग से फंसाने का विरोध किया था। बाकी दोनों अपेक्षाकृत काफी सीनियर थे। अंततः और 2 साल बाद वह दिल्ली आई और सीधे प्रेप में एडमिसन लेकर स्कूल की पढ़ाई शुरू की।

आप सब से आग्रह कि मेरी बेटी को मानवता की सेवा में आगे बढ़ने, नई ऊंचाइयां गढ़ने-चढ़ने की शुभकामनाएं दें।

जन्मदिन मुबारक हो बेटी, खूब लड़ो-बढ़ो, नई ऊंचाइयां गढ़ो-चढ़ो।

Saturday, September 2, 2023

शिक्षा और ज्ञान 321 (धर्म परिवर्तन)

 A S यह अलग बात है कि धर्म परिवर्तन के बाद भी जातियां बनी रहीं। लेकिन इसमें लोभ किसने दिया? दिमाग में तलवार या प्रलोभन से धर्म परिवर्तन के कुप्रचार का असर इस कदर बैठा हुआ है कि कोई-न-कोई कुतर्क ढूढ़ लेंगे। पहली बात तलवार, भय या लोभ में धर्म परिवर्तन होता तो मुस्लिम सत्ता का केंद्र रहे आगरा और दिल्ली के आस-पास मुस्लिम बहुसंख्यक होते। बंटवारे के पहले भी कश्मीर और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत, बलूचिस्तान, पूर्वी बंगाल को छोड़कर कहीं भी मुसलमान बहुसंख्यक नहीं थे। 2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की आबादी है:


Hindu 81.68%
Muslim 12.86%
Christian 0.87%
Sikh 3.40%

गांधी ने कहा था कि यदि हम अंग्रेजों को ही दोष देते रहेंगे तो गुलाम ही रह जाएंगे, इसीलिए हिंदू क्यों मुसलमान बने या मुट्ठी भर विदेशी आक्रांता क्यों हमें पराजित करते रहे उसके कारण हमें अपने अंदर ढूढ़ना होगा।

1. हिंदू क्या है: ऊंच-नीच जातियों का समुच्चय जिसमें एक अच्छी खासी आबादी के साथ पशुवत व्यवहार होता था। उच्च जातियों के मुट्ठी भर परजीवी कामगर बहुमत को हेय समझता था तथा अवमानना की दृष्टि से देखता था। सांसकृतिक वर्चस्व के चलते 'पराधीनता' भले ही 'स्वैच्छिक' लगे लेकिन हर किसी को आजादी और स्वाधीनता, समानता प्रिय होती हैं। बाबा आदम के जमाने की बात छोड़िए मेरे छात्रजीवन तक हमारे इलाके में वर्णाश्रमी व्यवस्था छुआछूत समेत अपनी सभी विद्रूपताओं के साथ मौजूद थी। अर्थ ही मूल है। कारीगर शूद्र जातियों में आर्थिक आत्मनिर्भरता के बाद सामाजिक स्वाधीनता की भावना जोर पकड़ने लगी। चेतना के उस स्तर में वे धर्म के बिना जीवन की कल्पना न कर सकने के कारण समानता की तलाश में वे धर्म परिवर्तन कर लिए, जाति ने तब भी पीछा नहीं छोड़ा, यह अलग बात है।

2. जिस भी समाज में शस्त्र और शास्त्र का अधिकार मुट्ठी भर लोगों के हाथ में केंद्रित होगा उसे कोई भी पराजित कर सकता है, कुछ हजार घुड़सवारों के साथ नादिरशाह जैसा चरवाहा भी। तुलसीदास ने सही लिखा है, बहुमत सोचता है, "को होवे नृपति हमें का हानी......."

3. सभी धर्म अधोगामी (regressive) होते हैं क्योंकि वे आस्था की बेदी पर विवेक की बलि चढ़ा देते हैं। ब्राह्मण (हिंदू) धर्म सर्वाधिक अधोगामी होता है क्योंकि अन्य धर्मों में समानता की सैद्धांतिक समानता होती है, हिंदू धर्म में वह भी नहीं होती। सब पैदा ही असमान होते हैं। अब ब्रह्मा जी का क्या किया जा सकता है। सैद्धांतिक समानता की चाह में कुछ लोग अन्य धर्मों की तरफ ताकने लगते हैं।

4. शिक्षा पर एकाधिकार से तथाकथित ज्ञान के वर्चस्व के माध्यम से ब्राह्मणवादी वैचारिक वर्चस्व से अमानवीय जातिव्यवस्था सदियों बरकरार रही। पुराण और मिथकों को ही ज्ञान के रूप में पेश किए जाने से, प्राचीन गौरवशाली बौद्धिक परंपराओं के बावजूद लंबे समय तक बौद्धिक जड़ता छाई रही और यूरोप की तरह मध्यकाल मे अंधकार युग छाया रहा। वहां नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियों से अंधे युगका अंधकार छंटने लगा, हमारे यहां कबीर के साथ शुरू हुआ नवजागरण अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। औपनिवेशिक हस्तक्षेप ने प्रबोधन क्रांति की संभावनाओं को खत्म करके औपनिवेशिक शोषण के माध्यम से आधुनिकता थोपा। जब यूरोप में वैज्ञानिक खोज हो रही थी तब हमारे पूर्वज गोबर के गणेश पूजने तथा बालविवाह और सती जैसी पवित्र परंपराओं की सुरक्षा में मशगूल थे।

बहुत लंबा जवाब हो गया। इसे कुछ लोग हिंदू संस्कृति की निंदा कहेंगे, लेकिन बौद्धिक विकास की आवश्यक शर्त है आत्मालोचना।

अंत में उम्मीद है कि तलवार से धर्म परिवर्तन के निराधार, सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से मुक्त होकर चीजों की तार्किक व्याख्या करेंगे।
सादर।

शिक्षा और ज्ञान 320 ( ज्ञान और सवाल)

 गुरुर्देवो भव, गुरुकुल (ब्राह्मणवादी) शिक्षा परंपरा की रीति रही है, बौद्ध परंपरा में गुरु के विचारों को शिष्य द्वारा चुनौती देना आम बात थी, स्वयं बुद्ध के विचारों के विरुद्ध उनके शिष्य खड़े होते थे और शिष्य की तार्किक चुनौती के समक्ष बुद्ध अपने विचारों में तब्दीली भी करते थे। वैसे अरस्तू प्लेटो का आलोचक था और उसका यह कथन कि प्रिय हैं प्लेटो लेकिन उनसे भी प्रिय है सत्य अपने आप में एक क्रांतिकारी वक्तव्य है लेकिन उसका सत्य अपने गुरू प्लेटो के सत्य की तुलना में प्रतिगामी था, वह यथास्थितिवादी था और न केवल स्त्रीविरोधी था बल्कि गुलामी का भी कट्टर पैरोकार था। वह परिवर्तन को बुराई मानता था। अरस्तू के विचारों का विरोध करने का मतलब उसकी विद्वता को नकारना नहीं है। अपने समय का मुश्किल से कोई विषय रहा हो जिस पर उसने लिखा न हो। हमारी परंपरा में गुरू की तो बात ही छोड़िए किसी वरिष्ठ से तर्क करना भी बुरा माना जाता है। बचपन में मेरी छवि पूरे गांव में सबसे अच्छे बच्चे की थी, 14-15 साल का रहा होऊंगा, विद्वान समझे जाने वाले कुटुंब के रिश्ते में एक बाबाजी (दादा ) से किसी मुद्दे पर तगड़ी बहस हो गयी। आप बड़े हैं तो प्रणाम, लेकिन पते में कौन ठकुरई। यह खबर गांव में दावानल सी फैल गयी कि मैं फलां बाबा से सवाल जवाब कर रहा था और एक झटके में मेरी अच्छे बच्चे की छवि चकनाचूर हो गयी। मैं तो अपने ही नहीं सभी बच्चों को हर बात पर सवाल करना सिखाता हूं।