वयस्क बच्चों के वैवाहिक चुनाव की स्वतंत्रता के अधिकार पर तंज करते हुए एक सज्जन ने मुझे संबोधित करके सवाल किया कि क्या बालिग बच्चों को कानून मां-बाप को छोड़ देना चाहिए? और उन्हीं के शब्दों में, "बालिग बच्चों की पूर्ण स्वतंत्रता के समर्थक क्या अपने आचार विचार में भी इसको लाते हैं कि कोरी लफ्फाजी। मेरा एक प्रश्न ये भी है कि कितने माता पिता अपने बच्चों की शादी की व्यवस्था नहीं की और बालिग बच्चों से बोले कि तुम खुद बालिग हो तुमको कैसे, किससे शादी करनी है तुम जानो मुझसे मतलब नहीं। अंत मे जाके पैर न फ़टी बिवाई सो का जाने पीर पराई।"
उस पर :
मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं कही कि बालिग बच्चों को माता-पिता को त्याग देना चाहिए। यह तो माता-पिता और बच्चों की पारस्परिकता पर निर्भर है। बच्चों की सोच बहुत हद तक परवरिश की शिक्षा पर निर्भर होती है। मैंने तो अपनी बेटियों पर कभी कोई नियंत्रण नहीं रखा और दोनों मुझे कष्टदायक हद तक प्यार करने वाली बहुत ही बेहतरीन इंसान हैं। बच्चों को छात्रों की ही तरह प्रवचन से नहीं दृष्टांत से पढ़ाना पड़ता है। वे ध्यान से देखते हैं आप अपने मां-बाप के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और वे भी आपके साथ वैसा ही व्वहार करते हैं। यदि आपको वे घूसखोरी करते देखते हैं तो आपके ईमानदारी के प्रवचन को वे कोई तवज्जो नहीं देते। मैंने उन्हें जाति-पांत में पाला नहीं. न ही जाति या धर्म देखकर इश्क करने की शिक्षा दी। जिनसे उन्हे इश्क हुआ, उनसे उन्होंने शादी किया। बेटी की शादी का आधा खर्च मैंने उठाया आधा लड़के के बाप ने। अपने सिद्धांतों की परीक्षा अपने पर लागू होने पर ही होती है, मैं सभी लड़कियों के चुनाव की स्वतंत्रता के अधिकार का समर्थक हूं और मेरी बेटियां अपवाद नहीं हैं।
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