अजीब बात है, स्त्री दुर्दशा पर पुरुष न बोलें न छुआछूत और दलित उत्पीड़न पर गैर-दलित? कुछ लोग कह रहे हैंंकि जो किसान नहीं हैं वे कृषि कानून पर क्यों बोल रहे हैं? किसान सब वर्गों को जैविक बुद्धिजीवी प्रदान करता है लेकिन अपने लिए नहीं। उसके पैरोकार बुद्धिजीवी पेशेवर (Professional) बुद्धिजीवियों में से ही आगे आते हैं। वैसे भी कृषि तो सबके सरोकार का विषय है क्योंकि अन्न सभी खाते हैं।कृषि संबंधित इस नए कानून का मकसद विश्वबैंक के 1995 के गैट्स के मसौदे की कृषि के कॉरपोरेटीकरण की योजना को पूरा करना है। गौर तलब है कि शिक्षा और कृषि क्षेत्रों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर व्यारिक सेवा और माल के रूप में भूमंडलीय बाजार के लिए खोलने (उदारीकरण) के इस दस्तावेज पर अंगूठा लगाना उटल जी की और मनमोहन की सरकारें की लोक लिहाज में टालती रहीं जिस पर 2015 में मोदी जी नैरोबी जाकर अंगूठा लगा आए। अब महाजन के फरमान पर अंगूठा लगा दिए तो उसे पूरा ही करना पड़ेगा अभी तक पिछले दरवाजे से सरकार दुनिया के सबसे बड़े महाजन की सेवा कर रही थी अब इस नए कृषि कानून तथा नई शिक्षा नीति (जिसे अभी संसद में ध्वनिमत से पारित करना बाकी है, वह भी कृषि विधेयक की तरह राज्यसभा में अल्पमत के बावजूद ध्वनिमत से पास ही कर दी जाएगी) के जरिए खुलेआम कानून। मैं बार बार रेखांकित करता रहा हूं कि उदारवादी,औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और मौजूदा नवउदारवादी वित्तीय साम्राज्यवाद में मूलभूत फर्क यह है कि मौजूदी ईस्ट इंडिया कंपनियों की लूट के राज के लिए अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन गए हैं। किसान अब अपने खेतों में धनपशुओं की मजदूरी करेंगे या शहर जाकर रिक्शा चलाएंगे तथा अडानी अंबानी अब नए जमींदार बनेंगे। कमनिगाह मुगल राजा जहांगीर से व्यापार की इजाजत लेकर मुल्क को अपनी लूट का उपनिवेश बनाने वाली अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1791 में इस्तमरारी बंदोबस्त (Permanent settlement Act) के जरिए कृषिसमुदाय को उनकी जमीनों से बेदखल कर अपने वफादार कारिंदों को उनकी जमीनों का मालिक (जमींदार) जमींदार बना दिया था। उसीके बाद भारत में महामारियों (Famines) के दौर शुरू हुए थे।
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