जैन साहब को इतिहास के अच्छे दिनों के दुर्भाग्यपूर्ण पटाक्षेप के विश्लेषण के लिए साधुवाद। इस समय (938-39) तक गठन के कुछ ही सालों में स्वतंत्रता आंदोलन में सीएसपी (कांग्रेस सोसलिस्रट पार्टी) बहुत मजबूत ताकत बन चुकी थी। बोस के दोनों चुनावों (1938 और 39)में विजय में पार्टी की निर्णायक भूमिका थी जो बात पार्टी का दक्षिणपंथी खेमा हजम नहीं कर पा रहा था। इसी खेमे की जिद से 1948 में सोसलिस्टों को कांग्रेस से अलग होना पड़ा था, वरना आजादी के बाद का भारत का इतिहास थोड़ा अलग और बेहतर होता। गौरतलब है कि अवैध घोषित कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी निजी सदस्य की हैसियत से पार्टी में थे। यह 'मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित' कांग्रेसजनों ने गठित की थी। कांग्रेस की ही तरह, मीनू मसानी, अशोक मेहता की अगुआई में सीएसपी में भी एक दक्षिणपंथी गुट था। लेकिन आचार्य नरेंद्रदेव और जेपी के प्रभाव के चलते ये वैचारिकी को दक्षिमपंथी मोड़ न दे सके। इसी गुट के प्रभाव में पार्टी ने पंत प्रस्ताव पर तटस्थता की कमनिगाही दिखाया जिसके चलते बोस ने अंततः पार्टी छोड़ा। पार्टी में संघर्ष की बजाय फासिस्टों से समझौता बोस की कमनिगाही थी। वामपंथी दृष्टिकोण से 1934-42 भारतीय इतिहास में स्वर्णिम युग था जो कॉमिंटर्न के निर्देश पर कम्युनिस्टों के युद्धविरोधी मंच से निकल कर युद्ध के समर्थन की नीति की कमनिगाही से टूट गया। इसी दौर में किसानो, मजदूरों और छात्रों में जनसंगठन राजनीति के निर्णायक कारक बने। कभी मौका मिला तो 1934-42 के समाजवादी आंदोलन पर विस्तार से लिखूंगा।
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