Saturday, September 12, 2020

फुटनोट 248 ( बेतरतीब भाई-बहन)

 पहले की बातें छोड़िए, हम अपनी पीढ़ी के मां-बाप की बात कर रहे हैं। हमारी बहन तो 6 भाइयों के बाद पैदा हुई थी फिर दूसरी उससे छोटी फिर सबसे छोटा भाई। उस समय नियोजित परिवार की बात कोई नहीं सोचता था। जितने बेटे, उतनी लाठियां। हम 9 भाई-बहन थे। अब 7 हैं। पांचवें नंबर का भाई अद्भुत था, कुश्ती का चैंपियन और एमए का लखनऊ विवि में टॉपर।1988 में 22 वर्ष की आयु में उसकी लखनऊ विवि में हत्या हो गयी। मरणोपरांत पीसीएस लिखित का उसका सकारात्मक परीक्षाफल आया। मेरे बाद के (तीसरे नंबर के) भाई का 1996 में सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया।

हम लोग 6 भाई थे, बहन की कमी खलती थी, मैं 8वीं में 6माही परीक्षा दे रहा था कि किसी से बहन पैदा होने की खबर सुनी, जल्दी जलदी परीक्षा खत्म किया. मिडिल स्कूल 8 किमी दूकर था, लगभग दौड़ते हुए घर पहुंचा लेकिन मां-बच्ची सौर (प्रसवगृह) में थे छठें दिन ही देख पाया। उसके 8वीं के बाद नजदीक हाई स्कूल नहीं था तो पढ़ाई खत्म कराकर शादी की तैयारी होने लगी और उसे पढ़ने बाहर ले जाने के लिए पूरे खानदान से महाभारत करना पड़ा। मेरी निरक्षर मां ही मेरी समर्थक थी, खैर मेरी जिद की विजय हुई और उसने राजस्थान में वनस्थली विद्यापीठ से 9वीं से एमएबीएड तक की पढ़ाई की। हॉस्ल में रहकर पढ़ाई करने वाली वह उस गांव (और शायद क्षेत्र) की पहली लड़की है। यह कोई बाबा आदम के जमाने की नहीं 1982 की बात है। कोई यह पूछ ही नहीं रहा था कि बाहर पढ़ेगी तो पैसा कहां से आएगा? मैं एमफिल जमाकर पीएचडी शुरू ही किया था। तभी मैं कहता हूं कि पिछले 35-40 सालों में स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी (तथा दलित प्रज्ञा और दावेदारी) के अभियान का रथ इतना आगे बढ़ चुका है कि कोई बाप सार्जनिक रूप से नहीं कह सकता कि वह बेटा-बेटी में पर्क करता है। एक बेटे के लिए 4 बेटियां भले पैदा कर ले।

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