मेरी जब छोटी बेटी होने वाली थी तो मैं फ्रीलांस-पत्रकार (बेरोजगार) था, एक विदेशी समाचार एजेंसी के लिए पाक-विस्थापितों (1971 के युद्ध में सिंध तक घुस गयी भारतीय सेना के साथ सीमा पार कर लिए पाकिस्तानी (सिंधी) जो शिमला समझौते का बाद भी वापस नहीं गए) पर एक रिपोर्ट की शोध के लिए बीकानेर-बाड़मेर गया था। वह नियत समय से पहले आ गयी। मेर एक चचेरे भाई के पत्नी ने लेडी हार्डिंग अस्पताल में भर्ती करा दिया संयोग से उस वार्ड में डीपीएस की मेरी एक छात्रा जूनियर डाक्टर थी, मेरा नाम देखकर उसने सरोज जी (मेरी पत्नी) का विशेष ध्यान दिया। यात्रा से वापस पहुंचते ही दूसरी बेटी के आगमन की खबर मिली। अग्रिम के रूप में मिला यात्रा व्यय व्यय हो चुका था। जेब में 10 रूपए बचे थे। बाकी भुगतान रिपोर्ट जमा करने के बाद मिलता। सिद्दांतों का दबाव तगड़ा होता है। बेटा होता तो शायद उत्सव मनाना टाल भी देता। लेकिन लगा कि लोग सोचेंगे कि देखो साला बड़ा स्त्रीवादी बनता है दूसरी बेटी होते ही दब गया। मोटर साइकिल उठाया और सड़क पर पहुंच कर 10 रुपए का पेट्रोल डलवाया (उन दिनों पेट्रोल की कीमत बढ़कर 11 रुपया लीटर हो गयी थी) और पहुंच गया बंगाली मार्केट एक मित्र के दफ्तर। उससे 1000 रु. उधार मांगा, उन दिनों 1000 काफी होता था। उसने कहा, 'इतने पैसे क्या करोगे?' मैंने कहा, 'अबे विश्व बैंक हो गए हो?, बजट के साथ प्रोजेक्ट बनाकर देना होगा? उधार ले रहा हूं, लौटा दूंगा।' उससे पैसे लेकर पालिका बाजार पहुंचा, नवजात के लिए ढेर सारे कपड़े वगैरह लेकर लेडी हार्डिंग पहुंचा तो पता चला डिस्चार्ज होकर मां-बेटी घर जा चुके थे। बंगाली मार्केट से अपने और भाइयों के घरों के लिए मिठाइयां खरीद कर घर लौट कर उत्सव मनाया गया। मैं कभी किसी पत्रिका के एक अंक में एकाधिक लेख लिखा तो एक तो ईश मिश्र की बाईलाइन से छपता दूसरा ईमि के। बेटी का नाम रखने के लिए ज्यादा माथा-पच्ची से बचने के लिए ईमि की 'ई' का 'इ' कर दिया और 'मि' का 'मा', इमा हो गया। मेरी बेटी इसे मेरी कामचोरी की मिशालों में गिनाती है।
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