चर्चा तुलसी और कबीर के स्त्रियों पर विचारों पर हो सकती है लेकिन वह नहीं होती वामपंथ पर हो जाती है। 1883 में मार्क्स की शवयात्रा में बहुत कम (शायद 39) लोग थे जिस पर एंगेल्स ने अपने श्रद्धांजलि भाषण में कहा था कि आज मार्क्स की अन्येष्टि में भले ही इतने कम लोग हैं लेकिन वह दिन दूर नहीं जब दुनिया मार्क्स के पक्ष और विपक्ष में बंट जाएगी। आज लोग एक तरफ वामपंथ का मर्सिया पढ़ते हैं दूसरी तरफ हर बात पर वामपंथ से पीड़ित दिखते हैं। हर विषय पर उन्हें वामपंथ का ही भूत सताने लगता है। विकास के चरण के अनुरूप लामाजिक चेतना होती है। कालांतर में परिवर्तनकारी ताकतें उसे चुनौती देकर नई अपेक्षाकृत प्रगतिशील चेतना का निर्माण करती हैं। 1992 में पूरा अमेरिका तथा यूरोप कोलंबस का महिमामंडन करते उसकी तथाकथित खोज के 500वें वर्ष का उत्सव मना रहा था वही 2000 में उसकी मूर्तियां तोड़कर नदी में फेंक रहा है। बुद्ध और कबीर भी अपने समय की युग चेतना से अप्रभावित नहीं रह सकते थे। बुद्ध शुरू में स्त्रियों के संघ में प्रवेश के विरुद्ध थे लेकिन साथियों के समझाने पर मान गए। कबीर निश्चित रूप से अपने बाद के यूरोपीय नवजागरण की ही तरह सामाजिक और अध्यात्मिक समानता का संदेश दे रहे थे और तुलसी उसके विरुद्ध वर्णाश्रमी यथास्थितिवाद को सुदृढ़ करने का प्रयास कर रहे थे। बुद्ध का आंदोलन प्राचीनकालीन प्रबोधन (Enlightenment) क्रांति थी तथा कबीर भक्ति आंदोलन आधुनिकता के संदेश का नवजागरण आंदोलन जो ऐतिहासिक कारणों से अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका और यूरोप में पूंजीवादी क्रांति की बौद्धिक बुनियाद, प्रबोधन क्रांति की तर्ज पर यहां की संभावित प्रबोधन क्रांति औपनिवेशिक दखलअंदाजी से बाधित हुआ और परिणाम स्वरूप भारत का आधुनिकता का अभियान भी। वर्णाश्रमी सामंतवाद के विरुद्ध अपूर्ण सामाजिक क्रांति की भी जिम्मेदारी वामपंथ की थी जो इसे समझ न सका और सोचा कि आर्थिक समता की क्रांति के बाद सामाजिक क्रांति अपने आप हो जाएगी। सामाजिक क्रांति का एजेंडा अंबेडकर ने उठाया और आज सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय की क्रांतियों के संगम की जरूरत है जिसे प्रतीकात्मक रूप से जयभीम लालसलाम नारे में अभिव्यक्ति मिली है। क्योंकि जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं और क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं।
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