Sunday, September 13, 2020

जन-हस्तक्षेप :प्रेस विज्ञप्ति (रेलवे झुग्गी)

 जन-हस्तक्षेप : फासिस्ट मंसूबों के खिलाफ अभियान

दिल्ली
प्रेस विज्ञप्ति 12 सितम्बर 2020

जन-हस्तक्षेप दिल्ली में केशव पुरम और नांगलोई के नजदीक रेलवे लाईन के किनारे बसे देशवासियों की हजारो झुग्गियां गिराये जाने की कडी भर्त्सना करता है। जन-विरोधी और सरकार-समर्थक पूर्वग्रहों के लिये कुख्यात जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट के 31 अगस्त, 2020 के एक आदेश की आड में की गयी रेलवे अधिकारियों और दिल्ली पुलिस की 10 सितम्बर की यह कार्रवाई पूरी तरह अमानवीय, अवैध और अनैतिक है। ज्ञातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में झुग्गी वासियों को तीन महीने के भीतर हटाने की बात कही गयी है। ज्ञातव्य यह भी है कि एक लम्बे अर्से से उसी पते पर राशन कार्ड और मतदाता पहचान-पत्र जैसे कानूनी कागजातों के साथ रह रहे इन लोगों को झुग्गिया ध्वस्त करने की पूर्व-सूचना तक नहीं दी गयी। पता चला है कि उस समय इन झुग्गियों के अधिकतर पुरुष सदस्य काम-धंधे पर गये हुये थे और मौके पर मौजूद महिलाओं, बच्चों और बूढों ने जब समय देने की गुहार लगायी तो उनपर बर्बरता से हमला किया गया और उन्हें अपना घरेलू सामान और बिस्तर आदि भी नहीं हटाने दिया गया। आश्रय का अधिकार, जीने के मूलभूत अधिकार का हिस्सा है और रेलवे और पुलिस की इस कार्रवाई ने देश के हजारो नागरिकों के इस संवैधानिक अधिकार का खुला उल्लंघन कर उन्हें बेघर और सडक पर रहने को मजबूर कर दिया है। पता चला है कि ये लोग 30-40 सालों से वहां रह रहे थे और स्थापित संवैधानिक परम्पराओं के अनुसार उन्हें निकट में ही वैकल्पिक आवास उपलब्ध कराये बिना उनकी बस्तियों से नहीं हटाया जा सकता। कई उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय ने भी अनेक फैसलों में ‘आवास/आश्रय के अधिकार’ को मूलभूत अधिकार बताया है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सुदामा सिंह और अन्य बनाम दिल्ली सरकार के मामले में 11 फरवरी, 2010 के अपने बहु-प्रशंसित निर्णय में कहा था, ‘‘.... उन्हें दूसरी जगह बसाये बिना उनकी झुग्गियां हटाने उनके मूलभूत अधिकारों का खुला उल्लंघन होगा।’’ उच्चतम न्यायालय के ताजा आदेश ने 2010 के उस निर्णय को खारिज नहीं किया है, लिहाजा उसे अब भी स्थापित कानून माना जाना चाहिये। ऐसे में अदालत को दिल्ली पुलिस के सहयोग से की गयी रेलवे अधिकारियों की इस कार्रवाई का स्वतः संज्ञान लेकर उन पर अदालत की अवमानना की कार्यवाही शुरु करनी चाहिये। रेलवे अधिकारियों ने पटरियो के किनारे 48,000 झुग्गियां होने का आकलन प्रसत्ुत किया है, लेकिन आम अनुमान में उनकी संख्या कई लाख हो सकती है।

अब यह सर्वज्ञात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्तियों का अंधाधुंध विनिवेश कर रही मौजूदा सरकार की नजर भारतीय रेल पर भी है, जिसके पास रेल पटरियों और स्टेशनों के आसपास अफरात जमीने हैं। सम्पत्तियों के संभावित खरीदारों, खासकर भारी मुनाफे के लिये सरकारी सहयोग और सहायता पर निर्भर क्रोनी कैपिटलिस्टों की दिलचस्पी रेलवे की इस अमूल्य भू-सम्पदा में है। इन जमीनों पर बसे लाखो लोगों को उजाडे बिना ये संभावित खरीदार इस अकूत अचल सम्पत्ति का अबाध दोहन नहीं कर सकते। उच्चतम न्यायालय का हालिया आदेश कार्यपालिका की मर्जी के मुताबिक फैसले देने की उसकी ताजा प्रवृत्ति और प्रकृति के अनुरुप ही है।

जन-हस्तक्षेप की मांग है कि --
1. घर-बदर कर दिये गये नागरिकों को उचित मुआवजा दिया जाये और तत्काल उनका पुनर्वास किया जाये,
2. निवासियों को वैकल्पिक आवास मुहैया कराये बिना झुग्गियां हटाये जाने पर तुरंत रोक लगाया जाये, और
3. भारतीय रेल सहित सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्तियों के विनिवेश की प्रक्रिया पर रोक लगे।

हस्ताक्षरः
प्रो. ईश मिश्रा (संयोजक)
डॉ. विकास बाजपेयी (सह-संयोजक)

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