Friday, September 11, 2020

फुटनोट 247 (नवउदारवाद)

 देशी-विदेशी हर व्यापारी का काम लूटना ही है, गुलाम बनाकर लूटना आसान होता है। जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी के उस समय बहुत समर्थक थे उसी तरह आज निजीकरण के दौर में धनपशुओं द्वारा सरकारी संपत्ति लूटने के बहुत से हिमायती हैं। अगर इस देश का बहुमत गुलाम मानसिकता का न होता तो धनपशुओं की एक कंपनी इतने बड़े, इतने संपन्न देश को गुलाम बनाकर 200 साल तक लूटकर कंगाल बना कर न जा पाती। उपनिवेशविरोधी आंदोलन के दौरान भी एक बड़ा तपका अंग्रेजी राज की दलाली कर रहा था, 1857 में अंग्रेजी धनपशुओं की दलाली में, किसान क्रांति के विरुद्ध शासक वर्गों के एक बड़े हिस्से की गद्दारी अलहदा है। आज दुर्भाग्य से इन्हीं गद्दारों की वैचारिक औलादें एक तरफ जनता की संपदा (सार्वजनिक उपक्रम) देशी-विदेशी धनपशुओं के हवाले करने की हिमायत कर रही हैं दूसरी तरफ देश की दूसरी (वित्तीय) गुलामी के विरोधियों को देशद्रोह की सनद बांट रही हैं। उदारवादी, औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और नवउदारवादी वित्तीय साम्राज्यवाद में एक खास फर्क यह है कि इसमें किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीरजाफर बन गए हैं।

No comments:

Post a Comment