इतिहास का
पुनर्मिथकीकरण
भविष्य के विरुद्ध
ब्राह्मणवादी साजिश
(भाग 1)
ईश मिश्र
ब्राह्मणवादी
इतिहासबोध कालक्रम आधारित तथ्यात्मक की बजाय मिथकीय है, जिसकी युगचेतना अग्रगामी
की बजाय अधोगामी है। यह, शीर्ष, सत्युग से शुरू होकर रसातल, कलियुग तक अधोगामी
यात्रा करता है। स्वर्णयुग भी ऐसा जिसमें इंसानों की खरीद-फरोख्त की खुली बाजार
हो![1] निहित
ब्राह्मणवादी स्वार्थों के तहत पौराणिक अतीत में महानता तलाशने की भविष्य के खिलाफ
संघी साजिश का सारगर्भित खुलासा जनपक्षीय परिप्रेक्ष्य तथा सटीक, तर्कसम्मत ढंग
से, फॉरवर्ड प्रेस में छपे सुभाष चंद्र कुश्वाहा और ओमप्रकाश कश्यप के लेखों में किया गया है।
सरकार ने इतिहास
पुनर्लेखन की एक कमेटी बनाई है जिसका काम भारत के प्राचीन गौरव का ‘अन्वेषण’
करना है। दादरी में अखलाक़ की सांप्रदायिक हत्या को दुर्घटना बताने वाले[2],
संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने बयान दिया है कि यदि कुरान तथा बाइबिल ऐतिहासिक हो
सकते हैं तो हिंदू ग्रंथ क्यों नहीं? इनका सांस्कृतिक अज्ञान समझा जा सकता है, लेकिन कमेटी के सदस्य तो
इतिहास में कम-से-कम एमए होंगे ही, उन्हें तो ज्ञात होना चाहिए कि जिन अनाम ग्रंथों
की बात मंत्री महोदय कर रहे हैं उनके लिखे जाने के समय हिंदू शब्द का अस्तित्व ही नहीं था। हिंदू शब्द दसवीं
शताब्दी के आस-पास, अरबों ने सिंधु के इर्द-गर्द की जगहों के बासिंदों की भौगोलिक पहचान
के लिए ईजाद किया, जो कालांतर में ऐतिहासिक कारणों से धार्मिक पहचान बन गयी। इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर इसके
पुनर्मिथकीकरण के “राष्ट्रवादी” मंसूबों की भनक तभी मिल गई था जब मौजूदा सरकार
द्वारा नियुक्त भारतीय ऐतिहासिक शोध परिषद(आईसीयचआर) के अध्यक्ष, ने पद
संभालते ही, इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत पर जोर देते हुए कहा था, “रामायण और
महाभारत को सिर्फ इसलिए नहीं अनैतिहासिक कहा जा सकता कि उसके ठोस पुरातात्विक
साक्ष्य नहीं हैं”। इस काम को अंजाम देने के लिए सरकार ने गुपचुप एक कमेटी बना
डाली, जिसका रॉयटर्स ने खुलासा किया। समिति के अध्यक्ष के.एन दीक्षित ने
रायटर्स को बताया, “मुझे एक
रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है जो सरकार को प्राचीन इतिहास के कुछ पहलुओं को फिर
से लिखने में मदद करे।” यानि इतिहास लिखना अब
इतिहासकारों का नहीं, सरकार का काम है। संस्कृति
मंत्री ने कहा “मैं रामायण की पूजा करता हूं और
मुझे लगता है कि यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। जो लोग सोचते हैं कि यह कल्पना है, वे लोग बिल्कुल गलत हैं।” चलिए
मंत्री जी तो मेडिकल के विद्यार्थी रहे हैं उनके भक्तिभाव आधारित इतिहासबोध की
दरिद्रता समझ आती है, लेकिन 12 सदस्यीय समिति के एक सदस्य, जेयनयू के प्रोफेसर
संतोष कुमार शुक्ला ने रायटर्स को बताया कि “भारत की हिंदू संस्कृति लाखों साल
पुरानी है”, यानि पाषाणयुग कालीन।
7 मार्च
2017 को पीटाआई के हवाले से फाइनेंसियल एक्सप्रेस में छपी खबर के अनुसार, नवंबर
2016 में गठित इस कमेटी ने नवंबर 2017 में अपनी रिपोर्ट संस्कृति मंत्री को सौंप
दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि इतिहास के इस पुनर्लेखन परियोजना का मकसद “यह
प्रमाणित करना है कि आज के हिंदुओं के पूर्वज ही हजारों साल पहले से ही इस भूमि के
मूल निवासी हैं और यह कि हिंदू ग्रंथ सच हैं, मिथक नहीं”। रिपोर्ट में आगे कहा गया
है कि सरकार धार्मिक पहचान के आधार पर राष्ट्रीय पहचान का निर्माण करना चाहती है
जिससे साबित किया जा सके कि “भारत हिंदुओं का तथा हिंदुओं के लिए है”।
आर्यों के मूलनिवासी होने के सिद्धांत के प्रवर्तक हैं,
आरयसयस के विचार पुरुष, गुरुजी के नाम से जाने जाने वाले माधवराव सदाशिव गोलवल्कर।
बालगंगाधर तिलक ने वेदों तथा अवेस्ता श्रोतों के गहन शोध के बाद लिखी पुस्तक ‘वेदों
में आर्कटिक वतन (The
Arctic Home in Vedas’)[3] में
साबित किया है कि आर्यों का मूल स्थान उत्तरी ध्रुव के इर्द-गिर्द आर्कटिक क्षेत्र
था। लगभग 8000 ईशा पूर्व हिमसैलाब के बाद वे यूरोप और एशिया में नए ठिकानों की
तलाश में विभिन्न दिशाओं में निकल पड़े। उनमें से एक शाखा वोल्गा होते हुए सिंधु
घाटी पहुंची और ऋगवेद में वर्णित सप्तसैंधव (सात नदियों – सिंध, पंजाब की पांच
नदियां और सरस्वती – की भूमि) में जनों (कबीलों) में बस गई[4]। यह
सिद्धांत हिंदुत्व के मूलनिवासी सूत्र को नजरअंदाज कर, वैदिक आर्यों को मुगलों के
साथ एक ही पायदान पर खड़ा कर देता है। इतिहास के दिवंगत नायकों को अपना नायक बनाना
आरयसयस की पुरानी आदत है। बाल विवाह जैसे प्रतिगामी परंपराओं के समर्थन तथा लोगों की लामबंदी के
लिए गणेषोत्सव का उद्घाटन आदि के चलते वह तिलक को हिंदुत्व के नायक के रूप में पेश
करती है। इस विरोधाभास के समाधान में, जीवविज्ञान में यमयस्सी, गोलवल्कर ने
1947 में एक लेख में मौलिक भूगर्भशास्त्रीय सिद्धांत का अन्वेषण कर डाला। “अति
प्राचीन काल में यह (उत्तरी ध्रुव) दुनिया के उस हिस्से में था..... (जिसे) आज
बिहार और उड़ीसा कहा जाता है”[5]।
आप समझ सकते हैं कि इतिहास का पुनर्लेखन का यह फासीवादी मनसूबा तथ्य-तर्कों को दर
किनार कर इसी तरह की अनर्गल कल्पनाओं पर
आधारित होगी, उसी तरह जैसे ब्राह्मणवाद ने सामाजिक यथार्थ की विसंगतियों पर पर्दा
डालने के लिए इतिहास के बजाय पुराण लिखा। इतिहास के पुनर्लेखन की यह कशरत, कुछ और
नहीं, इतिहास के पुनर्मिथकीकरण का कुत्सित प्रयास है। लेकिन अब तो शंबूकों ने
तीरंदाजी सीख ली है और एकलव्यों ने कलम गह लिया है।
02.04.2018
अगले भाग में रामायण, महाभारत आदि पौराणिक ग्रंथों को इतिहास मानने के
निहितार्थ पर चर्चा की जाएगी।
[1]
बिना बाजार के राजा हरिश्चंद्र गाय-भैंस की तरह अपनी बीबी बेटा कहां बेंचते?
[2] Dadri incident a
well-planned conspiracy, says report - The Hindu
http://ishmishra.blogspot.com/2015/10/blog-post_7.html
[3]
Bal Gangadhar Tilak, The Arctic Home in Vedas, Tilak Bros, 1903
[4]
राहुल सांकृत्यायन, वोल्गा से गंगा तक,
किताब महल, इलाहाबाद, 1974
[5]
Quoted in Ish Mishra, Women’s Question in Communal Ideologies: A Study into
the Ideologies of RSS and Jamat-e-Islami,
Centre for Women’s Development Studies, New Delhi, 1987.
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