Thursday, April 5, 2018

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद


द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
ईश मिश्र
किसी भी नई चिंतन धारा का उदय और विकास उस समय के ऐतिहासिक संदर्भ में प्रचलित चिंतन धाराओं के सापेक्ष होता है। उस समय यूरोपीय दार्शनिक गगन में दो प्रमुख चिंचनधाराएं प्रचलित थीं, हेगेल का द्वंद्ववाद और फॉयरवाक का भौतिकवाद। मार्क्स उन्हें चुनौती देते हैं; खारिज करते हैं; उनका कायाकल्प कर,  उनकी द्वंद्वात्मक एकता स्थापित कर, जोड़कर एक नया सिद्धांत देते हैं, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद। हेगेल का मानना था कि यथार्थ पूर्णतः या काफी हद तक विचारों से निर्मित है और दृष्टिगोचर जगत विचारों के अदृश्य जगत की छाया मात्र है। मार्क्स द्वंद्वात्मक उपादान के लिए हेगेल का आभार व्यक्त कर इसे आदर्शवाद कह कर खारिज किया। उन्होंने कहा कि हेगल ने वास्तविकता को सर के बल खड़ा किया है उसे पैर पर खड़ा करना है। विचार से वस्तु की उत्पत्ति नहीं, वस्तु से विचार की उत्पत्ति होती है। ऐतिहासिक रूप से वस्तु विचार से पहले से विद्यमान होती है तथा ऐतिहासिक रूप से विचार वस्तुओं से ही निकले हैं, निर्वात से नहीं। न्यूटन के गुरुतवाकर्षण के सिद्धांत से सेबों का गिरना शुरू नहीं हुआ बल्कि सेबों का गिरना देख कर उनके दिमाग में उसका कारण जानने का विचार आया। सेबों के गिरते देखकर ‘क्या’ सवाल का उत्तर दिया जा सकता है, ‘क्यों’ का नहीं। क्यों, कैसे, कब और कितना का जवाब न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से मिलता है। यथार्थ की संपूर्णता का निर्माण सेब गिरने की घटना (वस्तु) और न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम (विचार) की गतिशील द्वंद्वात्मक सम्मिलन से होता है।  
फॉयरबॉक का वैज्ञानिक युग का भौतिकवाद विचारों को सिरे से खारिज करके कहता है भौतिकता ही सब कुछ है, जिसे मार्क्स मशीनी भौतिकवाद या प्रतीकात्मक (मेटाफरिकल) भौतिकवाद कह कर खारिज करते हैं। मार्क्स थेसेस ऑन फॉयरबाक में फॉयरबॉक से सहमति जताते हुए लिखते हैं कि मनष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की। लेकिन न्यूटन के गति के नियम के अनुसार बिना वाह्य बल के कोई वस्तु हिलती भी नहीं। भौतिक परिस्थितियां आपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलती हैं[1]। अतः इतिहास की गति का निर्धारण भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक चेतना की द्वंद्वात्मक एकता से होता है, किसी ईश्वर, पैगंबर, अवतार की इच्छा या कृपा-दुष्कृपा से नहीं।
इस तरह हम देखते हैं मार्क्स ने सत्य की व्याख्या की अपने समय की प्रचलित दो प्रमुख परस्पर-विरोधी चिंतनधाराओं: हेगेले का द्वंद्वाद तथा फॉयरबाक के भौतिकवाद संदर्भविंदु बनाया; ललकारा तथा खारिज किया; उनकी द्वंद्वात्मक एकता से सत्य की एक नई व्याख्या की चिंतनधारा, नए दर्शन का उद्घाटन किया – द्वंद्वात्मक भौतिकवाद। हेगेल के द्वंद्वाद को उन्होंने आदर्शवादी करार दिया क्योंकि वस्तु पर विचार की प्राथमिकता के साथ यथार्थ को सिर के बल खड़ा किया था। विचार से वस्तु नहीं बनती बल्कि वस्तु से विचार निकलते हैं। ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने ईश्वर की अवधारणा गढ़ी। उन्होंने वस्तु को ही संपूर्ण सत्य मानने वाले फॉयरबाक के भौतिकवाद को प्रतीकात्मक कह कर खारिज किया कि विचारों के बिना वस्तु प्रकृति की गतिशीलता के प्रकृति के विरुद्ध जड़ता में जकड़ी रहेगी। वस्तु अर्ध सत्य है, उसके विचारों से द्वंद्वात्मक मिलन से सत्य बनता है।
एंगेल्स ने लुडविग फॉयरवाक और जर्मन दर्शन का अंत में लिखा है, “किसी भी अन्य दार्शनिक कथन की संकीर्ण सरकारों ने इतनी प्रशंसा नहीं की और न उतने ही संकीर्ण उदारवादियों ने इतनी निंदा जितनी की हेगेल के निम्न कथन की:
जो भी वास्तविक है, वह विवेकसम्मत है; और जो भी विवेकसम्मत है वह वास्तविक है’।
प्रकारांतर से यह निरंकुश शासन, पुलिसिया सरकार, ... और सेंसरशिप को समर्पित दार्शनिक मंगलकामना है। लेकिन वे हर वजूददार चीज को वास्तवुक नहीं मानते थे। हेगेल के लिए वास्तविकता उसी का गुण है जो वास्तविक है।
‘अपने विकास क्रम में वास्तविकता आवश्यकता बन जाती है’
एंगेल्स ‘मियां की जूती मियां के सिर’ कहावत चरितार्थ करते हुए हेगेल के ही द्वंद्ववाद विपरीत, क्रांतिकारी निष्कर्ष निकालते हैं। “रोम गणतंत्र वास्तविक था और उसकी जगह आया रोम साम्राज्य भी वास्तविक था। 1789 में फ्रांस की राजशाही इतनी अवास्तविक यानि अनावश्यक हो गयी कि महान क्रांति को उसे ध्वस्त करना पड़ा। राजशाही अवास्तविक हो गई थी और क्रांति वास्तविक, अतः विवेकसम्मत”[2]। कहने का मतलब जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर संक्षिप्त चर्चा लंबा विषयांतर हो गया। उपरोक्त चर्चा के निष्कर्ष स्वरूप हम पाते हैं कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के निम्न नियम हैं:
 1. यथार्थ (सत्य) वस्तु और विचार का द्वंद्वात्मक युग्म है, जिसमें प्राथमिकता विचारों की है। इस नियम को ऊपर, वस्तुओं के ऊर्ध्वाधर पतन (वस्तु) और न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम की द्वंद्वात्मक एकता के द्वांद्वात्मक एकता से सत्य की संपूर्णता के निर्माण के उदाहरण से दर्शाने की कोशिस की गई है। वस्तु और विचार की द्वंद्वात्मक एकता की प्रक्रिया, या दूसरे शब्दों में दोनों की एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया की निरंतरता ही पाषाणयुग से साइबरयुग तक मानव इतिहास की यात्रा की संचालक शक्ति रही है। मार्क्स पूंजीवाद के राजनैतिक अर्थशास्त्र, वर्गीय अंतर्विरोध तथा वर्ग संघर्ष के विश्लेषण में इसी द्वंद्ववाद का इस्तेमाल करते हैं। “अभी तक के समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है”[3]
 2. प्रकृति की द्वंद्वात्मकता की प्रकृति परिवर्तन की निरंतरता है, जिसके गतिविज्ञान के अपने नियम हैं[4]। सतत क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन समयांतर में परिपक्व हो, गुणात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन बन जाता। पिछले 40 सालों में भारत में क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तनों के साफ-साफ दिखने वाले उदाहरण हैं: दलित- सशक्तीकरण तथा स्त्री-सशक्तीकरण। स्त्री प्रज्ञा तथा दावेदारी और दलित प्रज्ञा तथा दावेदारी के रथ, मंद गति से शुरू हो त्वरित गति से आगे बढ़ रहे हैं। आज किसी का नैतिक साहस नहीं है कि कहे कि वह बेटा-बेटी में फर्क करता है, एक बेटे के लिए 4-5 बेटियां भले पैदा कर ले। उसी तरह बड़े-से-बड़ा जातिवादी भी सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता कि वह जाति-पांत में विश्वास करता है, बल्कि तमाम मनुवादी किसी दलित के घर टीवी पर प्रचार के साथ भोजन करना प्रायोजित करते हैं। वैसे तो कोई परिवर्तन विशुद्ध मात्रात्मक नहीं होता। यह क्रमशः स्त्रीवाद तथा जातिवाद-विरोध की सैद्धांतिक विजय है, इसीलिए अभी तक यह मात्रात्मक परिवर्तन है। क्रांतिकारी, गुणात्मक परिवर्तन विचारधारा के रूप में क्रमशः मर्दवाद तथा जातिवाद (ब्राह्मणवाद) के विनाश के खंडहरों पर उगेंगे।
 3. द्वंद्वात्मक समग्रता के दोनों परस्पर-विपरीत के पारस्परिक निषेध से तीसरे उच्चतर की तत्व की उत्पत्ति होती है जो दोनों से गुणात्मक तौर पर भिन्न होता है लेकिन दोनों के तत्वों को समाहित किए हुए। इस नियम को वाद-प्रतिवाद-संवाद (Thesis, anti-thesis, synthesis) का नियम भी कहते हैं। इसे दो परस्पर विपरीत रासायनिक गुणों वाले, हाइड्रोक्लोरिक एसिड तथा सोडियम हाइड्रॉक्साइड की रासायनिक क्रिया (द्वंद्वात्मक योग) के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है।
HCl + NaOH=NaCl+H2O
दो विपरीत रासायनिक गुणों वाले तत्व पारस्परिक निषेध की क्रिया से तीसरे बिल्कुल भिन्न तत्व पैदा करते हैं। शरीर को हानिकरक दो विपरीत तत्वों की द्वंद्वात्क एकता से तीसरा तत्व बना जो जीवन के लिए अनिवार्य है। 1917 की क्रांतिकाकी परिस्थियों ने क्रांतिकारी चेतना पैदा किया क्रांतिकारी परिस्थितियों और क्रांतिकारी चेतना से लैस मनुष्य की द्वंद्वात्मक एकता के परिणामस्वरूप नवंबर क्रांति हुई।
4.जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है, पूंजीवाद अपवाद नहीं हो सकता इसे नियम की बजाय प्रकृति की ऐतिहासिक प्रवृत्ति कहना ज्यादा उचित है।


[1] Theses on Feuerbach op.cit.
[2] Engels, Ludwig Feuerbach and the End of Classical German Philosophy, in Karl Marx & Frederic Engels, Selected Woks (in one Vol.), Progress, Publishers,  Moscow, 1978, pp. 586-87
[3] Communist Manifesto
[4] Engels, Dialectics of Nature, Progress, Moscow,  pp. 62-86

2 comments:

  1. मार्क्सवादी होना या नास्तिक होने का दावा करना, एक दिखावा भी हो सकता है।धर्म की आलोचना करना बड़ा सरल है क्योंकि धर्म से जुड़े सवालों के कोई पूर्ण प्रमाण नहीं होता। पर धर्म को पूरी तरह ना मन्ना भी ढोंग है।धर्म इंसान को जीने का तरीका बताता है,कुछ हद तक सम्पूर्ण संस्कृति ढांचा कल्चर धर्म से ही जुड़ा है।हिन्दू धर्म की संस्कृति ने शाकाहारी भोजन,सरल जीवन इन बातों पर ज़ोर दिया है।साहित्य रूप में राम चरितमानस, गीता आदि दिए हैं। साथ ही कला संस्कृति जैसे कथक नृत्य, कुचिपुड़ी नित्य आदि सब धर्म से ही उत्पन है।ऐसे ही इस्लाम धर्म ने दिया है कवाली, ग़ज़ल आदि। ऐसे में मार्क्स ये कहते है कि धर्म, कल्चर महज़ प्रोलेट्रीट के विचार को नियंत्रित करने के लिए पूंजीवाद ने बनाये हैं। तो क्या ये तमाम सांस्कृति केवल मार्क्स के कहने पर कैसे मिथक समझ लिया जाए।ये तो अन्याय से प्रतीत होता कला के दृष्टिकोण से देखे तो।ये तमाम सांस्कृतिक कला व्यर्थ नही हो सकती,और जब ते चीज़े है धर्म तो पूर्ण तरह त्यागा नही जा सकता। जिन कम्युनिस्ट देशों में धर्म को नही माना जाता वहां का रहन सहन खान पान की आदतें भी घृणित है।ये धर्म को नही मानते ,जीने के तौर तरीके नही मानते।ऐसे में जो उनके मन आता है वो करते है,किसी भी जानवर को लेते हैं।मेरा कहना है कि धर्म को न मानना क्या उन तमाम सांस्कृतिक धरोहर को न मानना के बराबर नहीं।उस साहित्य न मानने के बराबर नही।साहित्य का जन्म ही धर्म से हुआ है।तो क्या साहित्य के अवमानना तो नही कर रहे ।

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    1. धर्म पर मार्क्स को पढ़िए । वे कहते हैं धर्म हृदयविहीन दुनिया का हृदय है, आत्माविहीन स्थितियों की आत्मा है, पीड़ित की आह है, धर्म लोगों की अफीम है। धर्म खुशी की खुशफहमी देता है जो वास्तविक खुशी मिलने पर अनावश्यक हो जाती है।

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