दिनेश यादव उन्मुक्त की अपनी लाइब्रेरी अभियान की एक पोस्ट पर चर्चा में बाभन से इंसान बनने के मुहावरे का जिक्र आ गया, उस पर कमेंट:
बाभन से इंसान बनना एक मुहावरा है, जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता (संस्कार) के मकड़जाल से निकलकर एक विवेकसम्मत अस्मिता अर्जित करने का। हर व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) की धमनियों में खून की 4 ही में से किसी एक ग्रुप के खून से ही जीवन संचारित होता है, वह भी नियोजन से नहीं संयोग से। समाज के वास्तविक (आर्थिक) अंतर्विरोध को आमजन (कामगर) समझकर उसे समाप्त करने न निकल पड़े, इस लिए चतुर-चालाक लोग (शासक वर्ग) इंसानों को छोटे-बड़े खानों और खापों में; हिंदू और मुसलमान में; बाभन और अहिर में बांटते रहे हैं। भारत में शासक जातियां (वर्ण) ही शासक वर्ग रही हैं। इसलिए वक्त का तकाजा है कि हम सब शोषकों की चाल समझें तथा बाभन या अहिर से इंसान बन लूट का निजाम नेस्त-नाबूद करें। अब सामाजिक और आर्थिक न्याय की लड़ाइयां अगल अलग लड़ने का वक्त नहीं है, साथ-साथ मिलकर लड़नी पड़ेंगी। जयभीम-लालसलाम नारे को व्यवहार में परिभाषित करना पड़ेगा। तुम बहुत ही प्रशंसनीय काम कर रहे हो, आज उसी की जरूरत है, गांव-गांव लाइब्रेरी खुलनी चाहिए। इसे एक अभियान में बदल दो, सारे बड़े अभियान छोटी शुरुआत से शुरू होते हैं।
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