Thursday, April 5, 2018

ऐतिहासिक भौतिकवाद


ऐतिहासिक भौतिकवाद
ईश मिश्र 
       ऐतिहासिक भौतिकवाद का मूलमंत्र है: अर्थ ही मूल है। यह एक ऐतिहासिक  दृष्टिकोण है जो समाज के आर्थिक विकास को इतिहास के गतिविज्ञान की कुंजी मानता है। इतिहास के सभी कारण-कारक की उत्पत्ति, “उत्पादन पद्धति में परिवर्तनों और विनिमय तथा परिणामस्वरूप विभिन्न वर्गों में समाज का विभाजन और वर्ग संघर्ष में निरूपित करता है”[1]। सत्य वही जो तथ्य-तर्कों के आधार पर प्रमाणित किया जा सके। मार्क्स, राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान[2] की प्रस्तावना के निम्न लंबे उद्धरण में ऐतिहासिक भौतिकवाद का सार है।
अपने सामाजिक उत्पादन के दौरान, भौतिक उत्पादन के विकास के विशिष्ट चरण के अनुरूप मनुष्य विशिष्ट संबंधो में बंध जाते हैं, उत्पादन के सामाजिक संबंध, जो अपरिहार्य और अपनी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। इन्ही संबंधों के योग से समाज का आर्थिक ढांचा तैयार होता है, जो वास्तविक बुनियाद है बुनियाद है जो पर कानूनी और राजनैतिक ढांचों का निर्धारण करता है, और जिसके अनरूप सामाजिक चेतना का विशिष्ट स्वरूप होता है। भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली, सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक गतिविधियों के सामान्य स्वरूप का निर्धारण करती है। मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती बल्कि उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना का निर्धारण करता है। विकास के एक खास चरण में समाज की भौतिक उत्पादन की शक्तियों और मौजूद उत्पादन संबंधों, कानूनी भाषा में संपत्ति के संबंधों में टकराव की स्थिति पैदा होती है। मौजूदा उत्पादन संबंध उत्पादक शक्तियों के आगे विकास में बाधक बन जाते हैं। तब शुरू होता है सामाजिक क्रांति का युग। आर्थिक बुनियाद में परिवर्तन से देर-सबेर सभी अधिरचनाओं में तदनुरूप आमूल परिवर्तन हो जाता है। इन परिवर्तनों के अध्ययन में प्राकृतिक विज्ञान की तरह सही सही ज्ञात किए जा सकने वाली भौतिक उत्पादन आर्थिक परिस्थियों और वैझानिक, राजनैतिक, धार्मिक, कला संबंधी, य दार्शनिक – कुल मिलाकर विचारधारात्मक स्वरूप में परिवर्न में, फर्क करना जरूरी है। विचारधारात्मक स्वरूप में परिवर्तन से मनुष्य इन अंतरविरोधों के प्रति जागरूक हो संघर्ष करता है।”

ऐतिहासिक भौतितवाद एक व्यवहारिक विज्ञान है। उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के आधार पर यह मानव इतिहास का युग निरूपण करता है: आदिम उत्पादन प्रणाली पर आधारित आदिम साम्यवाद का युग; दास उत्पादन प्रणाली का दास युग तथा सामंती प्रमाणी का सामंतवादी युग तथा अंतिम वर्ग समाज, पूंजीवादी उतपादन प्रणाली पर आधारित पूंजीवादी युग जिसके अंत के बाद वर्ग विहील, राज्य विहीन साम्यवादी युग, जो निरंतर सर्वहारा क्रांतियों से आएगा मगर जिसकी समय-सीमा नहीं तय की जा सकती[3]
मार्क्स-एंगेल्स कम्यनिस्ट घोषणा पत्र के शुरू में ही लिखते हैं कि समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है और कम्युनिस्ट पार्टियों का इतिहास 200 साल से कम। कहने का मतलब यह कि वर्ग समाज में शोषण-उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध सभी आंदोलन वर्ग संघर्ष के ही हिस्से हैं. जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि मार्क्स का आकलन था कि क्रांति विकसित पूंजीवादी देश में होगा जहां प्रचुरता का बंटवारा मुद्दा होगा। लेकिन मार्क्स ज्योतिषी नहीं थे। मार्क्स के विकास के चरण के सिद्धांत से इतर मार्क्सवाद की विचारधारा की पहली क्रांति रूस में हुई जहां पूंजीवाद लगभग अविकसित था और सामंती उत्पादन संबंध सजीव थे। क्रांति की दो शर्तें हैं, क्रांतिकारी परिस्थितियां और सजग-संगठित क्रांतिकारी पार्टी रूस में दोनों का समागम हुआ, और जैसा ऊपर कहा गया है 1917 में ताबड़-तोड़ दो क्रांतियां हुईं, मार्च की बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांति और नवंबर में सर्वहारा क्रांति।  आबादी में किसानों और कारीगरों की संख्या अधिक थी। किसानों की लामबंदी के लिए ‘जो जमीन को जोते बोए वह जमीन का मालिक होए’ का नारा दिया गया था।




[1] Engels,  Socialism: Utopian and Scientific,  Selected Woks, op.cit. pp.-387-409
[2] Karl Marx, Preface to A Contribution to the Critique of Political Economy , Progress pblishers, Moascow, 1984,  pp.19-23

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