इस तरह के चीनी माल के बहिष्कार के छद्म राष्ट्रवाद का कोई मतलब नहीं है। आज पूंजी का चरित्र भूमंडलीय है वह न तो निवेश के अर्थ में राष्ट्रीय है न श्रोत के। अडानी को ज्यादा फायदा होगा तो वह अपने चाकर राजनेताओं की मदद से सरकारी कर्ज (जिसे बाद में उन्हीं राजनैतिक चाकरों की मदद से बट्टाखाता में डाल दिया जाएगा) का निवेश आस्ट्रेलिया में करेगा और सस्ते कच्चे माल और सस्ते श्रम से ज्यादा मुवाफा कमाने के लिए अमरीकी धनपशु भारत में। आम आदमी चीनी पूंजी का शिकार बने या हिंदुस्तानी का. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। मौका मिलते ही हिंदुस्तानी धनपशु माल्या. चोकसी आदि की तरह लूट का माल लेकर विदेश भाग जाएगा और ऐश करेगा। हम बुतपरस्त मुर्दापरस्त मुल्क के गुलाम मानसिकता के लोग हैं और वैज्ञानिक-तकनीकी ज्ञान की बजाय अंधविश्वास तथा जातीय (वर्णाश्रमी) तथा धार्मिक (सांप्रदायिक) नफरत का प्रसार करते हैं जीवनोपयोगी वस्तुओं के निर्माण की बजाय गोबर और गोमूत्र के जीवनदायी गुणों का महिमामंडन करते हैं। सारी महानताएंअतीत में खऱोजकर वर्तमान में कैंची और नेलकटर भी आयात करते हैं। हमारा खून लाइब्रेरी और विद्यालय की मांग को लेकर नहीं खौलता, मंदिर के लिए खौलता है। इंसानों को बौना बनाकर देश महान नहीं बन सकता मंदिर कितना भी भव्य बन जाए। सीमा विवाद में 20 सैनिक शहीद हो जाते हैं, हमारे प्रधानमंत्री चीनी अतिक्रमण को जायज छहराते हुए कहते हैं कोई सीमा विवाद ही नहीं है। देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है, चुनावी फरेब की नहीं। सादर।
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