मुझे लगता है विश्वविद्यालय के स्तर पतन में मुख्य भूमिका शिक्षकों के अशिक्षकीय चरित्र का है। एक शिक्षक के नाते मुझे लगता है कि यदि शिक्षक शिक्षक होने का मह्व समझ ले तोे बहुत कुछ कर सकता है। इवि में हॉस्टल के वार्डन और सुपरिंडेंटेंट निहायत गैरजिम्मेदाराना तौर पर काम करते हैं। छात्रों के साथ सकारात्मक, रचनात्मक समय एवं ऊर्जा निवेश की जरूरत होती है। एक बार इलाहाबाद विवि में मुझे लॉ के एक प्रोफेसर मिले जो एक ठाकुर कुलपति के समय रजिस्ट्रार बने। प्रोफेसर साहब ने कहा कि वे छात्रों से दूर रहकर अपनी इज्जत बचाकर रहते हैं। मैंने कहा (यह बात 2012 या 2013 में सेनेट हाल में एक संगोष्ठी में भी कहा था) कि इज्जत तो न दहेज में मिलती है न दलाली में कमाई जाती है। छात्रों से दूर रहकर आपने इज्जत तो कमाया ही नहीं, बचाएंगे क्या? क्योंकि बचाया तो उसे जाता है जो आपके पास हो।
दूसरा प्रमुख कारण है छात्र राजनीति में जातिवाद तथा परिवर्तन के नियमों को धता बताते हुए संस्कार के नाम पर पोंगापंथ की संस्कृति। बहुत से लोगों को जानता हूं जो इंटर के बाद जिस सामाजिक चेतना (संस्कार) के साथ विवि में प्रवेश लेते हैं, परीक्षाएं पास करते हुए कंपटीसन के लिए कोचिंग के नोट रटते हुए उसी चेतना के साथ (बाभन से इंसान बने बिना, कृपया इस मुहावरे को शाब्दिकता में न लें) विवि से निकल जाते हैं। जो किसी कंपटीसन में निकल जाते हैं वे उसी चेतना के साथ देश लूटते हुए रिटायर हो जाते हैं, भाषा की दयनीय तमीज और चिंताजनक बौध्दिक स्तर के साथ। फेसबुक उसकी एक बानगी पेश करता है। इलाहाबाद विवि का एक नया बहुत बड़ा परिवार टाइप ग्रुप मेल-मिलाप के लिए खुला। मैंने कहा कि विवि से पढ़े लोगों के ग्रुप में सामाजिक सरोकारों पर विमर्श होना चाहिए, यह बात इतनी नागवार लगी कि मुझे ब्लॉक ही कर दिया।
........ जारी।
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