बेतरतीब 74 (17, बी विवि मार्ग)
कल विश्वविद्यालय मार्ग स्थित, दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस के (छूट चुके घर के) पुराने पड़ोसी डॉ. गोस्वामी से फोन पर बात हो रही थी उन्होंनने बताया इस बार 'मेरे' पेड़ों पर आम बहुत लगे हैं। कैंपस
में रहते हुए खटाई-सिरका के लिए कभी आम नहीं खरीदने पड़े। आम के दो विशाल पेड़ तो
बहुत पुराने हैं (अंदाजन कम-से-कम 100 साल), मैंने भी एक चीकू, 2 नींबू, 2आंवला, 1 अनार, 1 नीम, 1 हरसिंगार, कुछ चीनी नारंगी, कई गुडहल तथा अंगूर और मालती की लताओं समेत कई पेड़ लगाए थे, इसके पहले हॉस्टल का वार्डन रहते हुए उस आवासीय परिसर में भी कई
पेड़ लगाए थे। मेरे पहले उस घर में कम-से-कम 10 लोग तो रह ही चुके होंगे। लेकिन किसी के दिमाग में पेड़ लगाने की
बात नहीं आयी। शायद इसलिए कि 'कोई अपना घर तो
है नहीं'। अरे भाई जब तक रहेंगे तब तक तो
अपना है। दिल्ली में पेड़ लगाने के अवसर का सौभाग्य कितना दुर्लभ है? घर की मरम्मत में पीएफ से कर्ज लेकर साढ़े तीन लाख खर्च किए, जिसमें लाइब्रेरी और अध्ययन कक्ष के लिए फाइबर की छत की बास की
झोपड़ी पर 50,000 खर्च हुए।(जिसकी तस्वीर अक्सर शेयर
करता रहतान हूं) कई लोगों ने कहा कि यह घर तोछोड़ना पड़ेगा तो इतना पैसा क्यों
खर्च कर रहा हूं। मेरा जवाब था कि 13 साल रहना है तो साल भर का लगभग 28,000 और महीने कता लगभग 25,00 पड़ेगा। 20- 22 हजार केआसपास एचआरए कटेगा तो महीने
का 23-25 हजार से कम पड़ा और इतने में
बाग-बगीचे वाली ऐसी कोठी कहां मिलेगी? मिलेगी ही नहीं। गोस्वामी जी की पत्नी भी प्रोफेसर हैंसातवें वेतन
आयोग के हिसाब से दोनोंका मिलाकर 1 लाख एचआरए कट जाता होगा, लेकिन कैंपस में
रहने के सुख के लिए यह भी ज्यादा नहीं है।पढ़ाई-लिखाई और मिलने-जुलने का ज्यादातर
काम बाहर बगीचे या झोपड़ी में ही होता था। मिलने-जुलने वाले मित्र और छात्र घर के
अंदर की बैठक से लगभग अपरिचित ही रहते थे। कैंपस में रहते हुए नींबू कभी नहीं खरीदना पड़ा, बल्कि सभी आगंतुकों को नींबू का उपहार देता रहता था। एक नींबू
रसगंधर्व (असमी में कांजी नीबू) है, जिसका बंगालियोंऔर असमियों के लिए विशेष महत्व है। उसमें से 5 तोड़ता तो 3 अपने असमिया पड़ोसी गोस्वामी जी के
बरीमदे में डाल देता। किसी बंगाली मित्र से मिलने जाता या कोई बंगाली या आसामी घर
आता तो जितने भी तोड़ने लायक होते तोड़कर दे देता या उन्हें खुद तोड़ने का आनंद
उठाने देता। पिछले साल पहली बार (उस घर में अंतिम साल) कुछ आम तोड़वा कर पाल डाला, वरना कभी न तोड़ते थे न किसी को तोड़ने देते थे।
बंदर-तोते-गिलहरियों के बाद जो हवा से गिरते थे, हम वही बीनते थे। मेरी पत्नी खटाई-अंचार इतना बनाती थीं कि
रिश्तेदारों को भी देतीं थीं। इस साल से खटाई के लिए कच्चा आम खरीदना पड़ेगा।
रिटायर होने का सबसे अधिक कष्ट कैंपस का घर का छूटने का ही है।
कैंपस में रहने के अनुभवों पर
विस्तार से फिर कभी लिखूंगा।
No comments:
Post a Comment