सुरेंद्र जी ('आज तक' शुरू करने वाले एसपी सिंह)बहुत बड़े आदमी थे, बहुत जल्दी चले गए, बड़प्पन के साथ उनका हास्यबोध भी उच्च कोटि का था। मेरी पहली मुलाकात जब नभाटा के संपादक बनकर दिल्ली आए, उसके कुछ ही दिनों बाद पंकज सिंह के साथ उनके प्रेस इंक्लेव घर पर हुई। नव भारत टाइम्स या टाइम्स ऑफ इंडिया में लेख देने जाने पर यदा-कदा मुलाकात हो जाती थी। एक बार संपादकीय पेज के आठवां कॉलम के लिए राज किशोर जी को लेख देकर शनिवारी के आगामी अंक के लिए परवेज से बात कर रहा था। एसपी आ गए और बोले क्या भई मेरा कमरा भी इसी दफ्तर में है कभी आ जाया करो। मैंने कहा छपने की सिफारिश नहीं लगानी होती। मैं कुछ दिन एक पाक्षिक में नौकरी करता था, हिंदी पत्रकार एसपी एसपी करते रहते थे। एक बार मैंने कहा 'अबे एसपी हिंदी पत्रकारिता के मोगांबो हैं क्या?' एक बार हम कुछ लोग प्रेस क्लब में लंच कर रहे थे। एसपी पहुंचते ही बोले कि बड़ी खुशी की बात है कि हिंदी के पत्रकार अपने पैसे से प्रेस क्लब में खाना खाने लगे हैं। मेरी किसी हास्य की बात बर ठठाकर हंसते हुए बोले 'मोगांबो खुश हुआ'। मैंने कि 'अच्छा यह बात आप तक पहुंच गयी'. बोले, 'हमारे आदमी हर रफ फैले हैं'। ऐसे में जब मेनस्ट्रीम मीडिया मृदंग मीडिया हो गया है, एसपी की कमी बहुत खलती है।
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