Shikha Singh भगत सिंह की साथियों को लिखी यह अंतिम चिट्ठी शेयर करने के लिए साधुवाद.@ Jagdish Keshav: तमाम नवजवान भगत सिंह के पदचिन्हों पर चल रहे हैं और इंकिलाबी हालात में बलिदान देने में नहीं डरेंगे, भगत सिंह के बाद भी बहुत से क्रांतिकारी शहीद हुए. क्रांतिकारी युवाओं में क्रांतिकारी जज़्बे की कमी नहीं है. कमी (जरूरत) है तो उस तरह की अद्भुत प्रतिभावान विचारक और संगठन तथा नेतृत्व क्षमता के युवाओं की. किशोर अवस्था में किसानों, धर्म, औपनिवेशिक शासन और क्रांति की समझ और युवाओं की भूमिका के महत्व को रेखांकित करते हुए, स्पष्टता से उनकी साहसी अभिव्यक्ति क्षमता एवं 22 साल तक पहुंचते पहुंचते विचारों और कामों से अंग्रेजी शासन को दहला देने वाले चरित्र इतिहास में विरले हैं. शहीदों के प्रति सारे सम्मान के साथ, मैं निजी तौर पर शहादत के महिमामंडन का विरोधी हूं. "मृत्वा भोग्यसे स्वर्गम्" भ्रामक है. मौत से डरे बिना उसे छकाते हुए जिंदा रह कर शोषक शासकों की नीद हराम करते रहना मानव-मुक्ति के मक्सद में शहादत से अधिक उपयोगी है. संसद में बम फेंक कर भगत सिंह और इनके साथी बहरों के कानों तक आवाज़ पहुंचा चुके थे. इनके भाग निकलने का पूरा इंतजाम था. लेकिन भागने की बजाय इन लोगों ने गिरफ्तारी देना पसंद किया. मौलिक योजना में बम फेंकने की योजना में भगत सिंह का नाम नहीं था क्योंकि एक सिद्धांतकार और रणनीतिज्ञ के रूप में भगत सिंह की क्षमता का पार्टी को एहसास था. इन्होंने जिद करके अपना नाम डलवाया कि किसी कॉमरेड की जान उतनी ही प्यारी है जितना कि उनकी. मुझे लगता है कि अंतरात्मा-भावुकता और विवेक के द्वंद्व में अंतरात्मा हावी हुई. इसी तरह एक बार जेल से कचहरी के रास्ते में पुलिस की गाड़ी से भगाने की योजना बनी. शुरू में भगत सिंह राजी भी हो गये थे, लेकिन अंत में उसी तर्क पर मुकर गये कि अगर वे निकल भी पाते तो मुठभेड़ में कुछ साथी शायद मारे जाते. सिद्धांततः मैं भगत सिंह से सहमत हूं लेकिन रणनीति के अर्थों में नहीं. शासक विचारों से डरता है और बौखलाहट में विचारक को खत्म कर देता है. क्या होता तो क्या होता की बहस अर्थहीन है. फिर भी कयास में क्या जाता है. यचयसआरए में क्रेतिकारी जज़्बे और बलिदान की भावना की कमी नहीं थी, कमी थी जनाधार की. हो सकता है बम की घटना से देशभर में महानायक बन चुके भगत सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी जनाधार बनता, हो सकता है कांग्रेस के काफी युवा क्रांति के समर्थक हो जाते और राष्ट्रीय आंदोलन का आयाम और आजादी अलग होते. जैसा लेनिन ने कहा है कि कभी कभी 7 साल तक कुछ नहीं होता और कभी 7 दिन में बहुत कुछ हो जाता है. लेकिन जो हुआ वही इतिहास है. आज जरूरत जनवादी चेतना के प्रसार और जनवादी जनाधार बनाने की है. भगत सिंह के एक वाक्य से अपनी बात खत्म करता हूं, जो मुश्किल कामों में प्रेरणा देते हैं. Revolutionaries fought for the oppressed because they had to.
24.06.2014
24.06.2014
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