नस्लवाद के दुर्ग पर निर्णायक प्रहार
अमेरिका में दासता
एवं नस्लवाद की विचारधारा
ईश मिश्र
पिछले महीने अमेरिका के मिनेसोटा राज्य के
मिनियापोलिस शहर में श्वेत पुलिसकर्मियों द्वारा, हिरासत में, नकली बिल का
इस्तेमाल करने के आरोप में एक अश्वेत नागरिक, जॉर्ज फ्लॉयड की बर्बर हत्या के
विरुद्ध भड़की नस्लवाद विरोधी आग की लपटें दुनिया भर में फैल गयीं, खासकर पूर्व
उपनिवेशवादी देशों में। रंगभेद आधारित
नस्लवाद के विरोध से शुरू आंदोलन की लपट के चपेट में औपनिवेशिक इतिहास आ गया है।
यह आंदोलन औपनिवेशिक दौर तथा माल के लूट के साथ गुलाम बनाने के लिए इंसानों की लूट
पर सवाल ही नहीं उठा रहा है उनके प्रतीकों को भी तोड़ रहा है तथा कोलंबस की विरासत
को चुनौती दे रहा है। बोस्टन शहर में
कोलंबस की मूर्ति उखाड़कर झील में फेंक दिया गया। इंगलैंड के ब्रिस्टल शहर में, 17
वीं शताब्दी के दास व्यापारी, एडवर्ड कोल्स्टन की मूर्ति को तोड़ कर नदी में डाल
दिया गया। इंगलैंड में रानी विक्टोरिया की मूर्ति को विरूपित कर दिया गया। कई
शहरों के मेयर इस पर विचार-विमर्श कर रहे हैं कि औपनिवेशिक काल के प्रतीकों,
मूर्तियों को बने रहने दें कि नहीं। सभ्यता को बोझ का दंभ भरने वाली श्वेत
श्रेष्ठतावादी दुनिया के लिए यह बहुत बड़ी परिघटना है। अमेरिका के कई शहरों में
कोलंबस तथा दासता के समर्थकों की मूर्तियां क्षतिग्रस्त कर दी गयीं।
उपनिवेशवादियों, दासता के पैरोकारों तथा दास-व्यापारियों की मूर्तियां तोड़ने से
इतिहास नहीं बदल जाएगा, लेकिन सभ्यता के बोझ के तर्क से व्याख्यायित इतिहास की पुनर्व्याख्या
के जरिए भविष्य के लिए इतिहास से सीख ली जा सकती है। अमेरिका के कई राज्यों और
नगरपालिकाओं ने पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के कानूनोंपर विचार शुरू कर दिया
है।
अमेरिका और यूरोप में नस्लवादी हिंसा के खिलाफ जब
ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन की ज्वाला दहक रही थी, नस्लवादी बर्बरता के
विरुद्ध समाज का हर तपका आक्रोशित था उसी दौरान 6 जून, 2020 को भारत में उत्तर
प्रदेश के अमरोहा जिले में, मंदिर में पूजा करने के विवाद एक दलित युवक की गांव के
सवर्णों द्वारा हत्या कर दी गयी। पिछले 3 सालों में अपराध
उन्मूलन के बहाने उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में अनेक हत्याएं हुईं। देश के
विभिन्न भागों में सांप्रदायिक दर्मोंमादी हिंसक भीड़ द्वारा कई अल्पसंख्यक मारे
गए। लेकिन यहां प्रतिरोध की कोई लहर नहीं उठी।
तुलना की गुंजाइश नहीं है, वह अलग लेख का विषय है। रंगभेद पर आधारित
नस्लवादी अन्याय तथा उसके विरुद्ध जनमानस के आंदोलित होने का इतिहास पुराना एवं
क्रमिक है, नस्लवाद के विरुद्ध मौजूदा आंदोलन की व्यापकता और सरोकार के फलक को
देखते हुए यह नस्लवाद की विचारधारा पर निर्णायक प्रहार लगता है। इस संदर्भ में
भारत में जातिवादी या सांप्रदायिक भेदभाव और हिंसा की चर्चा का मकसद यह इंगित करना
है कि तीनों ही ऐतिहासिक कारणों से निर्मित विचारधाराएं हैं और उन्ही कारणों से
उनका अंत भी संभव ही नहीं अवश्यंभावी है। परजीवी (सवर्ण) वर्गों के सामाजिक
वर्चस्व के मकसद से निर्मित विचारधारा, वर्णाश्रमवाद (जातिवाद या ब्रह्मणवाद) का
इतिहास हजारों साल पुराना है। नस्लवाद के इतिहास की जड़ें तो असमानताओं की
विचारधाराओं के पुरोधा, प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू तक जाती हैं, लेकिन आधिनिक
संदर्भ में 18वीं शताब्दी में खोजी जा सकती हैं जब दास श्रम अमेरिकी अर्थव्यवस्था
का प्रमुख आधार बना। गौरतलब है कि अरस्तू दासता को अनिवार्य एवं स्वाभाविक मानता
था तथा दानवों (बार्बेरियन्स यानी गैर यूनानियों) को स्वाभाविक दास। विचारधारा के
रूप में सांप्रदायिकता का इतिहास डेढ़ सौ साल से थोड़ा अधिक पुराना है जिसे 1857
की किसान क्रांति से विचलित औपनिवेशिक शासकों ने बांटो-राज करो नीति के तहत
निर्मित किया और जो आजादी के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान में धर्मोंमादी राजनैतिक
लामबंदी की विचारधारा बन गयी। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का नियम है कि जिसका भी
अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है तथा ये विचारधाराएं अपवाद नहीं हैं। भेदभाव की इन
विचारधाराओं -- सवर्ण श्रेष्ठतावादी
वर्णाश्रमवाद (ब्राह्मणवाद); धर्मोंमादी, राजनैतिक लामबंदी की विचारधारा सांप्रदायिकता
जो प्रकारांतर से ब्राह्मणवाद का ही राजनैतिक संस्करण है तथा अमेरिका और यूरोप में
अफ्रीकी मूल के अश्वेतों की दासता के लिए गढ़ी गयी नस्लवाद की विचारधारा – का
तुलनात्मक अध्ययन वांछनीय तो है, लेकिन यहां गुंजाइश नहीं है।
यह लेख, औपनिवेशिक पूंजीवाद के विकास में दास
श्रम के उपयोग तथा दासता के औचित्य के रूप में गढ़ी गयी नस्लवाद की विचारधारा को
ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य में रखने की एक कोशिस है। मौजूदा नस्लवाद विरोधी आंदोलन, ब्लैक
लाइव्ज मैटर (अश्वेत भी इंसान हैं), अमेरिका में 1860 के दशक के गृहयुद्ध के
दासता विरोध से शुरू अश्वेत अस्मिता की दावेदारी के आंदोलन की निरंतरता की ताजी
कड़ी है। रोजा पार्क नामक अश्वेत नागरिक को एक श्वेत यात्री के लिए सीट न खाली
करने के “दुस्साहस” के चलते जबरन बस से उतारने की परिघटना के विरुद्ध शुरू
हुआ 1950-60 के दशकों का नागरिक अधिकार
आंदोलन इसका एक अहम पड़ाव था। कोलंबस की पंचशताब्दी वर्ष, 1992 में अश्वेत नागरिक रोडनी
किंग को प्रताड़ित करने वाले पुलिसकर्मियों को न्यायालय द्वारा दोषमुक्त घोषित
करने के विरोध में उपजे असंतोष से उपजा विरोध प्रदर्शन एवं 2012 में अश्वेत
नाबालिग ट्रेवन मार्टिन की हत्या के जिम्मेदार पुलिसकर्मी जॉर्ज जिमरमैन की 2013
की रिहाई के विरुद्ध असंतोष की अभिव्यक्ति भी इस निरंतरता की प्रमुख कड़ियां हैं।
दर असल “ब्लैक लाइव्स मैटर” इस असंतोष को सोसल मीडिया में प्रदर्शित
करने के लिए फर्ग्यूसन और न्यूयॉर्क शहरों से क्रमशः माइकल ब्राउन और एरिक गार्नर
नामक व्य्कितियों ने हैशटैग के रूप में शुरू किया था। 2014 तक इसने सोसल
मीडिया राष्ट्र-व्यापी आंदोलन का रूप ले लिया। इसके कार्यकर्ताओं ने 2016 के
राष्ट्रपति चुनाव के लिए इसका इस्तेमाल प्रचार के प्लेटफॉर्म के रूप में किया।
मौजूदा आंदोलन की व्यापकता और गुरुत्व देखते हुए लगता है कि यह नस्लवाद के दुर्ग
पर निर्णायक प्रहार हो सकता है।
जी, नस्लवाद कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही “सत्यमेव जयते” की तरह कोई साश्वत विचार है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम
तक चला रहा है। नस्लवाद विचार नहीं, बल्कि सांप्रदायिकता, ब्राह्मणवाद (जातिवाद) या मर्दवाद की ही तरह एक
विचारधारा है जो नित्य-प्रति के व्यवहार और विमर्श में निर्मित-पुनर्निर्मित और
पोषित होती है। विचारधारा इस अर्थ में मिथ्या चेतना होती है कि यह एक खास ऐतिहासिक
संरचना को स्वाभाविक या अंतिम सत्य के रूप में पेश एवं प्रचारित है। अमेरिका में नस्लवाद की विचारधारा को कोलंबस की
विरासत के रूप में देखा जा सकता है।
कोलंबस नामक एक स्पेनी व्यापारी सोने –
चांदी की लालसा में भारत आना चाहता था
लेकिन रास्ता भटक कर अक्तूबर 1492 में अमरीका पहुंच गया और एक नयी दुनिया की ‘खोज’ कर डाली। इस ‘खोज’ के साथ इतिहास में एक नया दौर शुरू हुआ –
औपंनिवेशिक शोषण,
लूट और नरसंहार का दौर जिसकी निरंतरता
आज तक बनी हुई है। ‘खोज’ की इस अवधारणा में कितना मिथ है और
कितना यथार्थ इसका पता इस बात से ही चल जाता है कि अन्य लोगों ने कोलंबस से हजारों
साल पहले ही इस भूखंड की खोज कर के वहां एक उन्नत सभ्यता का विकास कर लिया था।
कोलंबस की ‘खोज’
से जो नयी बातें शुरू हुई वे थीं अमरीका के मूल निवासियों
का अभूतपूर्व नरसंहार और ऐज्तक जैसी गौरवशाली सभ्यताओं का विनाश। अफ्रीकी मूल के
लोगों को जबरन दास बनाने की प्रक्रिया इसकी अगली कड़ी थी जिसके लिए नस्लवाद की
विचारधारा गढ़ी गयी।
विश्वव्यापी आंदोलन के दबाव में, मेन्सोटा राज्य
के मिनियापोलिस शहर में गला दबाकर जॉर्ज फ्लॉयड के हत्यारे पुलिस कर्मी चाविन पर
हत्या का जिस दर्जे(दूसरी डिग्री) का मुकदमा दर्ज किया गया है, उसके लिए कम-से-कम
12 साल की जेल की सजा है। लेकिन
1992 में जब अमेरिका और यूरोप में कोलंबस की तथाकथित खोज की पंचशताब्दी का जश्न
मनाया जा रहा था, वीडियो टेप के प्रत्यश साक्ष्य के बावजूद ऱॉडनी किंग नामक
अश्वेत अमरीकी नागरिक को निर्ममता से पीटने वाले श्वेत पुलिसकर्मियों को बाइज्जत
बरी करके लॉस एंजेलस के श्वेत न्यायाधिशों ने अमरीकी न्यायप्रणाली के नस्लवादी
अन्याय को तो रेखांकित किया ही, दुनिया को यह भी बता
दिया कि अमरीकी न्यायालयों के फैसले साक्ष्य पर नहीं न्यायाधीशों की श्वेत
श्रेष्ठतावादी मान्यताओं पर आधारित होते हैं। दरअसल ल़ॉस एंजेलस के न्यायाधीशों के पास शायद
ही कोई और विकल्प था। वे कोलंबस की ‘खोज’ के बाद की उन्हीं ऐतिहासिक परंपराओं और अनुष्ठानों के अंग है जो हर रोज नस्लवाद की रचना और पुनर्रचना
करते हैं। लेकिन जैसा कि जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिसिया हत्या के विरुद्ध उमड़े जनसैलाब
से जाहिर है, अब वे दिन गए जब अफ्रिकी मूल के लोगों को गुलाम बनाकर जानवरों की तरह
हांका जाता था। नस्ल विरोधी मानवीय चेतना इतनी विकसित हो चुकी है कि जब भी किसी
फ्लॉयड या रॉडनी किंग के साथ की गई नस्लवादी बर्बरता को न्याय की संज्ञा दी जाएगी तो नस्लवाद विरोधी आक्रोश उसे खाक
में मिला देगा।
कभी-कभी
ऐसा होता है कि कुछ लोग अपने विश्वासों – अंधविश्वासों के प्रति इतने प्रतिबध्द होते हैं कि उनको
प्रत्यक्ष तार्किक विसंगतियों की परवाह किए बिना आस्था के तौर पर आत्मसात कर लेते
हैं। एक अश्वेत नागरिक (जिसके पूर्वजों को बर्बरतापूर्ण व्यवहार बर्दाश्त करते हुए
अपने स्वामियों के उपभोग के लिए उत्पादन करना पड़ता था) जो इन श्वेत
श्रेष्ठतावादियों की मान्यता के अनुसार स्वाभावतः अपराध-प्रवृत्ति का होता है, उसके द्वारा पुलिस के गला दबाने पर सांस फूलने गुहार से श्वेतश्रेष्ठतावादी पुलिस कर्मियों
क्यों सुनाई देती? 1992 में भी रॉडनी किंग की गुहार न्याय के रखवालों को नहीं
सुनाई दी थी और आज की ही तरह उस समय भी संचित नस्ल विरोधी आक्रोश ने उग्र रूप धारण
कर कई अमरीकी नगरों को अपनी चपेट में ले लिया था, यद्यपि उसकी व्यापकता और गुरुत्व
का पैमाना मौजूदा ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन से काफी कम था।
श्वेत
श्रेष्ठतावाद के प्रत्यक्ष-परोक्ष पैरोकार अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को यह नस्ल
विरोधी आंदोलन भले ही “अनियंत्रित भीड़ की बर्बरता” लगे,
मिनियापोलिस से
शुरू हुए इस आंदोलन ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है तथा कोलंबस की
विरासत को डावाडोल कर दिया है। इसकी व्यापकता से भयभीत ट्रंप को व्हाइट हाउस के
बंकर में छिपना पड़ा। आंदोन की प्रगाढ़ता का अंदाज इससे लगाया जासकता है कि ट्रंप
के बल प्रयोग के परामर्श और आंदोलन के बारे में नस्लवादी टिप्पणी के जवाब में
ह्यूस्टन राज्य के पुलिस प्रमुख ने कह दिया कि कुछ सकारात्मक बात नहीं कर सकते तो
मुंह बंद रखे। आंदोलन को नियंत्रित करने के लिए सेना की तैनाती की ट्रंप की राय पर
सेना के अधिकारियों तथा पूर्व अधिकारियों ने आलोचनात्मक टिप्पणियां की।
कोलंबस
की तथाकथित खोज के बाद अजटक और इंका जैसी उच्चकोटिक सभ्यताओं के विनाश तथा मेरिका
के मूलनिवासियों के बर्बर नरसंहार की चर्चा कीगुंजाइश यहां नहीं है। 1990 के
आस-पास छपी डी ब्राउन की पुस्तक बरी माई हॉर्ट एट वुंडेड नी मूल निवासियों
की नैतिकता, बहादुरी तथा यूरोपीयों की अमानवीय बर्बरता के बारे में आंखे
खोलने वाली है। 1992 में कोलंबस के पंचशताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में न्यूयार्क
की स्वतंत्रता की प्रतिमा को बारसिलोना स्थित कोलंबस की प्रतिमा से ब्याहने की
घटना स्वतंत्रता संग्रामों के इतिहास को कलंकित करने के साथ स्वतंत्रता
शब्द का भी मजाक उड़ाने वाली थी।
यूरो-श्वेत
श्रेष्ठतावादी अमेरिका में अपराधों के लिए अश्वेतों में “नस्ली तौर पर मौजूद अपराध
प्रवृत्ति” को ही जिम्मेदार मानते हैं। पिछले तीन दशकों में नस्लवादविरोधी चेतना
का स्तर इतना बढ़ा है कि आंदोलन के बारे में प्रतिकूल टिप्पणी करने वाले प्रकाशनों
के कई संपादकों ने इस्तीफा दे दिया। 1992 में डेली टेलीग्राफ के एंडू
सुलिवन नस्लविरोधी प्रदर्शनों के दुष्परिणामों पर आंसू बहाते हुए रॉडनी किंग की
बेरहमी से पिटाई को परोक्ष रूप से जायज ठहराया था। अपनी नस्लवादी सोच को जाहिर
करते हुए उन्होंने लिखा था कि लॉस एंजेलस की अदालत के फैसले को इस वृहत्तर संदर्भ
में रखकर देखना चाहिए कि “ज्यादा अपराध कौन करता है” और आंकड़ों के हेर-फेर से साबित करने की कोशिस की
थी कि अफ्रिकी मूल के लोग “स्वभावतः” अपराधी होते हैं।
जनवरी
1988 में अमरीका टेलीविजन नेटवर्क के एक खेल उद्घोषक जिम्मी द ग्रीक ने दर्शकों को
बताया था कि बास्केट बाल में यदि प्रशिक्षक भी अश्वेत होने लगे तो श्वेतों के लिए
टीम में कोई जगह ही नहीं बचेगी। आगे यह भी बताया था कि अश्वेत इस खेल में इसलिए
ज्यादा दक्ष होते हैं कि उनकी जांघें चौड़ी होती हैं। इसके लिए उनकी पूर्वजों के
नियोजित प्रजनन की भूमिका को रेखांकित करते हुए इतिहास की अपनी जीव वैज्ञानिक समझ का परिचय देने के उद्देश्य से उसने कहा, “दास व्यापार के दौरान मालिक लोग भारी भरकम काले गुलामों का
सहवास आनुपातिक कद काठी की काली औरतों के साथ प्रायोजित करते थे जिससे तिजारत के लिए गुलामों की अच्छी पैदावार हो सके”।
‘नस्ल’ की यह जीवविज्ञानिक समझ ‘द
ग्रीक’
जैसे खेल उद्घोषकों तक ही सीमित होती तो
गनीमत थी। शिक्षित होने का दावा करने वाले और उसी की कमाई खाने वाले भी उससे पीछे
नहीं हैं वाशिंगटन पोस्ट के जाने माने उदारवादी पत्रकार रिचर्ड कोहेन ने द ग्रीक
की हिमायत करते हुए शरीर विज्ञान के विद्वानों को धता बताकर श्वेत जींस का
सिध्दांत प्रतिपादित कर डाला। सुलिवन और कोहेन जैसे पत्रकार पहले रंग-रूप की
विशिष्टताओं को नस्ल के रूप में परिभाषित करते हैं और घुमावदार तर्क का इस्तेमाल
करते हुए उसी परिभाषा के माध्यम से नस्लीय भिन्नता प्रमाणित करते हैं।
नस्ल
की यह जीवविज्ञानिक समझ खेल उदघोषकों और अधकचरे पत्रकारों तक ही सीमित होती तो भी
गनीमत थी। मई 1987 में अमरीका के सर्वोच्च न्यायालय में कुछ अरब यहूदी राष्ट्रीयता
के अमरीकी नागरीकों ने भेदभाव से बचने के लिए नागरिक कानून के तहत संरक्षण की
याचिका दायर की। जनतंत्र में किसी के विरूध्द भेदभाव की मनाही के सिध्दांत के आधार
पर फैसला करने की बजाय सर्वोच्च न्यायालय ने अरब यहूदी लोगों की काकेशियन समूह के लोगों
से नस्ली त भिन्नता जानना चाहा था। भिन्न होने पर उन्हें नस्ली भेदभाव से संबंधित
नागरिक कानूनों के तहत संरक्षण मिल सकेगा। फिर फैसला किया कि चूंकि उन्नीसवीं
शताब्दी तक अरब,
यहूदी और कई अन्य राष्ट्रीयता और
जातीयता के समूहों को नस्ली समूह के रूप में माना जाता था इसलिए उन्हें सौ साल बाद
भी वैसा ही माना जा सकता है। 100 साल पहले के नस्ली अन्याय को समाप्त करने की बजाय
सर्वोच्च न्यायालय ने 19वीं शताब्दी के नस्ली अधंविश्वास और पूर्वाग्रह को
पुनर्स्थापित करना ही न्यायसंगत समझा था। अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के पास शायद
ही कोई और विकल्प रहा होगा क्योंकि वह भी अमरीका के उसी ऐतिहासिक विकास की विरासत
का हिस्सा है जिसकी नींव अनगिनत रेड इंडियनों, अनुबंधित नौकरों और गुलामों के लहू
से जोड़ी गई है। इस तरह हम पाते हैं कि, अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय और जिम्मी द ग्रीक में इस अर्थ में
कोई फर्क नहीं है कि दोनों ही के विचार उन्हीं अवधारणाओं से प्रभावित हैं जो एक
विचारधारा के रूप में नस्ल की रचना और पुनर्रचना करती है। ज्यादातर अमरीकियों के
दिमाग में प्रत्यक्ष या परोक्ष यह कुतर्कपूर्ण अवधारणा घर कर गई है कि अफ्रीकी मूल
या रूप रंग के लोग अलग किस्म के जीव होते हैं। जिनके हर काम, बात या विचार से नस्ल
की बू आती है। श्वेत श्रेष्ठतावादी बौध्दिकों को यूरो अमरीकी शब्द अटपटा लगता है
लेकिन अफ्रीकी-अमरीकी सहज। जिस तरह हमारे देश की कई धर्म निरपेक्ष शिक्षण संस्थाओं
के आवेदन पत्रों पर धर्म और जाति के कालम होते हैं उसी तरह अमरीकी शिक्षण संस्थाओं
के आवेदन पत्रों पर नस्ल का कॉलम होता है। इसीलिए अमरीका में एक तरफ सुंदरी
प्रतियोगिता होती है तो दूसरी तरफ ‘अश्वेत-सुंदरी-प्रतियोगिता’, कुछ कवि होते हैं और कुछ ‘अश्वेत’ कवि। जान अपडाइक लेखक हैं और टॉनी मारीसन अश्वेत लेखक बुश
राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे और ओबामा अश्वेत उम्मीदवार। लेकिन 1950 के दशक के
बाद के 50 सालों में सामाजिक चेतना का तिहास इतना आगे बढ़ चुका था कि ओबामा
अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए। चुनाव परिणामों से साफ हो गया था कि ओबामा को तमाम
तबकों से मुद्दों के आधार पर समर्थन मिला था न कि केवल अफ्रीकी अमरीकियों का।
अमरीकी
इतिहास की एक प्रचलित पाठ्य पुस्तक (विंथ्रॉप जार्डन, लिऑन लिर्वाक व अन्य दि यूनाइटेड स्टेट्स, 1982) में अमरीकी संविधान की एक धारा की व्याख्या इस प्रकार की गई है, प्रत्यक्ष कर और प्रतिनिधित्व के मामले में पाँच अश्वेत तीन
श्वेतों के बराबर हैं। (पृ. 144) उपनिवेश विरोधी क्रांति के बाद निर्मित संविधान
जैसे दस्तावेज में ‘श्वेत’,
‘अश्वेत’ जैसे शब्दों की अनुपस्थिति पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
संविधान में स्वतंत्र व्यक्तियों और अन्य व्यक्ति (दास के लिए सम्मानजनक संबोधन)
का वर्णन है। उपरोक्त ‘तीन-पाँच’ धारा का संबंध दास
स्वामियों के विशेषाधिकारों से था। 1789 में बने संविधान ने स्वामियों को दासों की
संख्या के तीन पाँचवें अनुपात में दास-स्वामित्व के एवज में प्रतिनिधित्व का अधिकार
प्रदान किया और उसी अनुपात में प्रत्यक्ष करों की जिम्मेदारी। अमरीका के संविधान
निर्माताओं की विडंबना यह थी कि उनके एक हाथ में स्वतंत्रता की मूर्ति थी और दूसरे
में दास व्यापार के मुनाफे की थैली। 1776 में उत्तरी अमरीका के कुछ उपनिवेश आजाद
हुए थे पर वहाँ के गुलाम नहीं। गृह-युध्द के दौर में दास प्रथा के विरोधी और
समर्थक दोनों ही इसके लिए कोलंबस की बिरासत को नहीं बल्कि अफ्रीकी मूल के लोगों की
गुलामी को स्वाभाविक तथा नस्लवाद को स्वयं सिध्दि मानने थे।
कई
अमरीकी इतिहासकार अमरीका में दास प्रथा की व्याख्या नस्ल संबंधों की प्रणाली के
रूप में करते हैं जैसे इसका प्रमुख उद्देश्य तंबाकू, चावल,
चाय, कपास,
चीनी आदि का उत्पादन न होकर श्वेत
श्रेष्ठता का निर्माण रहा हो। अंग्रेजों सी ही गोरी चमड़ी के बावजूद आयरिश जनता के
दमन में भी ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने बर्बरता के उन्हीं तर्कों का इस्तेमाल किया
था जो अफ्रीकी,
एशियाई और अमरीकी मूल के लोगों के दमन
में किया था। प्राचीन यूनान और रोम में स्वामी और दास के संबंध का निर्धारण रंग रूप
के आधार पर नहीं होता था। हिटलर के गैस चैंबरों में घुट-घुट कर मरने वालों में
यहूदियों और जिप्सियों के अलावा जर्मन (आर्य) जाति के ही कम्युनिस्ट एवं अन्य
राजनैतिक विरोधी भी थे। नस्लवादी दमन रंग रूप की भाषा नहीं समझता वह सिर्फ
प्रतिरोध की भाषा समझता है। जैसा ऊपर कहा गया है, नस्ल दरअसल न तो जीववैज्ञानिक
गुण/प्रवृत्ति है और न ही कोई शाश्वत विचार। नस्ल पूंजीवाद की एक विचारधारा है जो
एक खास दौर में आर्थिक राजनैतिक उद्देश्यों के ऐतिहासिक कारणों से अस्तित्व में
आई। इसीलिए इसका अंत भी संभव है। लेकिन ऐसे लोगों के लिए जिन्होंने नस्लवाद को
अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लिया हो नस्लवाद ऐतिहासिक विचारधारा से वशंगत
प्रवृत्ति बन जाती है। (वेंथ्राप जार्डन, व्हाइट ओवर ब्लैकः अमेरिकन एटीच्यूट टुवर्ड नीग्रो 1988)
17वीं
शताब्दी की शुरूआत में जब उत्तरी अमरीका (जो आगे चलकर संयुक्त राज्य अमरीका बना)
के अंग्रेजी उपनिवेशवादियों को वर्जीनिया में तंबाकू उत्पादन की संभावनाओं का पता
चला तो उन्हें मालामाल बनाने वाले तंबाकू अर्थतंत्र की रीढ़ अफ्रीकी गुलाम नहीं,
बल्कि भूस्वामियों जैसी ही गोरी चमड़ी वाले इंग्लैंड से लाए गए अनुबंधित नौकर थे।
इन्हें खरीदा बेचा जा सकता था, चुराया जा सकता था, अपहृत किया जा सकता था, जुए में दांव पर लगाया जा सकता था या उपहार में दिया जा सकता
था। उनके साथ गुलामों जैसा ही बर्बर व्यवहार किया जाता था। उनकी स्थिति अफ्रीकी गुलामों से इस मायने में बेहतर
थी कि उनकी संताने इस अभिशाप से मुक्त थीं और कुछ भाग्यशाली अनुबंध की अवधि के बाद
भी जिंदा बच जाते थे। कुछ लालची भूस्वामी उन्हें स्वतंत्रता और स्वतंत्रता राशि से
वंचित करने के लिए अनुबंधों के साथ हेराफेरी करते थे, विषाक्त भोजन देते थे, उन्हें निर्दयता के साथ पीटते थे यहाँ तक कि जान से मार देते
थे। भूपतियों की पसंद से अलग आचरण करने पर हाथ पैर तोड़दिए जाने, जीभ,
कान, काट लेने जैसी घटनाएं अनजानी नहीं थी। (एडमंड मार्गन, अमैरिकन स्लेवरी, अमेरिकन फ्रीडमः दि आर्डियल ऑफ कोलोनिअल वर्जीनिया 1975,
पृष्ठ 14-30)
वर्जीनिया
उस समय तंबाकू उत्पादन से मालामाल होने के लिए मशहूर था। जनतांत्रिक अधिकारों, स्वतंत्रता था उत्तरदायी सरकार की बातें अनजानी थी। जनतांत्रिक
तरीकों से मुनाफा नहीं कमाया जा सकता था। अनुबंधित नौकरों को चरम शोषण और अमानवीय
बर्बरता से न तो उनकी गोरी चमड़ी बचा सकी थी और न ही ब्रिटिश राष्ट्रीयता। अंग्रेज
उपनिवेशवादियों ने अनुबंधित नौकरों को इसलिए नहीं गुलाम नहीं बनाया कि एक यूरोपीय
दूसरे यूरोपीय के शोषण में एक हद से आगे नहीं जा सकता। ऐसा इसलिए हुआ कि अनुबंधित
नौकर भी सशस्त्र थे और संख्या में भी अधिक थे। उन्हें गुलाम बनाने की कार्रवाई में
विद्रोह की संभावना निहित थी। इससे उपनिवेशवादी खेमे में दरार का फायदा उठाकर बदले
की ताक में बैठे अमरीकी मूल के लोगों के आक्रमण का भी खतरा था। इसके अलावा इसकी
खबर फैलने के बाद इंग्लैंड से और नौकरों की आमद बंद होने का भी खतरा था। दमन को
प्रतिरोध से ही रोका जा सकता है। ब्रिटिश निम्न वर्गों की आजादी अभिजात अंग्रेजों
की कृपा का परिणाम नहीं थी। इसका एक-एक टुकडा सदियों के संघर्षों से हासिल किया
गया था। दास प्रथा का अंत भी मालिकों के हृदय परिर्वतन या उनकी
जनतांत्रिक चेतना के चलते नहीं हुआ। गुलामों ने आजादी का एक-एक टुकडा लड़कर हासिल
किया। पिछले संघर्षों से हासिल आजादी को बचाने और बढ़ाने के लिए अगला संघर्ष करना
पड़ा। जैसा पर कहा गया है, अमरीका का
मौजूदा नस्ल विरोधी आंदोलन पिछले संघर्षों की अगली कड़ी है।
मार्क्स
ने कहा है, “अ4थ ही मूल है”। अमरीका में औपनिवेशिक अर्थतंत्र की ऐतिहासिक जरूरतों
के चलते दास प्रथा का जन्म पहले हुआ उसकी विचारधारा के रूप में नस्लवाद का निर्माण
का बाद में। वर्जीनिया में तम्बाकू व्यापार के चरमोत्कर्ष के दौर में वहाँ की
अश्वेत आबादी नगण्य थी। एक अध्ययन के अनुसार, 1645 में लगभग 500 और 1660 में लगभग
2,000 अश्वेत थे। (मॉर्गन, पृ. 298) ऐसा इसलिए था कि अनुबंधित नौकरों की तुलना में, गुलाम
की जिंदगी की अवधि इतनी कम होती थी कि प्रायः एक नौकर के सात वर्ष की अवधि के एक
अनुबंध का श्रम किसी दास के आजीवन श्रम से अधिक ही पड़ता था और औरतों की नगण्य
संख्या को देखते हुए भविष्य में गुलामी के लिए गुलाम बच्चों की संभावनाएं भी
अनिश्चित थी। (मार्गन,
पृ. 111)
श्रम
और जीवन की परिस्थितियों के बारे में प्रतिकूल प्रचार से आजीविका की तलाश में
इंग्लैंड से आने वाले अनुबंधित नौकरों की संख्या घटने लगी तो उत्पादन बरकरार रखने
के लिए वेस्ट इंडीज और अफ्रीका से जबरन ले आए जाने वाले अफ्रीकी और ऐफ्रो-वेस्ट
इंडियन लोगों की संख्या में वृध्दि स्वाभाविक थी। यह स्थिति स्वामियों के लिए और
मायने में फायदेमंद थी कि अंग्रेज निम्न वर्ग ऐतिहासिक विकास में अपनी शिरकत के
दौरान वार्तालापों और संघर्षों के जरिए स्वामियों के साथ संबंध निर्धारण में कई
सुविधाएं अर्जित कर चुका था। उनके संघर्षों के पीछे उनके पूर्वजों के संघर्षों का
इतिहास था। जबकि स्वजनों से दूर अफ्रीकी मूल के लोगों को संघर्ष की शुरूआत शुरू से
करनी थी। इसलिए इन लोगों की गुलामी की जंजीरों में जकड़ना आसान था। वैसे भी
वर्जीनिया के दास व्यापारी अक्सर पहले से प्रशिक्षित दास ही खरीदते थे। 1660 तक न
तो आजीवन दासता से संबधित कानून ही बने थे और न ही अफ्रीकी मूल के नौकरों को लिए
कोई अलग आचार संहिता थी। 1661 के पहले अफ्रीकी मूल के गुलामों के पास 19वीं
शताब्दी के स्वतंत्र अश्वेतों से भी अधिक अधिकार थे। (विली रोज, सं. –
ए डाक्युमेंटरी हिस्ट्री ऑफ स्लेवरी इन
नार्थ अमेरिका 1976 पृ. 16-18) उस समय तक एक आजीवन दास का दाम 5 वर्षों के लिए
अनुबंधित ब्रिटिश नौकर के दाम का दुगुना था और उसकी जिंदगी प्रायः 5 साल से कम ही
होती थी। इसीलिए उस समय तक दास प्रथा संस्थागत ढाँचा नहीं अख्तियार कर सका था ।
(मार्गन,
पृ 197-98)
1660
के बाद तंबाकू के दामों में गिरावट शुरू हुई। अमरीका आने वाले ब्रिटिश नौकरों की
संख्या घटने लगी और अफ्रीकी गुलाम काफी समय तक जिंदा रहने लगे। अनुबंधित नौकर
अनुबंध की अवधि से अधिक जीने लगे और स्वतंत्रता राशि के साथ जमीन पर भी दावा जताने
लगे। इससे जिनका ऐश्वर्य नौकरों के श्रम पर आधारित था उन्हें चिंता होने लगी। उन्होंने बहाने गढ़कर
नौकरों की अनुबंध की अवधि बढ़ाना शुरू कर दिया। दूसरा तरीका यह अपनाया कि सभी
सिंचाई योग्य जमीनों पर कब्जा घोषित कर दिया जिससे स्वतंत्र हुए नौकर या तो
भूस्वामियों के मालगुजारीदार बनकर उनकी सेवा टहल बजाएं या फिर असिंचित सीमांत
प्रांतों में जाकर बसें और बारंबार अतिक्रमण के शिकार अमरीकी मूलनिवासियों के कोप
का भाजन बनें। 1670 के दशक में स्वतंत्र, भूमिहीन, असतुष्ट और सशस्त्र
श्वेत युवकों की फौज वर्जीनिया के शासकों के सामने चुनौती बन गई। और 1676 में इन
युवकों ने नौकरों और गुलामों के साथ मिलकर विद्रोह का बिगुल बजा दिया। शक्ति और
सत्ता की व्यवस्था को सशक्त झटका देने की अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा किए बिना ही
विद्रोह की लौ बुझ गई लेकिन इसने शक्तिशाली अमीरों के मन में श्वेत-निम्न वर्गों
के प्रति संदेह की भावना भर दी। यूरोपीय मूल के लोगों को नौकर रखना खतरनाक समझा
जानो लगा। (मार्गन,
पृ. 250-70)
इ
|
उसके
बाद औपनिवेशिक अर्थतंत्र के बदले समीकरणों के तहत अफ्रीकी मूल के दासों की संख्या
तेजी से बढ़ने लगी और दास प्रथा को संस्थागत ढांचा प्रदान करने की जरूरत महसूस की
जाने लगी व उसका औचित्य ठहराने के लिए विचारधारा के रूप में नस्लवाद की। आधुनिक
नस्लवाद की जड़ें तो कोलंबस की “खोज” तक जाती हैं लेकिन रंग – रूप के आधार पर इसका विधिवत विकास शुरू हुआ दास प्रथा के
संस्थागत बन जाने के बाद। रंग के फर्क को श्रेष्ठता और हीनता की शब्दावली में
प्रस्तुत करने वाली विचारधारा के रूप में नस्लवाद का इतिहास अमरीकी संविधान के
इतिहास का समकालीन है। उपनिवेशोत्तर अमरीकी समाज और राजनीति में अफ्रीकी मूल के
लोगों को शामिल तो कर लिया गया, लेकिन बिना किसी आजादी या अधिकार के। कहा जाता है
जिन लोगों को सहजता से स्वभावतः हीन मान लिया जाए उनका दमन आसान होता है। इसका
विलोम ज्यादा सही है। सामंती जमाने में किसान इसलिए नहीं सामंतों के अधीनस्थ थे कि वे स्वभावतः हीन थे बल्कि चूंकि वे अधीनस्थ थे इसलिए उन्हें
हीन समझा जाने लगा। लंबी पंरपराएं प्राकृतिक नियम का रूप धारण कर लेती हैं। प्रायः
सभी मानव समाज प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने सामाजिक गठन को प्रकृति प्रदत्त
बताने की कोशिश करते हैं। जारकालीन रूस के अभिजातों की आस्था थी उनकी हडिड्यां
सफेद थीं और किसानों (सर्फ) की काली (पीटर कोल्विन, अन फ्री लेबरः अमरीकन स्लेवरी एंड रसिअन सर्फडम, 1987 पृ. 170-91) जाहिर है किसानों की, हड्डियां देखने के उनको अनेक अवसर मिले होंगे, लेकिन विचारधारा के तहत व्याख्यायित प्राकृतिक यथार्थ प्रकृति
के यथार्थ से ज्यादा प्रभावशाली बन जाता है। ऐसा न होता तो भारत में ब्राह्मणवाद
का इतिहास इतना लंबा न होता। 19वीं शताब्दी में जब कपास और कपड़ा उत्पादन समृध्दि
का साधन बना,
अफ्रीकी गुलाम तब भी उसी तरह अर्थ तंत्र
की रीढ़ थे जिस तरह उपनिवेशवादी दौर में। इससे ऐसी स्थितियाँ बनीं कि स्वतंत्र
नागरिक (श्वेत –
अमेरिकी) एक दूसरे के प्रत्यक्ष शोषण के
बिना भी काम चला सकते थे। वर्ग शोषण को नस्ल शोषण का वैचारिक लबादा पहना दिया गया।
इस तरह दास प्रथा का वर्णन नस्ल संबंधों के अर्थों मे किया जाने लगा और इसकी
जिम्मेदारी डाल दी गई अफ्रीकी मूल के लोगों की स्वाभाविक अयोग्यता पर। नस्लवाद की
विचारधारा स्वतंत्रता और प्राकृतिक अधिकारों के क्रांतिकारी सिध्दांतों पर आधारित
गणतंत्र में दास प्रथा की व्याख्या का माध्यम बन गई। यह विचारधारा कुछ लोगों को उन
अधिकारों से वंचित रखने का औचित्य साबित करने के लिए गढ़ी गई जो औरों के लिए
नैसर्गिक अधिकार थे। यूरो-अमरीकियों ने स्वतंत्रता और दासता के अंतर्विरोधों के
समाधान में नस्लवाद की विचारधारा का अन्वेषण किया तो अफ्रीकी अमरीकियों ने इस
अतंर्विरोध के निदान के लिए दास प्रथा के अंत का नारा बुलंद किया कि स्वतंत्रता उनका भी जन्मसिध्द अधिकार है। दास प्रथा तो
समाप्त हो गई लेकिन विचारधारा के रूप में नस्ल आज भी जीवित है, जिसका ज्वलंत
उदाहरण जॉर्ज फ्लॉयड की नस्लवादी हत्या है। लेकिन आज नस्लवाद-विरोधी चेतना के
अबियान का रथ भी काफी आगे निकल चुका है, जिसका ज्वलंत उदाहरण, कोलंबस की विरासत के
चुनौती देता यह विश्वव्यापी आंदोलन है।
कोलंबस की ‘खोज’ की पंचशताब्दी समारोह के जवाब में कई यूरोपीय और अमरीकी देशों
में ‘500 साल का प्रतिरोध’ अभियान चलाया गया था । इस अभियान का उद्देश्य अमरीकी महाव्दीप
पर आक्रमणों के विरुध्द 500 सालों से चले आ रहे प्रतिरोध को रेखांकित करना था।
नस्लवाद विरोधी आंदोलन का मौजूदा अभियान कोलंबस के महिमामंडन का भंडाफोड़ करने के
साथ ही औपनिवेशिक आक्रमण,
दासता और नस्लवाद के विरुध्द सैकड़ों
सालों के संघर्षों की अगली कड़ी है।
27.06.2020
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