Pankaj Srivastava ने रेनेसां की चाह शीर्षक से एक लेख शेयर किया, उस पर कमेंट:
रेनेसां शब्द पहली बार इलाहाबाद में अपने गणित के शिक्षक प्रोफेसर बनवारी लाल शर्मा से सुना था। गिरफ्तारी से बचने के लिए 1976 में आपातकाल में भूमिगत ठिकाने की तलाश में त्रिपाठी जी (डीपी त्रिपाठी) को खोजते जेएनयू पहुंचा, त्रिपाठी जी तो तिहाड़ में थे, पर एक अपरिचित इलाहाबादी सीनियर (रमाशंकर सिंह) के कमरे में रहने का जुगाड़ हो गया और मैं प्रवेश लेने के पहले ही जेएनयूआइट हो गया। साढ़े पांच हॉस्टलों मेंसीमित दो कैंपसों में बंटा जेेनयू मुझे शर्मा जी से सुने, जाति-पांत; धर्म; क्षेत्र की सीमाओं से मुक्त रचनात्मकता से लबरेज रेनेसां (नवजागरण) कालीन फ्लोरेंस की फेंटेसी लगा। फिर एक दिन काशीराम के ढाबे पर (जो कालांतर में गंगा ढाबा बन गया) एक युवा को कुछ लोग चुंबकीय आकर्षण से सुन रहे थे वह सरल किंतु धाराप्रवाह अंग्रेजी में यूरोपीय रेनेसां के बारे में बता रहे थे, मैं भी सुनने लगा, ज्यादा समझ नहीं आया लेकिन सुनना अच्छा लगा। बाद में अनिल चौधरी (जो 1977 में प्रवेश फार्म में मेरे औपचारिक अभिभावक बने) ने परिचय कराया कि वे राजनीतिशास्त्र के शिक्षक सुदीप्त कविराज थे। इलाहाबाद जैसे सामंती माहौल से जाकर शिक्षक को नाम से बुलाने में 'रेनेसां' सी अनुभूति हुई। अनिल ने कविराज के एक पेपर की साइक्लोस्टाइल्ड प्रति दी, The Concept of Man in Political Theory। (बाद में सोसल साइंटिस्ट (दिसंबर 1979 और जनवरी 1980) में दो भागों में छपे लेख का प्रिंट आउट कविराज ने दिया)। मैं अपने हर बैच के विद्यार्थियों को अनिवार्य पाठ्य सामग्री के रूप में यह लेख प्रेस्क्राइव करता था। एक लेख में प्लेटो-पूर्व से मार्क्स-उत्तर तक के राजनैतिक दर्शन का समग्र वर्णन सराहनीय है। खैर इस लेख में 4-5 पेज रेनेसां पर हैं, जिसकी प्रमुख बातें दिमाग में आज तक अंकित हैं। माफ कीजिएगा भूमिका अनायास लंबी हो गयी। उहलौकिकता पर इहलौकिकता को तरजीह देते यूरोपपीय नवजागरण और तत्पश्चात प्रबोधन क्रांतियों के प्रमुख संदेश थे -- 1. जन्म आधारित योग्यता एवं सामाजिक विभाजन की समाप्ति; 2. इहलौकिक मामलों में ईश्वर और परंपरा की भूमिका का अंत तथा उसका तर्क-विवेक से प्रतिस्थापना; 3. सामाजिक एवं आध्यात्मिक समानता; 4. एक नए नायक -- आर्थिक नायक की उत्पत्ति जो 150 सालों में परिधि से चलकर केंद्रीय बन गया। मैंने एमए दूसरे सेमेस्टर में कविराज द्वारा पढ़ाए एक कोर्स के लिए भारतीय संदर्भ में नवजागरण पर एक टर्मपेपर लिखा था जिसकी कविराज ने तारीफ की थी (काश मुझमें संटयबोध का अपराधिक अभाव न होता)। मुझे लगता है कि प्रचीन काल में बौद्ध क्रांति उस समय के संदर्भ में एक प्रबोधन क्रांति थी। आधुनिक काल में यूरोपीय नवजागरण के समकक्ष मूल्यों के साथ कबीर के सामाजिक-साहित्यिक आंदोलन के साथ शुरू हुआ नवजागरण ऐतिहासिक कारणों से अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। जैसा सीपी ने सही लिखा है, शाहीन बाग भारत में एक नए नवजागरण का प्रतीक है। मैंने समयांतर (फरवरी 2020) में 'शाहीन बाग: एक नया नवजागरण' शीर्षक से लेख लिखा था जिसे बाद में जनचौक ने भी छापा था। इस भावी नव जागरण की खासियत यह होगी कि अगली कतार में स्त्रियां हैं/होंगी। हम चंद लेखक-पत्रकार नए नवजागरण के प्रस्थान बिंदु बन सकते हैं। Pankaj की ही तरह हममें कइयों के दिमाग में यह बात आ रही होगी, इन्होंने नई शुरुआत की जरूरत व्यक्त की। यूरोपीय नवजागरण भी चंद कवि-कलाकारोंनेशुरू किया था।
https://janchowk.com/beech-bahas/the-women-of-shaheen-bagh-rebelled-against-the-garden/
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