मुसलमानों की आबादी आरएसएस के दुष्प्रचार का स्थाई भाव रहा है। एक सज्जन ने किसी पोस्ट पर मुसलमानों की बढ़ती आबादी के खतरे का हव्वा खड़ा किया। बहुसंख्यक पर अल्पसंख्यक खतरे का हव्वा खड़ा करना फासीवादी प्रवृत्ति है। 14% किस भी रफ्तार से बढ़ें 86% से अधिक होने में हजार साल लग जाएंगे। उनकी बात के जवाब में:
जनसंख्या का धर्म से कोई संबंध नहीं है। हम 9 भाई-बहन थे, मेरे माता-पिता दोनों में कोई मुसलमान नहीं थे। हमारे सीनियर थे, अब रिटायर्ड पीसीएस (प्रोन्नत आईएएस) हैं, उनके 5 बच्चे हैं। ( 4 बेटियां)। मेरा चचेरे भाई के 6 बच्चे हैं (4 बेटियां)। मेरे गांव के मेरे हमउम्र कई ( सवर्ण हिंदू) लोग हैं जिनके 5-6 बच्चे हैं। मेरे कई मुसलमान मित्र हैं जिनके एक या 2 ही हैं। हिंदू-मुसलमान बाइनरी का जहर पोर-पोर में ऐसा भर जाता है कि हम बाभन-दलित; हिंदू-मुसलमान से इंसान नहीं बन पाते। सांप्रदायिक जहर फैलाने वाले ज्यादातर (तथाकथित) शिक्षित ही हैं।
यही कह रहा हूं जनसंख्या की चेतना धर्म से नहीं आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति से तय होती है। किसीकी सामाजिक चेतना उसके धर्म पर नहीं, उसकी ऐतिहासिक परिस्थिति पर निर्भर करती है। नियोजित परिवार की चेतना, सामाजिक चेतना का हिस्सा होता है। जिन सीनियर की बात किया है उन्हें पुत्र की चाह ने 4 बेटियों का बाप बना दिया अंततः पुत्र रत्न की भी प्राप्ति हो गयी। मेरे गांव में मेरे खानदान के मेरे आसपास की उम्र के ज्यादातर की 5 या अधिक औलादें हैं। परिजनों की सलाह मानता तो एक पुत्र-रत्न के लिए 4-5 और बेटियां होतीं। 2 बेटियों के बाद परिवार नियोजन कराने पर पूरा खानदान नाराज था। जन्मकी जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उठकर सोच पाएंगे तो हिंदू-मुसलमान का मन में बचपन से भरा पूर्वाग्रह निकल जाएगा।
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