मैंने 12 साल में ही मिडिल पास कर लिया और हाई स्कूल के छात्र हो गए। एक तो 2 साल जल्दी दूसरे दुबले-पतले लड़के अपनी उम्र से भी कम लगते हैं। घर से पैदल की दूरी पर हाई स्कूल नहीं था तथा साइकिल पर पैर नहीं पहुंचता था। सो शहर आने का मौका मिला, उस समय वह शहर (जौनपुर) अपनी ऐतिहासिकता तथा किले के बावजूद गांव का ही सांस्कृतिक विस्तार लगता था। पांडेय जी के सवाल पर छोटा सा कमेंट करना चाहता था, लेकिन भूमिका अनावश्यक लंबी हो गयी। बड़ी छुट्टियों के अलावा हर हफ्ते नहीं तो दूसरे हफ्ते तो पक्का पैसेंजर ट्रेन से घर जाते थे। हमारा गांव (सुलेमापुर) स्टेसन (बिलवाई) से 7 मील पैदल की दूरी पर था। कभी मौका मिला तो रात में स्टेसन से घर की यात्राओं के कुछ संस्मरण शेयर करूंगा। ट्रेन में या ऐसे ही जब भी किसी के पूछने पर अपनी कक्षा (9 या फिर 10) बताता था तो कई अविश्वासमय विस्मय से प्रामाणिकता की जांच के लिए गणित या अंग्रेजी का कोई सवाल पूछ देते, जवाब तो दे देता लेकिन ऐसे लोग मुझे 'गतानुगतिको लोकः' किस्म के लोग लगते थे। कई बार इसका फायदा भी हुआ। सब लड़के बिना टिकट चलते थे, 'गतानुगतिको लोकः' के आधार पर हमने भी टिकट लेना बंद कर दिया (वैसे अद्धा टिकट आठ आने का ही था)। एक बार किसी ख्याल में मस्त बैठे थे, तभी टीटी आ गए। पूछा, 'टिकट'? मैंने जेब में हाथ डाला और मासूमियत से जवाब दिया, 'नहीं है'। क्यों? फिर मैंने थोड़ा और मासूमियत से जवाब दिया 'खरीदना भूल गया'। यह बताने पर कि 10वीं में पढ़ता हूं, उन्होंने अविश्वास के अंदाज में गणित और अंग्रेजी के कई सवाल दाग दिए। सब मुझे आते थे। टीटी साहब बहुत खुश हुए और बोले, 'देखो तुम इतने अच्छे बच्चे हो, टिकट लेकर चला करो', मैंने 'जी थैंक यू' कहा और टीटी साहब चले गए। कई और रोचक अनुभव हैं, फिर कभी।
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