Raj K Mishra आपकी
इस बात से सहमत हूं कि भगवान की उत्पत्ति पीड़ा के भय से हुई क्योंकि पीड़ा के
कारणों को वह समझ न सका। कालांतर में उसके लिए धर्म का निलय बनाया गया तथा
पुरोहितों का एक वर्ग पैदा हुआ। धर्म चूंकि पीड़ा से मुक्ति की तथा प्रसन्नता की
खुशफहमी देता है इसी लिए उसे मार्क्स पीड़ित की राहत; आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा तथा हृदयविहीन दुनिया का हृदय; कमजोर की लाठी कहा है। धर्म (उहलोक) की आलोचना दर-असल इहलोक की ही आलोचना है। धर्म की आलोचना से व्यक्ति का किसी सर्वशक्तिशाली शक्ति सो मोहभंग होता है। इससे वह एक ऐसे इंसान के रूप में सोचने और अपने कर्मनिर्धारण करता है जिसने खुशफहमियों से किनारा कर आत्मबल हासिल कर लिया है। उसे दुनिया को समझने-बदलने के लिए किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं होती। इसीलिए हम धर्म की समाप्ति की बात नहीं करते बल्कि उन परिस्थितियों की जिनके चलते खुशफहमी की जरूरत होती है। व्यक्ति को जब वास्तविक खुशी मिलती है तो खुशफहमी की जरूरत नहीं रहेगी तथा धर्म अनावश्यक हो जाएगा। इस पोस्ट को, लेखन की जड़ता टूटते ही एक लेख में विकसित करने की कोशिस करूंगा। आपकी दुख के साश्वत चरित्र से असहमत हूं। सापेक्ष सुख-दुख ऐतिहासिक हैं, इसीलिए दुख का अंत संभव है।
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