लालू-मुलायम की ही तरह मायावती को भी ऐतिहासिक अवसर मिला, यदि अंतर्दृष्टि होती तो इतिहास अलग होता लेकिन उसने किसी भी तरह सत्ता में बने रहने, (आरयसयस की गोद में बैठने समेत) तथा नवब्राह्मणवादी सामंती चोचलों और धन उगाही के चक्ककर कॉरपोरेटी दलाली में गंवा दिया. गुजरात नरसंहार के बाद मायावती ने गुजरात जाकर मोदी का प्रचार किया. इलाहाबाद में बालू खनन माफिया की सेवा में बालू खनन मजदूरों, मल्लाहों और खेत मजदूरों पर जो कहर बरपाया, उसके घाव अभी भरे नहीं हैं. कई साथियों पर अब भी अनगिनत मुकदमें चल रहे हैं. मोदी के कहर को रोकने के लिए फिलहाल मायावती या अखिलेश कोई आए, सुकून की बात होगी क्योंकि वामपंथी पार्टियां अपने ही कुकर्मों-अकर्मों के चलते विकल्प देने की हालत में नहीं हैं. दलित-ओबीसी चेतना के जनवादीकरण में आप जैसों के जातीय पूर्वाग्रह सबसे बड़े बाधक हैं. निजीकरण-व्यवसायीकरण से आरक्षण अपने आप अप्रासंगिक होता जा रहा है, फिलहाल आरक्षण को अप्रासंगिक होने से बचाने यानि कॉरपोरेटी कहर को रोकने का संघर्ष कीजिए. वर्गचेतना के बिना जाति का विनाश असंभव है. आप और दिलीप मंडल जैसों के लिए लगभग अप्रासंगिक हो चुका (फिलहाल, केरल-त्रिपुरा में सीपीयम की सरकारों के बावजूद) वामपंथ कॉरपोरेट और ब्राह्मणवाद से बड़ा खतरा है, सारी ऊर्जा उसे ही गरियाने में जाया कर देते हैं. यदि हालात बदलने हैं तो सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में आइए हम सब मिल योगदान करें और जातिविहीन समतामूलक समाज की दिशा में नई लामबंदी शुरू करें. भाजपा को हराने के लिए मायावती या अखिलेश जो भी सक्षम हैं, उनका स्वागत है, लेकिन दलित तो ओबीसी को उत्पीड़क मानता है, पूर्वी उप्र में है भी ऐसा.
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