उन्मुक्त बचपन
अलग था अपना तो बचपन
बहुत काम होते थे माँ को
किसानी घर के कारोबार के
गोद की अनवरत सुरक्षा से मुक्ति देकर भी
बेइम्तिहां प्यार करती थी घर के सभी बच्चों को
व्यस्त रहते थे बाबू जी दुनियादारी के राजकाज में
ग्रामीण संभ्रांति की रश्म-ओ-रिवाज में
बैठाया होगा कंधों पर एकाध बार जरूर
लेकिन कभी हुआ नहीं एहसास वंचना भाव का
दर-असल भाग्य बन जाती हैं कर कई बार
बदलकर भेष विपरीत परिस्थितियां
अलग ही होती हैं यादें ऐसे उन्मुक्त बचपन की
वंचित नहीं मुक्त होता है जो
बाप के कंधे या माँ की गोद के सुरक्षा कवच से
करता है उन्मुक्त विचरण बाकी बच्चों के साथ
हम सोचते भी थे
कभी अपने मुद्दों पर कभी बड़े बूढ़ों के
हम सोचते ही नहीं जानते भी थे कई बातें
हम जानत थे कि अकाल से उस काल में
नहीं मिल सकता था रोटी-भात दोनों बारह-मास
करते थे इंतजार मेहमान का
न सिर्फ हिस्से की मिठाई के लिये
रोटी के सीजन में भात भी
और भात के सीजन रोटी के स्वाद का लिये भी
[ईमि/07.09.2013]
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