ज्ञानी और विद्वान का सम्मान देने के लिए, राका जी, आपका आभार. वैसे मैं न तो ज्ञानी हूं और न ही विद्वान, कुछ लोगों को कभी कभी गलतफहमी हो जाती है. विमर्श-क्षमता उम्र निरपेक्ष हाती है. मैं तो गांव से आया एक साधारण व्यक्ति हूँ. दर-असल हम सब साधरण इंसान हैं और कुछ असाधरण दिखने के चक्कर में दुखी आत्मा बन जाते हैं. दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि इलाबाद के सारे संच शुरू होते हैं स्वस्थ-सार्थक विमर्श के वादे और दावे के साथ जैसै ही विचारों के टकराव विमर्श की धार पैनी करते दिखते हैं किसी ल किसी की कुंठा या अहं सामने आ जाता है, निराधार व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है और मंच टूटने के कगार पर पहुंच जाता है. मैं व्यक्तिगत और सार्वजनिक का भेद नहीं मानता यदि वह तथ्यों तर्कों पर आधारित आलोचना हो, निराधार फतवेबाजी या गाली-गलौच नहीं. स्वस्थ विमर्श के लिए मतभेदों के प्रति न्यूनतम सहिष्णुता आवश्यक है.
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